डॉ. सांत्वना श्रीकांत II
बीते हुए बसंत की याद में…
निर्जन वन की तरह ही
मेरी पीठ पर दहकते पलाश के फूल
आती हैं इनसे पकी हुई फ़सल की गंध
आलिंगन की आंच बिखेरता
अस्त हो रहा सूर्य
सुहागन के आलते जैसा पावन है
तुम्हारा हर एक स्पर्श।
पलाश जो तुम्हारे चुम्बन से
होठों की गोलाई के सहारे
मेरी पीठ पर उग आया है
बड़ी ही शीघ्रता से झरेंगे इसके फूल
लेकिन अगले बसंत के इंतजार में
यह खड़ा रहेगा मौन!