राकेश धर द्विवेदी II
हर शख्स दौड़-भाग रहा है
बस एक ही चीज मांग रहा है
सरजी मुझे चाहिए श्रेष्ठ
इसलिए मैं नहीं करता ‘रेस्ट’।
दौड़-भाग की आपाधापी में
परेशान है हर शख्स
स्वयं को ही नहीं
दूसरों को भी कर रहा हैरान,
उसे इस सत्य का
नहीं रह गया है ज्ञान।
सर्वोच्च शिखर की तरह ही है श्रेष्ठ
जहां न कोई वनस्पति और
न ही है कोई जीवन
सिर्फ बर्फ से ढकी चोटियां
और निर्जन सी घाटियां,
बियावान मरुस्थल और घास के मैदान
जिन पर श्वांस की कमी से
परेशान जिंदगी जैसे व्यंग्य कर रही हैं।
किस काम की तुम्हारी श्रेष्ठता
जब नहीं दे सकती जिंदगी
किसी भी लाचार को,
तुम तो चांद की तरह हो
जिसका मुंह ठेढ़ा है
जहां पर काले-कुरूप पत्थर है
जो बार-बार अपने
बहुरुपियेपन से कर रहा
हर व्यक्ति को भ्रमित।
सत्य के अन्वेषण पर
वह पाया गया जीवनहीन संक्रमित
तो फिर क्यों नहीं कर रहे
इस सत्य को स्वीकार कि
सर्वोत्तम, सर्वोच्चता में नहीं
सरलता में है, जो
दूसरे को जीवन देने का प्रयास है
खुद दर्द सह कर
दूसरों के दूर करने का अभ्यास है,
इस शाश्वत सत्य का उद्घोष है कि
अपने लिए तोे सभी जीते हैं
जीवन वही है जो दूसरे के काम आए।