संजय स्वतंत्र II
मैं अब कर देना चाहता हूं
सभी कामनाओं का विसर्जन,
तट पर निस्पृह भाव में देख,
नदी ने मुझसे पूछा-
अगर तुम विसर्जित कर दोगे
अपनी सभी इच्छाएं
तो कैसे रहोगे जीवित?
अगर मेरी लहरों में
बहा दोगे अपनी समस्त कामनाएं
तो कहां से संचित करोगे
अपने लिए असीम ऊर्जा।
कल्पनाओं की पोटली भी
बहा दोगे तो कैसे रचोगे
खुद को या दूसरों को भी।
नदी को मैंने दिया जवाब-
मुक्त होना चाहता हूं मां,
बहना चाहता हूं अब
ठीक तुम्हारी तरह,
सभी के मन की
कटुता और मलिनता को
डुबो देना चाहता हूं समुद्र में,
उन्हें निर्मल कर देना चाहता हूं
ताकि हर मनुष्य की
हृदयभूमि में लहलहा उठे
प्रेम-सद्भाव की हरियाली।
मां, मैं चलते रहना चाहता हूं
कामनाओं से मुक्त होकर
तभी रच पाऊंगा खुद को फिर से।
अपनी सारी स्मृतियों का
बनाऊंगा एक स्मारक
और वहीं अर्पित करूंगा
अक्षरों की पुष्पाजंलि।
तुम्हारी लहरों पर जब
उम्मीदों की नारंगी रश्मियां
झिलमिलाएंगी इस पार से उस पार,
उसी से भस्म करूंगा
जन-जन की नाउम्मीदियों को,
तैयार करूंगा सभी के मन का रथ
सक्रिय करूंगा उनकी
दमित इच्छाओं के घोड़े,
फिर से खिलाऊंगा मैं
कामनाओं का नीलकमल
शून्यता में डूब रहे मनुष्यों के लिए।