कथा आयाम कहानी

उसे थी राम की प्रतीक्षा

राधिका त्रिपाठी II

उसकी लाश लाल रंग की साड़ी में लिपटी हुई थी। आधा बदन जस का तस दिखाई दे रहा था। मुंह और नाक के पास मक्खियां भिनभिना रही थीं। तभी भीड़ से आवाज आई, कोई इसकी नाक में रुई लगा दो। तभी कोई फुसफुसा कर बोला, ऐसी बदचलन औरत का यही हश्र होना चाहिए, भिनभिनाने दो मक्खियों को इसके चेहरे पर।
 सीतापति जब ब्याह कर आई तब उसे देख कर हर कोई यही कहता कि यह कलयुग में देवी की तरह अवतरित हुई हैं। मधुर भाषी। सुंदर नयन नक्श। लंबे बाल। इकहरा बदन। बेहद सादगी लिए हुई सूरत। अगर वो मुस्कुरा उठे तो अनार के दानों से दांत खिल जाते।
बहुत ही सुंदर लगती थी वह। ईश्वर ने अपनी हम साया को सांचे में डाल कर मानो आकार दे दिया हो। शायद ही कभी किसी ने उसकी आवाज सुनी हो। बस ब्याह के बाद मुंहदिखाई की रस्म में पड़ोस की औरतों की जिद में उसने दो लाइन का ब्याह गीत गाया था। सुन कर सभी बोल उठे कितना मधुर गाती है। ऐसे करमजले को ऐसी औरत? हे भगवान… हे भगवान। ये कैसी जोड़ी आपने बनाई। एक चरस गांजा पीकर नशे में मां और बहन को भी न छोड़े।
समय अपनी गति से गुजर रहा था। सीतापति अपने स्वभाव और गुण के अनुरूप हर परिस्थिति में ढलती गई।
कभी कोई पड़ोस की चाची या भाभी उससे मजाक में कहती कि सीतापति अपने पति पर नकेल कस कर रखो। आज फलाने गांव में दूसरी औरत के साथ पकड़ा गया है, तो वह मुस्कुरा कर बस इतना ही कहती, अरे चाची हाथी घूमे गांव-गांव जेकर हाथी वही के नाम। अब ये भगवन ही जानें कि अपने पति को किसी और के साथ सुन कर उसे बुरा क्यों नहीं लगता?
शादी के सात साल बाद तक भी उसे कोई औलाद नहीं हुई तो वही औरतें उसे ताना मारने लगीं कि  सुबह-सुबह बांझ का मुंह देखना पड़ता है। जाने दिन कैसा बीतेगा। अब सीतापति भी पहले जैसी नहीं रही। न वो काया ही रही। काम में खटते-खटते वो आधी ही बची और जो बची थी उसे भी लोगों का ताना धीरे-धीरे खाए जा रहा था।
एक दिन सीतापति को उसका पति बालों से पकड़ कर खींचता हुआ घर के बाहर ले आया और सभी के समाने उसे खूब पीटा। अधमरी अवस्था में उसे बाहर छोड़ कर वह भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। जब सुबह हुई तो सीतापति का कोई पता नहीं था। वह कहां गई, मरी या जिंदा है। बस उस जगह पर उसकी टूटी हुई चूड़ी और मुंह पर लात मारने की वजह से नाक से निकले हुए खून की कुछ सुखी बूंदे मिट्टी में दिखाई दे रही थीं।
समय अपनी धुरी पर लगातार बीत रहा था। और बीत रही थी सीतापति भी। बीतता है जैसे कोई बिना गति के।
अचानक पूरे गांव में यह खबर फैल गई कि सीतापति चार गांव छोड़ कर रह रही है। और उसे एड्स हो गया है। वह मरने वाली है। यह खबर उसके पति तक भी पहुंची। वह जिससे मिलता, उसी से कहता, मैं पहले ही कहता था कि वह बदचलन औरत है। अब देखो उसके किए का फल लोगों के सामने आया। इसलिए तो मैं मार कर उस रात उसे घर से निकाल दिया। अब देखना उसकी लाश भी कुत्ते न खाएं। और सच ही है वह अब लाल रंग की साड़ी में जमीन पर पड़ी हुई थी उसे कोई कंधा देने वाला भी नहीं था।
…जानें कितनी देर तक वह पड़ी रहेगी। और अपनी अधखुली आंखों से ऐसी दुनिया देखती रहेगी। तभी अचानक जोर से बारिश शुरू हो गई…और सभी अपने अपने घरों में जाकर खड़े हो गए। सीतापति सब देख रही थी, बिना किसी प्रतिकार किए उसे राम की प्रतीक्षा थी…!
शायद वो भी नहीं चाहती थी कि इस भीड़ से कोई भी उसे छुए।

About the author

राधिका त्रिपाठी

राधिका त्रिपाठी हिंदी की लेखिका हैं। वे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर बेबाक होकर लिखती हैं। खबरों की खबर रखती हैं। शायरी में दिल लगता है। कविताएं भी वे रच देती हैं। स्त्रियों की पहचान के लिए वे अपने स्तर पर लगातार संघर्षरत हैं। गृहस्थी संभालते हुए निरंतर लिखते जाना उनके लिए किसी तपस्या से कम नहीं है।

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