समीक्षा पुस्तक

फैसला दिल का, दिमाग का नहीं

अश्रुत पूर्वा II

मुकेश भारद्वाज अपने बेस्ट सेलर उपन्यास ‘मेरे बाद’ के पश्चात रहस्य-रोमांच और रोमांस में गूंथा अपना दूसरा उपन्यास ‘बेगुनाह’ लेकर आए हैं जबकि तीसरा उपन्यास ‘नक्काश’ प्रकाशनाधीन है। इन तीनों में युवा जासूस अभिमन्यु उपस्थित है। पुराने स्वनामधन्य लेखकों की तरह वे अपने उपन्यासों में सामाजिक संदेश देने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। उनके पहले उपन्यास में एक बुजुर्ग की रहस्यमय मौत के पीछे एक बड़ा संदेश था कि भारत में परिवार बिखर रहे हैं।  
‘बेगुनाह’ में भी एक सामाजिक संदेश है। इस उपन्यास में लेखक ने घरेलू और यौन हिंसा के खिलाफ भारतीय स्त्रियों की छटपटाहट को सामने रखा है। अपराध खबरों की तह में जाने वाले मुकेश भारद्वाज के लेखन और पत्रकारिता का तीन दशक का लंबा सफर है। अपराध, समाचार और विचार के बीच देश की राजनीति को अपनी नजर से देखने-परखने का विस्तृत अनुभव उनके लेखन की बुनियाद है। यह बुनियाद ही कहानियों की कोख है। वे कहानी के बीच एक व्यंग्यकार की तरह तीखी नजर रखते हैं। सामाजिक विसंगतियों का पोस्टमॉर्टम करने की उनकी क्षमता आप उनके उपन्यास को पढ़ते हुए साफ महसूस कर सकते हैं।
दरअसल, मुकेश भारद्वाज कहानी के भीतर कहानी रचते हैं। वे पात्रों में स्वयं उतर जाते हैं। इसका जीता जागता उदाहरण है उनका पात्र अभिमन्यु। उपन्यास ‘मेरे बाद’ का यह जासूस ‘बेगुनाह’ में ठीक उसी अंदाज में सामने आया है। एकदम तेज-तर्रार। शिद्दत से रोमांस को जीने वाला। विद्युत की गति से ‘एक्शन मोड’ में आने वाला यह जासूस अपने मित्र दिनकर की रहस्यमय मौत की अपने स्तर पर जांच कर रहा है। वह हर उस संदिग्ध आरोपी की तलाश में है जिस पर उसे संदेह है। यह मुकेश भारद्वाज की किस्सागोई की ही विशेषता है कि पहले पेज से लेकर अंतिम पेज तक पहुंचने से पहले आपको कुछ पता नहीं कि आगे क्या होने वाला है।
अप्राकृतिक यौन आचरण वाले दिनकर की मौत इस कदर रहस्यमय अंदाज में होती हैं कि उसके हत्यारे तक पलिस पहुंच नहीं पाती। गुलमोहर पार्क में हुई यह घटना पुलिस की फाइलों में बंद होकर रह गई तो इसके लिए शातिर हत्यारे से लेकर पलिस अधिकारी भी जिम्मेदार रहे। एक आपराधिक सांठगांठ की तह में जाने में अभिमन्यु के पसीने छूट गए। अलबत्ता उसकी बिंदास प्रेमिका माया का साथ न मिलता तो शायद वह असली हत्यारे तक नहीं पहुंच पाता। मगर माया भी हत्यारे का साथ देती है और अंतिम सबूत जिसमें कबूलनामा है, उसे ही नष्ट कर देती है। क्या एक स्त्री दूसरी स्त्री के दर्द को महसूस कर रही है। सच यही है।  
माया ऐसा क्यों करती है। इसके लिए आपको ‘बेगुनाह’ पढ़ना होगा। एक शख्स को मारने के लिए और उस घटना को छुपाने और दबाने के लिए इस उपन्यास में कदम-कदम पर पात्र मिलते हैं। मगर हर ऐसा पात्र बेशरमी से और अपने तिकड़म से इस जासूस के हाथ से निकल जाता है। हत्या के शिकार व्यक्ति को इंसाफ दिलाना आज के दौर में कितना मुश्किल है, आप इस उपन्यास को पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं। यह भी कि अपने यहां कानून में इतने छेद हैं कि अपराधी सबके सामने से बच कर निकल जाता है।  
दिनकर की हत्या में एक दूसरे की मदद करने वाले पात्र सबूत होते हुए भी बचे हुए हैं। अभिमन्यु ने अपने वकील मित्र नंदा की मदद से मरने वाले की पत्नी और पूर्व पत्नी के साथ ही उसकी प्रेमिका से भी लंबी पूछताछ की। जांच के हर सिरे को पकड़ा और एक दूसरे से जोड़ा। यहां तक कि राख के ढेर में भी सबूत ढूंढ़ा। फिर भी वह हाथ खाली ही रहा। दूसरी ओर अपराध में शामिल हर पात्र एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। एक तरफ अकेला जासूस और दूसरी ओर हत्यारों की साठगांठ। ऊपर से पुलिस के अफसरों का वरदहस्त।
‘बेगुनाह’ का नायक अगर बेबाक है तो सभी स्त्री पात्र भी कम बिंदास नहीं। सिया, रुक्मिणी से लेकर चित्रा और माया देह को लेकर जितनी उदार हैं मन से उतनी ही आधुनिक हैं। कथानक इतना बोल्ड है कि अंग्रेजी के उपन्यासकार भी यहां पानी भरेंगे। लेखक को सुझाव है कि इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद भी होना चाहिए। जब एक पत्रकार कहानीकार बनता है तो उससे आप बेहद सरल भाषा की उम्मीद कर सकते हैं। मुकेश भारद्वाज ने इस सहजता के साथ कहानी में गर्मजोशी बनाए रखने में भी हर तरह का यत्न किया है। इस उपन्यास को छापा है यश प्रकाशन ने।  

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