आलेख कथा आयाम

संकट दर संकट से जूझ रहे आदिवासी

बरखा लकड़ा II

आदिवासी स्वशासन का प्रचलन आदिवासियों के बीच में आदि-अनादि काल से चला आ रहा हैं। यह व्यवस्था पूरे आदिवासी समुदाय को एक सूत्र में पिरो कर समुदाय के सभी क्रियाकलापों को बढ़ा रही है। भारत के सभी राज्यों में निवास करने वाले सभी आदिवासी समुदायों  की अपनी भाषा-संस्कृति और पारंपारिक व्यवस्था स्वतंत्र रूप रही है जो आदि साम्यवाद को परिलक्षित करता है। आदि साम्यवाद के बाद दास प्रथा का प्रचलन शुरू हुआ। ये संभवत: आज से पांच हजार साल पहले आर्यो के आगमन के साथ-साथ ही शुरू हुआ। दास प्रथा के साथ-साथ  सामंतवादी प्रथा की शुरूआत होती है। इन्हीं दोनों प्रथाओं के कारण आदिवासी संस्कृति और उसकी अपनी पारंपारिक व्यवस्था में भटकाव शुरू होने लगा।
 दास प्रथा और सामंती प्रथा का चलन इतना ज्यादा प्रभावी होने लगा कि आदिवासी संस्कृति की जड़ उखड़ कर सूखने लगी थी। और यहीं से आदिवासियों की उनकी पांरपारिक स्वशासन व्यवस्था टूटती चली गई। और इनके बीच जो भी मजबूत कड़ियां थीं, वे भी ढीली होती चली गईं।
इसके बाद पूंजीवादी व्यवस्था ने कदम रखा। इस व्यवस्था में कई धर्मों का उदय हुआ, जो 1871 की जनगणना में देखा जा सकता है। इस समय तक आदिवासी हिंदू के दायरे में नहीं थे। इस समय आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था कमजोर होने के बावजूद काफी मजबूत थी। इसे तोड़ने के लिए जातिवाद और धर्मवाद को हथियार बनाया गया। इससे आदिवासी समुदाय और उसकी अपनी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था काफी प्रभावित हुई। यहां से फिर बची हुई आदिवासी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था का पतन शुरू हो जाता है।
1875 ईसवी में स्वामी विवेकानंद ने आर्य समाज की स्थापना की। उस समय तक हिंदू के नाम से कोई संस्था या संगठन मौजूद नहीं था। स्वामी विवेकानंद खुद को आर्य  मानते थे। दूसरी तरफ इस समय आदिवासी अपने आप में काफी समृद्ध थे। उस समय आदिवासी महिला-पुरुषों के बीच कोई लिंगभेद नहीं था। दोनों एक दूसरे के समांतर कंधे से कंधा मिला कर चलते थे। दोनों एक दूसरे के पूरक और बराबरी की भागीदारी  निभाते थे। यह इतिहास के पन्नों में मिलता है।
1917 के बाद इंग्लैंड में जब वयस्क मताधिकार  का मामला उठा, चूंकि उस समय इंग्लैंड में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं था। मात्र आयकरदाताओं या उच्च शिक्षित वर्ग के लोग को ही मत देने का अधिकार था। जब 1917 में वयस्क मताधिकार का मामला उठा तो भारत के मूल में सामंतवादी तरीके से जाति और धर्म का बीज बोकर यहां की आदिवासी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था को खत्म करने के लिए उच्च वर्ग षड्यंत्र रच कर आदिवासियों को तोड़ने में कामयाब रहा।
भारत की आजादी के बाद फिर से आदिवासी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था  पनपने लगी थी। इस समय इसका राजनीतिकरण कर उच्च वर्ग ने फिर अपने कब्जे में ले लिया। इससे पुन: आदिवासियों की पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था टूटती चली गई। सभी लोग जाति और धर्म में संलिप्त होकर मानवता की हत्या करने में अपनी सहभागिता निभाई।

* लेखिका बरखा लकड़ा रांची की स्वतंत्र पत्रकार है। खासकर आदिवासी मुद्दों पर निरंतर लिखती रही हैं। देश के विभिन्न राज्यों के आदिवासी बहुल इलाकों का दौरा भी करती रहती हैं और उनकी समस्या को लेकर आवाज उठाती हैं।

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