अश्रुत पूर्वा विशेष II
साल भर की प्रतीक्षा के बाद दीपावली आ गई। अगर आप दिल से विचार करें तो कोई दो राय नहीं कि यह त्योहार प्रति वर्ष आपको अपनी माटी से जोड़ने आता है। मगर बड़े शहरों और महानगरों में नई जीवनशैली जी रहे लोग क्या यह समझ सकते है कि माटी की सोधी महक के पीछे जमीन से जुड़ने और रिश्तों की मिठास भी कहीं न कहीं है। सजावटी और जगमगाती लड़ियों के बीच आज मिट्टी के झिलमिलाते दीये बेशक कभी-कभी गुम से दिखाई देते हैं। मगर सच्चाई यही है कि मन में उजियारा मिट्टी के दीये ही भरते हैं।
एक नन्हा सा दीया तूफान से लड़ कर आपको संघर्ष की जो प्रेरणा देता है, वह जगमग करती लाल-नीली-सफेद लड़ियां नहीं देतीं। न ही मन में गहरी उजास भरती हैं। मिट्टी के दीये की यही ताकत है। उसकी इस ताकत के पीछे हमारी बरसों की समृद्ध परंपरा और हमारे पुरखों के दिए जीवन मूल्य हैं। और सबसे बड़ा संदेश भी यही कि माटी के महत्त्व को जानो। एक दिन इसी में मिल जाना है। तभी तो वह कुम्हार तक को चेतावनी देती है-
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहे
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहे।।
मिट्टी में मिल कर फिर से खड़ा होने का जज्बा कोई देता है तो वह नन्हा सा दीप ही है। तो क्यों न गुल बन कर खिलने की भावना हम मनुष्यों में होनी चाहिए। मिट्टी में मिल भी गए तो क्या, हमें फिर से फूल बन कर ही सही, एक बार खिलना जरूर है। अश्रुत पूर्वा को हमने एक दीप की तरह प्रज्वलित किया है। हम चाहते हैं कि यह साहित्य के पाठकों के लिए प्रकाशस्तंभ बने। इस दिशा में हम निरंतर कार्य कर रहे हैं।
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दीपावली पर आप सबके लिए मंगलकामना।
डॉ. सांत्वना श्रीकांत,
संस्थापक, अश्रुतपूर्वा