कविता काव्य कौमुदी

घूंघट के पार..

सांत्वना श्रीकांत II

घूंघट ढेंप लेता है
औरतों का आसमान,
चांद जिसकी उपमेय
बनने की ख्वाहिश में थी,
वो छिप जाता है
उसकी आंखों के
नीचे की स्याह जमीन में।
वह अन्नपूर्णा बन कर
भरती है सबका पेट,
उसके अमाशय में
पड़ जाते हैं छाले
रोटियां सेंकते-सेंकते।
घूघट ढेंप लेता है
औरतों का आसमान
आखिर में उसी के नीचे
वह बना लेती है
अपने सपनों का घरौंदा
वक्त की रेत पर
वह चलती रहती है।
वह स्त्री है-
इस प्रक्रिया में
उलझी रहती है अनवरत

About the author

santwana

सशक्त नारी चेतना के स्वर अपनी कविताओं में मुखरित करने वाली डाॅ सांत्वना श्रीकांत का जन्म जून1990 में म.प्र. में हुआ है।सांत्वना श्रीकांत पेशे से एक दंत चिकित्सक हैं। इनका प्रथम काव्य-संग्रह 'स्त्री का पुरुषार्थ' नारी सामर्थ्य का क्रान्तिघोष है।

इनकी कविताएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं- गगनांचल, दैनिक भास्कर,जनसत्ता आदि में प्रकाशित होती रहती हैं।

साथ ही वे ashrutpurva.com जो कि साहित्य एवं जीवनकौशल से जुड़े विषयों को एक रचनात्मक मंच प्रदान करता है, की संस्थापिका एवं संचालिका हैं।

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