सांत्वना श्रीकांत II
घूंघट ढेंप लेता है
औरतों का आसमान,
चांद जिसकी उपमेय
बनने की ख्वाहिश में थी,
वो छिप जाता है
उसकी आंखों के
नीचे की स्याह जमीन में।
वह अन्नपूर्णा बन कर
भरती है सबका पेट,
उसके अमाशय में
पड़ जाते हैं छाले
रोटियां सेंकते-सेंकते।
घूघट ढेंप लेता है
औरतों का आसमान
आखिर में उसी के नीचे
वह बना लेती है
अपने सपनों का घरौंदा
वक्त की रेत पर
वह चलती रहती है।
वह स्त्री है-
इस प्रक्रिया में
उलझी रहती है अनवरत
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