कविता काव्य कौमुदी

और नदी बहती रही

राजेश्वर वशिष्ठ II

नदी में नाव खेते हुए मल्लाह को अक्सर लगता था कि वह अपने चप्पू से नाव को नहीं नदी को चला रहा है।
नदी शांत ही रहती, कभी कुछ नहीं कहती।
बरसात के दिनों में नदी उफनती तो वह उसे चिढ़ कर समझाता – यह ठीक नहीं है। नदी की एक गरिमा होती है। यह क्या है, किनारे के पेड़ तक तुम्हें झुक कर छू रहे हैं।
नदी संभल कर बहने लगती।
गर्मी में नदी सिकुड़ जाती तो वह चिल्लाता – कभी मेरे बारे में भी सोच लिया करो। मत वाष्पित हुआ करो सूर्य की दृष्टि से। जल ही नदी को नदी बनाता है।
नदी कुछ नहीं कहती, चलती जाती समुद्र की ओर।
हर मौसम में मल्लाह की अजीब-अजीब हिदायतें होतीं, उसे कभी कुछ पसंद नहीं आता तो कभी कुछ और।
नदी नए नए गीत गुनगुनाते हुए बहती ही चली जाती।
सुनेत्रा,
नदी स्त्री थी या नहीं तुम बेहतर जानती होगी।
पर मैं आश्वस्त हूँ, मल्लाह पुरुष ही था।

About the author

राजेश्वर वशिष्ठ

श्री राजेश्वर वशिष्ठ जी आकाशवाणी मे उद्घोषक के पद पर कार्य के बाद,सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक से कार्यपालक के रूप मे सेवानिवृत । फिलहाल गुरुग्राम में रहते हुए स्वतंत्र लेखन। ‘मुट्ठी भर लड़ाई’(उपन्यास ), कविता देशान्तर-कनाडा(कविताओं का अनुवाद ), ‘सोनागाछी की मुस्कान’ (कविता संग्रह), ‘अगस्त्य के महानायक श्री राम’ (चरित्र काव्य), याज्ञसेनी:द्रौपदी की आत्मकथा (उपन्यास ), प्रेम का पंचतंत्र (लव नोट्स) के रूप मे अपना महती योगदान देने वाले श्री वशिष्ठ जी को सुनो वाल्मीकि के लिए ‘हरियाणा साहित्य अकादमी का श्रेष्ट काव्य संग्रह’ सम्मान-2015 एवं सलिला साहित्यरत्न सम्मान 2016, ऑरा साहित्य रत्न सम्मान 2018 प्राप्त हो चुकें हैं।

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