राजेश्वर वशिष्ठ II
नदी में नाव खेते हुए मल्लाह को अक्सर लगता था कि वह अपने चप्पू से नाव को नहीं नदी को चला रहा है।
नदी शांत ही रहती, कभी कुछ नहीं कहती।
बरसात के दिनों में नदी उफनती तो वह उसे चिढ़ कर समझाता – यह ठीक नहीं है। नदी की एक गरिमा होती है। यह क्या है, किनारे के पेड़ तक तुम्हें झुक कर छू रहे हैं।
नदी संभल कर बहने लगती।
गर्मी में नदी सिकुड़ जाती तो वह चिल्लाता – कभी मेरे बारे में भी सोच लिया करो। मत वाष्पित हुआ करो सूर्य की दृष्टि से। जल ही नदी को नदी बनाता है।
नदी कुछ नहीं कहती, चलती जाती समुद्र की ओर।
हर मौसम में मल्लाह की अजीब-अजीब हिदायतें होतीं, उसे कभी कुछ पसंद नहीं आता तो कभी कुछ और।
नदी नए नए गीत गुनगुनाते हुए बहती ही चली जाती।
सुनेत्रा,
नदी स्त्री थी या नहीं तुम बेहतर जानती होगी।
पर मैं आश्वस्त हूँ, मल्लाह पुरुष ही था।
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