प्रेम शंकर शुक्ल II
सुन्दरता का रियाज कम हो गया है इसीलिए कुरूपता फैल
रही है चहुँफेर। सुन्दरता के स्वप्न से ही साधारण फूँक बांसुरी में
पैदा करता है असाधारण संगीत और सितार के तार पर भी
झंकृत होता है स्वराकाश। मूरख उपाधियाँ बाँटने में मुब्तिला हैं
और छीजता चला जा रहा है ज्ञान का सौन्दर्य। पानी की इच्छाएँ
ही मछलियाँ बनती हैं और घास की इच्छाएँ ही तितलियाँ। यह
बनना ही है सुन्दरता की सूक्ष्म-दृष्टि। भीजना नृत्य में कला हे,
गीत में रखी बारिश के साथ। सुन्दरता नाचती है और सौन्दर्य-
कोश में मारी-मारी फिरती हैं बिडम्बनाएँ। प्रेम सुन्दरता का
महास्वप्न ही तो है अपनी आँच से पक्का करता हुआ हमारी
आत्मा के धागे और बुनता हुआ भी हमारी चाहत का आँजोर।
कहते-बोलते गुमान में हम सोचते हैं हमीं ने रची है भाषा
जबकि खूबसूरत मन भाषा ने रचा है हमें। आखिरकार लोग मन
ही मन कह ही देते हैं – कितना असुन्दर हो रहा है जीवन! और
इससे बड़ा धरती पर नहीं है कोई और अफसोस। सुन्दरता की ही है
सब को तलब । (तभी तो )- प्रेम में हमारी आदिवासी देह की तर्ज पर ही
जंगल में नदी बहती है !
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