आत्मकथा संस्मरण

बात उन दिनों की है

डॉ.कविता नन्दन II

मैंने एम. ए.के बाद वकालत की पढ़ाई इसी इरादे से पूरी किया कि अगर आई.ए.एस. नहीं बन सका तो ज्यूडिशियल-मजिस्ट्रेट तो जरूर बनना है। 1994 में मेरा पहला ग़ज़ल संग्रह ‘रोशनी की तलाश जारी है’ प्रकाशित हुआ। इस संग्रह ने आसपास के जनसंपर्क तो बढ़ाए ही, मुझे मशहूर शायरों से भी मिलवाने में मददगार साबित हुआ। उन दिनों ही गोपालदास नीरज जी के साथ मंच साझा करने का मौका मिला। क़ैफी आज़मी जी से पहले से परिचित था लेकिन ग़ज़लों ने नए ढंग से परिचय कराया। गुलजार साहब, वसीम बरेलवी साहब,राहत इंदौरी साहब, क़मर जलालाबादी साहब, हसरत जयपुरी साहब जैसे मशहूर शायरों से मिलने का सुयोग हुआ। मेरे बचपन के दोस्त परवेज़ को यह सब इतना पसंद आया कि उन्होंने मुझे इसी दिशा में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया और अंततः मैंने 1997 में तय कर लिया कि अब वकालत नहीं करनी। पिताजी को अभी रिटायर होने में समय था सो मैंने आगे पढ़ाई की इच्छा ज़ाहिर कर दी और वह यह कहते हुए कि “उन्हें मेरी कमाई की भूख नहीं है, जो करना चाहूँ शौक़ से करूँ” पढ़ने के लिए आजा़द कर दिया। अब मुझे तय करना था कि साहित्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कहाँ से शुरूआत हो। बनारस, अलीगढ़, दिल्ली तक जा कर मंचों से ग़ज़लें सुना आया था और इन जगहों पर अच्छे संपर्क बन चुके थे। मैंने तय किया कि बी.एच.यू. से ही साहित्य पढ़ने और ख़ुद को गढ़ने की शुरूआत करना है। जैसे ही बी.एच.यू. में कोर्स पूरा हुआ मन का पखेरू ऊँची उड़ान भरने को तैयार हो गया। अब अगला पड़ाव जेएनयू ही दिखाई दे रहा था। साहित्य की ओर बढ़ते जा रहे इस लोभ ने मुझे ऐसे लोगों तक पहुंचा दिया जिनसे मिलने की कल्पना तक नही कर सकता था। जेएनयू पहुंचने के बाद त्रिलोचन शास्त्री जी, राजेंद्रयादव, केदारनाथ सिंह, प्रभाकर श्रोत्रिय, खगेन्द्र ठाकुर, रामदरश मिश्र, विश्वनाथ त्रिपाठी, गोपाल प्रधान, नंदकिशोर नवल, कृष्णा सोबती जी, रोहिणी अग्रवाल, मृणाल पाण्डेय, रमणिका गुप्ता, पद्मा सचदेव जैसे साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकारों से मुलाक़ातों ने मेरे भीतर एक नए साहित्याकाश का सृजन किया। नामवर सिंह जी के साथ ही डॉ. गंगा प्रसाद विमल, डॉ.मैनेजर पाण्डेय, डॉ.तलवार, डॉ.पुरुषोत्तम अग्रवाल, डॉ. ओम प्रकाश सिंह जी जैसे अध्यापन के क्षेत्र में शिखर समझे जाने वाले प्रतिष्ठित शिक्षकों का शिष्य बनना मेरे लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं था। मेरा सौभाग्य रहा कि आज़ाद भारत के प्रतिष्ठित संस्थानों और प्रतिष्ठित शिक्षकों का सान्निध्य, स्नेह और मार्गदर्शन मिला। यह जितना सुखद अनुभव रहा उतना ही दुखद उनसे बिछड़ना भी रहा। नामवर सिंह जी और डॉ. गंगा प्रसाद विमल जी का अचानक जाना मेरे जीवन की बहुत बड़ी क्षति रही। आज जीवन के ऐसे ही सुखद क्षणों की स्मृतियों का वह पन्ना पलट रहा हूँ जिसके बिछड़ने की अनुभूति असह्य है।

मैं उन दिनों जेएनयू से एम.फिल./पीएचडी कर रहा था। मेरे शोध-निर्देशक डॉक्टर तलवार साहब थे। वह ख़ुद भी ख़ोजी प्रवृत्ति के शोधार्थी रहे हैं और आज तक हैं। उन्हीं दिनों नंदकिशोर नवल जी कसौटी निकाल रहे थे। मैं एक दिन कसौटी का एक अंक लेकर डॉक्टर तलवार साहब के रेजिडेंस पर चला गया। उन्होंने पूछा “हाथ में क्या है ?” मैंने बताया “कसौटी।” उन्होंने फिर पूछा “जानते हो कौन निकालता है ?” मैंने कहा “नंदकिशोर नवल संपादन कर रहे हैं।” उन्होंने कहा “तरुण कुमार और अपूर्वानंद सह-संपादक हैं। हैं न!” मैंने कहा “जी!” उन्होंने बताया “यह आदमी तुम्हारे रिसर्च के लिए जरूरी है। इसलिए तुम्हें मिलना चाहिए।” मैंने कहा “वह तो पटना में हैं।” उन्होंने हैरानी से कहा “तो ? तुम बनारस से दिल्ली आ गए और दिल्ली से तुम्हें पटना दूर लग रहा है। काम करना है तो जाना पड़ेगा। जब मिलना तो नोट्स तैयार करना। मैं उसे देखूँगा।” मुझे उस दिन पहली बार समझ में आया कि नंदकिशोर नवल मेरे लिए क्यों और कितने महत्वपूर्ण हैं।

जहाँ तक याद आता है संभवतः वह 2001 का दिसंबर रहा होगा जब मैंने उन्हें पहली चिट्ठी लिखा था और मिलने के लिए समय माँगा था। उन दिनों मोबाइल हर हाथ में नहीं होता था। मेरे पास तब तक नहीं था। मैंने मोबाइल का उपयोग पहली बार 2003 के अंत या 2004 की शुरुआत से किया था। किसी भी दूर रहने वाले से संवाद का साधन या तो पीसीओ होता था या फिर चिठ्ठी। उधर से मेरी चिट्ठी का प्यारा सा जवाब आया था। डॉक्टर तलवार साहब का शिष्य जानकर उन्होंने आश्वस्त किया था “जब चाहें, आप आ जाएं। मुझसे जो सहयोग हो सकेगा बिलकुल करूँगा।” कुल आठ-दस वाक्यों की उस छोटी-सी चिट्ठी में जिस तरह की भाषा का उपयोग हुआ था, उसने उनके व्यक्तित्व के प्रति मुझे मुग्ध कर लिया था। बाद में उनके कई शिष्यों से मेरी मुलाक़ात हुई और सभी में उनके व्यक्तित्व के प्रति एक ख़ास आकर्षण देखा। उनके शिष्य रह चुके कुछ दोस्त मुझे जेएनयू में ही मिल गए।

मेरी पहली मुलाक़ात 2002 की होली से ठीक पहले हुई थी। बेगूसराय के अमरजीत राय के साथ मै उनसे पहली बार मिला था। राजेन्द्र नगर में उनके दोस्त के यहाँ हम दोनों ठहरे थे। करीब एक सप्ताह की वह पहली मुलाक़ात ने ही तय कर दिया कि मुझे अपने शोध विषय के प्रति क्या दृष्टिकोण अपनाना है। स्वतंत्रता पूर्व और स्वतंत्रता पश्चात हिन्दी कविता के चरित्र पर लंबी चर्चा हुई और उस यात्रा के अंतिम दिन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘कविता की मुक्ति’ मेरे हाथों में रख दिया। मेरी आँखों में आँसू आ गए कि ज्ञान देकर भी दान देने वाली इस पीढ़ी का ऋण कैसे चुकता कर पाऊँगा। अमरजीत राय की सहयोगी भूमिका के कारण 2008-09 तक नवल जी से नियमित तौर पर हर साल मुलाक़ात होती रही। बाद के दिनों में वह नौकरी के सिलसिले में बिहार से बाहर चले गए और मुलाक़ातें बाधित हो गईं। मुलाक़ातों के जरिए हिन्दी साहित्य की समीक्षा और आलोचना के प्रसंग में उन्होंने मुझे काफी समृद्ध किया। जब मैंने उनसे अपनी पीएचडी की थीसिस जमा होने की बात बताई थी, वे बेहद ख़ुश हुए थे। उन्होंने कहा था “जब थीसिस प्रकाशित हो जाए, उसकी एक प्रति मुझे जरूर दीजिएगा।” मैंने कहा था “उसे देना कैसे भूल सकता हूँ। कहें तो बाइंडिंग की कॉपी आ कर दे दूँ।” उन्होंने कहा “नहीं प्रकाशित हो जाए तभी।” किसी अच्छे प्रकाशक के इंतजार में थीसिस का प्रकाशन अभी नहीं हो पाया और मैं नवल जी का आज तक ऋणी हूँ। संभवतः वह जिस किसी से मिलते रहे होंगे, उन्होंने उसे सिर्फ दिया ही होगा ; मेरे साथ तो यही हुआ।

पिछले सप्ताह अमरजीत राय जी का फोन आया कि नवल जी कुछ दिन पहले घर में ही गिर गए थे। इलाज चल ही रहा था कि इसी बीच उनको न्यूमोनिया हो गया। पाँच-छः रोज़ से हास्पीटल में भर्ती हैं। हॉस्पिटल से आ जाएं तो मिलने जाएंगे। मैंने भी मिलने की इच्छा जताई तो उन्होंने कहा आ जाएं फिर चलेंगे। तीन दिन पहले मेरी भारत यायावर जी से उनकी चर्चा हुई और अचानक आज ही सुबह भारत यायावर जी से सूचना मिली कि कल रात (12 मई 2020 की रात) नवल जी नहीं रहे। यह सूचना मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। मुझे लगा मैंने किसी अपने को अचानक खो दिया। वह मेरे लिए सदा अपने ही रहेंगे।

नवल जी का स्नेह, उनकी निश्छल मृदुल मुस्कुराहट जिस किसी ने भी पाया वह उनका हो गया और नवल जी उसके हो गए। हिन्दी साहित्य में नंदकिशोर नवल एक ऐसे साहित्यकार के रूप में पहचाने जाते हैं जिसे आप किसी विचारधारा में जकड़ा हुआ नहीं पाएंगे। कभी आलोचना पत्रिका में नामवर सिंह जी के साथ उन्होंने सह संपादक की भूमिका निभाई थी। उनकी साहित्यिक समझ, समीक्षा और आलोचना दृष्टि की मौलिकता उन्हें वामपंथियों के आलोचना-मानदंड से अलग ले जाती है। ‘दृश्यालेख’ उनके आलोचनात्मक लेखों का महत्वपूर्ण संकलन है जो हिन्दी साहित्य की आलोचना को समझने की एक स्वस्थ परंपरा की बुनियाद की तरह है। ‘कविता की मुक्ति’ हिन्दी कविता से संबंधित उनके निबंधों का संग्रह है जो एक ओर जड़वादिता से मुक्त है तो दूसरी ओर मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की स्पष्टता के साथ उसे व्याख्यायित करता है। ‘पुनर्मूल्यांकन’ में हिन्दी की चार कालजयी कृतियों का मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। ‘कविताः पहचान का संकट’ हिन्दी काव्यालोचना पर उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक है। उनकी आलोचना पद्धति को वामपंथी आलोचना से अलग करके समझना होगा क्योंकि उनके यहाँ मुक्तिबोध महत्वपूर्ण हैं तो जयशंकर प्रसाद के महत्व को भी कमतर नहीं आँका गया है। ‘कसौटी’ के पंद्रह अंकों का संपादन करते हुए जिस तरह की सामग्री उन्होंने उपलब्ध कराने का प्रयास किया वह हमारी पीढ़ी के महत्वपूर्ण आलोचक बन गए। नामवर सिंह जी के बाद की पीढ़ी के वह महत्वपूर्ण आलोचक स्वीकार किए जाते हैं। नामवर सिंह जी के बाद उनका जाना सचमुच ऐसे समय में हिन्दी साहित्य समाज की बहुत बड़ी अपूरणीय क्षति है। लॉकडाउन ने उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने का भी अधिकार जैसे छीन लिया। उनका अंतिम दर्शन नहीं हो सका यह पीड़ा जितनी दुखदायी है उससे कहीं अधिक मन को यह बात सालती है कि मै चाह कर भी ऋणमुक्त नहीं हो सका। आजीवन उनका ऋणी रहूँगा।

About the author

कविता नंदन

आलोचक एवं समीक्षक

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