राजकुमार गौतम II
“नमस्कार ईस्ट एंड गैस सर्विस !”
फोन उठाने पर प्रेरणा की सुरीली आवाज़ यहाँ से वहाँ तक अमृत बरसा देती सुनने वाले व्यक्ति के कानों में धीमा कलरव चहकता और वह चंचल एवं लंपट हो उठता। अपना कंज्यूमर नंबर न बताकर इधर-उधर की बातें करता। सिलेंडर का दाम “गैस कब तक पहुँचेगी मरम्मत-सर्विस की बात इसलिए कि प्रेरणा का सुनाद, फोन पर उधर बैठे व्यक्ति को स्वर्ग स्वर्ग बनाए रखता। वाकई, प्रेरणा की आवाज़ आवाज नहीं बल्कि साक्षात् वीणा थी ।
अनुभव के बावजूद प्रेरणा को व्यक्ति की सही मानसिकता को पहचानने में कुछ समय लगता । मनचले फ़ोन प्रेरणा की आवाज़ को लार टपकाती मुद्रा में भोगते लगता कि मानसिक और शारीरिक रूप से उसे एक संयुक्त बलात्कार की यातना से गुजरना पड़ रहा है। पिद्दी-सी राशि की पगार और हर दिन आठ घंटों के अनवरत बलात्कार से डरती प्रेरणा ! परिवार की स्थिति के तले सिसकती, विवश प्रेरणा !
फिर प्रेरणा ने नई विधि खोजी इस बलात्कार से बचने की। शुरू में वह एकदम सिद्धहस्त बाजारू आवाज़ में बोलती- “नमस्कार ईस्ट एंड गैस सर्विस !” आवाज़ में परंपरागत विनय, आरोह-अवरोह, फैशनपरस्त शोखी का समावेश और स्वर में लोच किसी सफल नायिका की संवाद अदायगी का। उसके बाद जैसे सवाल, वैसे जवाब- खरे और खोटे। कभी-कभी ऊंचे स्वर में प्रेरणा की फटकार भी।
एजेंसी के मालिक को एतराज़ हुआ तो प्रेरणा ने साफ कह दिया कि वह हर एक फोन करने वाले की ज़रखरीद बाँदी नहीं है कि उन्हें रिझाना ही उसका काम हो मालिक ने प्रेरणा को समझाया और डराया भी कि कस्टमर के साथ उसकी अच्छी स्वर-संगति की वजह से ही इस विकट बाज़ारू प्रतिद्वंद्विता में भी यह एजेंसी ठीक-ठाक चल रही है। मगर प्रेरणा इस दोयम दर्जे की ‘वेश्यावृत्ति’ को तैयार न थी। मालिक ने बाज़ारूपन से सोचा कि दुधारू गाय की दो लातें सहन करना ही बेहतर।
यकायक गैस की किल्लत हुई। हफ्तों में सप्लाई संभव हो पा रही थी। प्रेरणा से फोन पर छेड़छाड़ कुछ कम हो रही थी। प्रेरणा के उत्तर और स्पष्टीकरण ग्राहकों को परेशान करते । उसके गले में बैठी कोयल निष्प्रभ होती जा रही थी घंटी बजने पर रिसीवर उठाया प्रेरणा ने-“नमस्कार ईस्ट एंड गैस सर्विस !” “नमस्कार बहन ! मेरा कंज्यूमर नंबर है। घर में बच्चे का जन्मदिन है गैस तुरंत चाहिए ।”
‘बहन !’ बरसों बाद प्रेरणा के कानों में राखी का त्यौहार था। पहली बार इस फोन पर कोई ‘भाई’ था प्रेरणा, मैडम नहीं, बहन थी ।
“गैस कल तक आ जाएगी न बहन ?” उधर स्वर नहीं, साक्षात् भाई था “ज़रूर, कल तक ।” ‘तक’ के बाद ‘भैया’ भी कहना चाहती थी प्रेरणा ।
मगर सच कुछ और था। दूसरी तरफ़ ‘भाई’ न होकर एक कुशल व्यवसायी युवक था, जिसे प्रबंधन संबंधी एक ट्रेनिंग में काम कराने के लिए ‘बहन’ शब्द के उपयोग की आधुनिक विधि का बाकायदा और कारगर अध्ययन कराया गया था ।
प्रेरणा को कहाँ पता था कि उसे फोन पर आज भी ठग लिया गया था !
अत्यंत सुंदर एवं यथार्थ परक सृजन हेतु हार्दिक बधाई 💐🙏