नरेश शांडिल्य II
श्याम सपनों में मेरे भी आए सखी
कोई राधा को जाकर बताए सखी…
उनकी मुरली मेरे भी जिगर में बजी
उनकी सूरत मेरी भी नज़र में सजी
जितना देखा वो उतना ही भाए सखी
कोई राधा को …
हाथ थामे मेरा नाचते वो रहे
टकटकी बाँध कर ताकते वो रहे
मैं लजाई तो वो मुस्कुराए सखी
कोई राधा को …
चाँद मेरी अटारी पे अटका रहा
मेरा मन उनकी बाँहों में भटका रहा
वो तो काया पे माया से छाए सखी
कोई राधा को …
आँख मेरी ज़रा-सी लगी क्या अरी
ले गई उनको कोई गगन की परी
भोर होते ही वो तो न पाए सखी
कोई राधा को …
उनकी मुरली किसी की बपौती नहीं
वो किसी एक की नथ के मोती नहीं
वो नहीं एक बेरी के साए सखी
कोई राधा को …
उनकी आँखों में आँखें मेरी रह गईं
उनकी साँसों में साँसें मेरी रह गईं
कोई इससे भी ज़्यादा क्या पाए सखी
कोई राधा को …
( कविता संग्रह ‘टुकड़ा टुकड़ा ये ज़िन्दगी’ से … )
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