ज्योतिष जोशी II
वैश्विक कला आंदोलनों के समानांतर भारत में एक क्रांति की तरह प्रकट हुई बंगाल चित्रशैली से सम्बंधित बंगाल कला आंदोलन का भारतीय चित्रकला के इतिहास में विशेष और ऐतिहासिक महत्व है। इस महत्व का एक बड़ा कारण यह भी है कि पराधीन भारत में कला में आया यह एकमात्र कला आंदोलन था जिसने भारतीयों में स्वदेशी चेतना का संचार किया। यह आंदोलन 1903 में प्रकाश में आया। मालूम हो कि 1903 में ई वी हैवेल ने कलकत्ता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट में एक अलग विभाग खोलने का निर्णय लिया था जिससे भारतीय चित्रकला को प्रोन्नत किया जा सके। उस विभाग का दायित्व उन्होंने अवनीन्द्रनाथ ठाकुर को सौंपा। अवनीन्द्रनाथ जिस बेचैनी को लगातार महसूस कर रहे थे और कुछ नया कर पाने की जुगत में थे , वह इच्छा इस नए विभाग के खुलने के साथ ही मानो पूरी होने को आई।ऐतिहासिक रूप से 1903 को ही बंगाल कला आंदोलन की शुरुआत का समय माना जाता है क्योंकि भारतीय चित्रकला विभाग इसी वर्ष देश के किसी कला विद्यालय में अस्तित्व में आया। इसके साथ एक अहम बात यह भी है कि ब्रिटिश हुकूमत ने भी ई वी हैवेल के माध्यम से इसे संरक्षित किया। कुछ वर्षों बाद जब 1910 में जब लेडी हैरिंघम भारत आयीं तो उन्होंने अजंता के भित्तिचित्रों की अनुकृति कराने की इच्छा व्यक्त की। तब तक कलागुरु अवनीन्द्रनाथ के निर्देशन में नए खुले विभाग में उनके कई योग्य शिष्य आ जुड़े थे जिनमें नन्दलाल बोस, असित कुमार हालदार, क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार आदि शामिल थे। इन अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों ने तब बड़े श्रम से अजंंता की अनुकृति की और उसकी भव्यता के दर्शन भी किये । इस तरह अजंंता , राजपूूूत , मुगल, फ़ारसी, जापानी, यूरोपीय तथा स्थानीय कला शैलियों के समन्वय से एक नूतन कला शैैैली प्रकाश में आई जो बंगाल चित्र शैैैली कहलाई । इसे लेेेकर चाहे जितना विवाद हो, पर यह सच है कि इस शैली ने ही अवसादग्रस्त भारतीय कला को नई स्फूर्ति दी, उसे नए जागरण से जोड़ा और सही मायनों में भारतीय कला का उत्थान के दौर शुरू हुआ। रंगों की सुकुमारता, रेखाओं से आच्छादित परिवेश , भारतीय अस्मिता से सम्बंधित विषयों का चयन और एक प्रकार से अपने जातीय गौरव की खोज करनेवाली यह कला सचमुच पराधीन भारत में कला में आई एक बड़ी क्रांति ही थी जिसके प्रवर्त्तक अवनीन्द्रनाथ ठाकुर थे।

बंगाल कला आंदोलन के महत्व और कलागुरु अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के अवदान पर बात करते हुए कला आचार्य विनोद बिहारी मुखर्जी ने लिखा है- ‘ अवनीन्द्रनाथ चित्रकला की किसी परम्परा के संस्थापक नहीं, बल्कि एक नई शैली के सर्जक थे। उन्होंने पूरब और पश्चिम की तकनीकों का समन्वय किया और उससे एक नई कला शैली का विकास किया। पश्चिमी तकनीक की विशेषताओं को बिना जांचे परखे अपनी कला में समन्वित कर लेने की समस्या आधुनिक चित्रकारों के लिए गम्भीर रही है। अवनीन्द्रनाथ ने जिस सफलता के साथ इस समस्या का समाधान किया , वह आधुनिक पौर्वात्य कला के इतिहास में अनूठा है। ‘
कला के जानकार जानते हैं कि भारतीय चित्रकला के इतिहास में बंगाल कला शैली का महत्व मध्ययुगीन राजपूत, मुगल तथा पहाड़ी शैली की ही तरह है , पर चूंकि उसके साथ एक विशिष्ट कला दर्शन और विश्वकला की तत्कालीन प्रवृत्तियों का विनिमय भी जुड़ा हुआ है इसलिए उसे भारतीय कला की एक विशिष्ट कला पद्धति का महत्व हासिल है।
इस तरह बंगाल शैली अवनींद्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में उनके शिष्यों के प्रयास से उभरा आंदोलन बना जिसने भारतीय कला को आंदोलित कर दिया। शुरू में इसे ‘ ठाकुर शैली’ भी कहा गया। जब 1914 में इस शैली में रचित कृतियों की प्रदर्शनी पेरिस में हुई तो वहां भी इस शैली में सृजित कृतियों को ‘ टैगोर स्कूल ऑफ पेंटिंग ‘ ही कहा गया। यह प्रदर्शनी इसी शीर्षक से बर्लिन, लंदन और न्यूयॉर्क में भी हुई और इन्हें बहुत प्रशंसा मिली। इस चित्रशैली को ‘ बंगाल आर्ट स्कूल’ और ‘ ओरिएंटल स्कूल ‘ भी कहा गया। लेकिन इसको बंगाल चित्र शैली नाम से ही ख्याति मिली। कुछ कलाविद यह कहते हैं कि इसमें बंगाल के स्थानीय तत्व या प्रभाव नहीं के बराबर हैं इसलिए इसे भारतीय कला शैली ही कहना चाहिए। स्वयं असित कुमार हालदार ने लिखा है- ‘ इसे कला की बंगाल शैली कहना उपयुक्त न होगा। यदि लक्षण और तकनीक की ओर ध्यान रखते हुए इसे ‘ भारतीय कला के जागृति – आंदोलन की कला’ कहा जाय तो अधिक उचित होगा।’ इसके नाम को लेकर स्टेला क्रेमरिश ने जो कहा वह भी लोगों को पसंद आया था। उन्होंने इसे ‘ आधुनिक भारतीय चित्रकला’ का नाम दिया था।
बंगाल कला की चित्रशैली के तीन चरण माने जाते हैं। पहले चरण का आरंभ 1915 से माना जाता है। इसी चरण में अवनीन्द्रनाथ ने इस शैली में अपनी कृतियों की रचना की और अपने अनुयायियों को इस शिल्प में कला रचना की शिक्षा दी। ज्ञातव्य है कि अवनीन्द्रनाथ ने इस शैली में काम करने से पूर्व राजपूत शैली को बखूबी समझा। जयपुर शैली के उस्ताद रामप्रसाद से इसकी विधिवत शिक्षा उन्होंने 1895 से 1905 के बीच ली। इसका प्रमाण उनके द्वारा बनाई गईं अनेक कृतियों में दिखता है जिसमें ‘ कृष्णलीला ‘ चित्र श्रृंखला महत्वपूर्ण है। इसी अवधि में उन्होंने फ़ारसी चित्रविधि को भी समझने की चेष्टा की। इस विधि पर उनके बनाये कामों में मेघदूत श्रृंखला के ग्रीष्म, वसन्त, पथिक और कमल शीर्षक कृतियाँ उल्लेखनीय हैं। फ़ारसी शैली पर बनाये उनके चित्रों में ‘ अभिसारिका’ बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है। अपने घर पर चित्रकला की प्रारंभिक शिक्षा लेनेवाले अवनीन्द्रनाथ ने इटली के चित्रकार सिग्नोर गिल्हार्दी से तीन वर्ष तक यूरोपीय कला की शिक्षा भी ली। माना जाता है कि अभिसारिका नाम की उनकी बहुचर्चित कृति पर यूरोपीय तकनीक और इस शिक्षा का प्रभाव रहा। इसके बाद अवनीन्द्रनाथ ने एक अन्य यूरोपीय चित्रकार चार्ल्स एल पामर से भी 1893 से 95 तक यानी दो वर्षों तक कला की शिक्षा ली। इसी क्रम में उन्होंने जापानी चित्रकारों- याकोहामा तैक्वान तथा हिसिदा से भी जापानी तकनीक का ज्ञान प्राप्त किया। इसके बाद इन विभिन्न चित्रशैलियों से उन्होंने एक नूतन कला शैली का विकास किया। अभिसारिका, भारतमाता, तिष्यरक्षिता, यात्रा का अंत सहित रवींद्रनाथ ठाकुर के नाटक चित्रांगदा के लिए बनाए उनके 32 रेखांकन सहित उमर खैयाम की रुबाइयों पर आधारित चित्र उनकी कला की यादगार कृतियाँ रहीं जिनसे एक नए कला वातावरण की भूमिका बनी। इसके बाद उन्होंने शताधिक चित्रों की रचना की जिसमें इतिहास, परम्परा, भारतीय परिवेश सहित तत्कालीन भारत की छवियां दिखाई देती हैं। इनमें दस्तखत, मेरी माँ, नूरजहां, खोया हुआ बालक, महात्मा गांधी, संथाल बालिका , प्रार्थनालीन बौद्धभिक्षु आदि शामिल हैं। अवनीन्द्रनाथ ने जयपुर के भित्ति चित्रण तकनीक को भी सीखा जिसके माध्यम से उन्होंने कच देवयानी तथा राधा कृष्ण नामक कृतियाँ बनायीं।

साभार : गूगल
इस तरह हम देख पाते हैं कि अवनीन्द्रनाथ ने इस नूतन कला शैली का विकास विभिन्न प्रभावों को लेकर किया और उस समय की प्रायः सभी चित्रशैलियों का अध्ययन कर उनका समन्वय किया। इस समन्वय से ही वे अपने निजी कलादर्शन को सिद्ध कर पाये। उनकी इस उपलब्धि पर बिनोद बिहारी मुखर्जी ने कहा था- ‘ आज किसी को यह स्वीकार करते हुए हिचकिचाहट की आवश्यकता नहीं कि अवनीन्द्रनाथ की तकनीक यथार्थवादी है। लेकिन उनकी यह यथार्थवादी शैली न तो ब्रिटिश अकादमिकता से मिलती है न जापानी या मुगल पद्धति से। कहना चाहिए कि यह उनकी निजी चित्रशैली है। यह भी कहा जा सकता है कि उन्होंने मुगल शैली के आलंकारिक रूपाकारों को उनकी समस्त सूक्ष्मता और कोमलता के साथ अपने चित्रों में स्थान दिया , जो कहीं अधिक यथार्थ थे और इसके चित्रण में उन्होंने जो तकनीक अपनायी वह स्पष्टतः किसी परम्परा से सम्बंधित न होकर सम्पूर्णतः उनकी अपनी निजी तकनीक थी जिसे अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने स्वयं विकसित किया। ‘ अवनीन्द्रनाथ की इस नूतन प्रविधि पर रचित कृतियों की हैवेल तथा आनंद कुमारस्वामी ने प्रशंसा की और भारतीयता पर एकाग्र उनकी कला को देखते हुए उन्हें भारत का राष्ट्रीय चित्रकार कहा। इसके बाद एक लहर सी आयी और एक स्वर से पूरे देश में अवनीन्द्रनाथ के इस यत्न को राष्ट्रीय आंदोलन की तरह स्वागत किया गया। इस शैली को एक आंदोलन के रूप में स्थापित करने में सबसे बड़ा योगदान कला संगठनों, पत्रिकाओं तथा उन व्यक्तियों का रहा जिन्होंने अवनीन्द्रनाथ के इस उद्यम को अभूतपूर्व माना। गगनेन्द्रनाथ ठाकुर ने इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट के जरिये इस शैली के प्रचार के लिए काम किया। दूसरी तरफ रामानंद चटर्जी ने मॉडर्न रिव्यु पत्रिका में उनके चित्रों को प्रकाशित कर लेख भी लिखे। इसके साथ साथ बंगला पत्रिका प्रवासी ने भी उनके इस कार्य को उल्लेखनीय माना। अवनीन्द्रनाथ की इस निजी पद्धति को आंदोलन बनाने में हैवेल और आनंद कुमारस्वामी के अतिरिक्त भगिनी निवेदिता, अरविंद घोष, सर जॉन वुडरूफ़, लार्ड हार्डिंग, लार्ड कारमाइकल, लार्ड रोनॉल्डसे आदि की भूमिका रही जिन्होंने लिखकर और बोलकर इसे देशव्यापी स्वरूप दिया और वैश्विक स्तर पर भी इसे प्रतिष्ठित होने में मदद की। यह 1903 से 1915 तक का समय रहा जिसे बंगाल शैली के उदय और विकास का पहला चरण कहा जाता है।

चित्र साभार :गूगल
बंगाल कला आंदोलन का दूसरा चरण 1915 से 1935 तक माना जा सकता है जिस काल में अवनीन्द्रनाथ ने अपने शिष्यों को इस कलविधि में शिक्षित किया और इस कला आंदोलन को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया। इस चरण में अवनीन्द्रनाथ ने अपने जिन शिष्यों को प्रशिक्षित किया, उनमें- नन्दलाल बोस,असितकुमार हालदार, समरेंद्र नाथ गुप्त, के वेंकटप्पा, शैलेंद्रनाथ डे , क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार, शारदा उकील, बारदा उकील, प्रमोद कुमार चटर्जी तथा पुलिन बिहारी दत्त शामिल हैं। इन शिष्यों में निश्चय ही नन्दलाल बोस की प्रतिभा सबसे प्रखर थी जिन्होंने न केवल अवनीन्द्रनाथ के प्रयासों को गति दी वरन अपने कार्यों से भी इस शैली में नई संभावनाओं को विकसित किया। यह वही नन्दलाल बोस थे जिनके बारे में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा था- ‘ उनकी शिल्प दृष्टि अत्यंत शुद्ध और चिंतन शक्ति अन्तर्दर्शी है। कला उनके लिए सजीव वस्तु है जिसे वह स्पर्श, दृष्टि और सहानुभूति से अनुभव करते हैं।’ अजंता के कला वैभव को अत्यंत आत्मीयता से जीनेवाले नन्दलाल बोस ने अपने चित्रों में उसे जिया। उनकी कृतियों के बारे में आचार्यों का मानना है कि प्रकृति, वस्तु, और व्यक्ति से सम्बंधित सभी विषयों में नन्दलाल बोस की रेखाओं की सौन्दर्यात्मकता, कोमलता और शक्ति जैसी गुणवत्ता दूसरे कलाकारों में दुर्लभ है। उनकी रेखाओं में बल, प्रवाह और लय का समन्वय देखते हुए लोगों ने उनकी मौलिक उद्भावना को उनकी सृजन क्षमता में देखा और उनके अवदान को बंगाल चित्र शैली की एक बड़ी उपलब्धि बताया। यह वास्तविकता है कि नन्दलाल बोस ने भारतीय कला के गौरवशाली अतीत को हृदयंगम करते हुए उन्होंने उसका गहन अध्ययन और मनन कर उसके सृजनात्मक उपयोग की जिस युक्ति का आश्रय लिया वह कोई और न कर सका। यही कारण है कि परम्परा का नूतन उपयोग करनेवाले नंद लाल बोस सामयिक जीवन और समाज के चित्रण में भी उत्तीर्ण हुए और स्थानीयता के साथ समन्वित कर उसे लोकधर्मी बनाया। नन्द लाल बोस की उल्लेखनीय कृतियों में- विषपायी शिव, सती दाह, तपोनिष्ठ पार्वती,सुजाता, बुद्ध का गृहत्याग, ऋतु संहार, अर्धनारीश्वर, गोपालपुर में मछेरे और नटीर पूजा आदि हैं। बंगाल शैली के दूसरे बड़े चित्रकारों में असित कुमार हालदार हैं जिन्होंने अपनी कृतियों में रूप कल्पना, चित्रण सामर्थ्य एवं रंग सामर्थ्य में अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया। वे चित्रकार के साथ साथ विलक्षण कवि भी थे। उनके चित्रों को देखने से यह स्पष्ट होता है कि उसमें कविता सी लयात्मकता और रससिक्तता है। उनके द्वारा बनाई गई खैयाम की रुबाइयों पर चित्र श्रृंखला बहुत मूल्यवान है। इसके अलावा उन्होंने संथाल जीवन को भी अंकित करने की सफल चेष्टा की तथा बुद्ध और कृष्ण से सम्बंधित चित्र श्रृंखलाएं बनायीं। उन्होंने जलरंग, टेम्परा और तैल रंगों में चित्र बनाने के साथ साथ लकड़ी पर लाख से चित्र बनाने का भी बहुमूल्य काम किया। उनके महत्वपूर्ण चित्रों में अनंत जीवन, संगीत की लॉ, अशोक वाटिका में सीता, अप्सरा, दमयंती, कृष्ण यशोदा तथा वासवदत्ता आदि उल्लेख्य हैं। समरेंद्र नाथ गुप्त इस शैली के तीसरे बड़े कलाकार हैं जो अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों में रहे। उन्होंने बंगाल और यूरोपीय शैली में समन्वयक की भूमिका निभाई। उनकी महत्वपूर्ण कृतियों में टूटा हुआ तार, कोयल की पुकार और कजरी नृत्य के साथ साथ एचिंग में बनाई सोनिया, हजरत बल और माला गुंथन बेहद सराहनीय रही हैं।के वेंकटप्पा एक अन्य अहम कलाकार रहे जो बंगाल शैली में काम करते हुए भी एक स्वतंत्र कला प्रविधि विकसित करने में सफल रहे थे। अपने चित्र संयोजनों में बारीकी और अनुशासन से काम करनेवाले वेंकटप्पा के चित्र अपने सौंदर्य, लालित्य तथा प्रभाव में अपूर्व नजर आते हैं। उन्होंने भी परम्परा पर विशेष आग्रह किया और आदर्श चिंतन के साथ चित्रों की निर्मिति की। उनके बनाये चित्रों में सेतुबंध, बुद्ध और सुजाता, राधा और हिरन, दमयंती, अर्धनारीश्वर और बंगाल फ्लोरिकन आदि महत्वपूर्ण हैं। शैलेंद्र नाथ डे एक अन्य महत्वपूर्ण चित्रकार हैं जिन्होंने अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों में शामिल होते हुए मेघदूत पर चित्रमाला बनाई। मां और शिशु, जगई – मघई और ग्वालिन जैसी कृतियाँ उनके उल्लेखनीय काम हैं। क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार बंगाल चित्र शैली के एक अन्य महत्वपूर्ण कलाकार हैं जिन्होंने प्रेम और विरह पर विलक्षण कृतियाँ बनायीं। उनकी आस्था वैष्णव धर्म में रही जिसका प्रभाव भी उनकी कृतियों में दिखता है। उनकी कृतियों में कैकेयी और दशरथ, कीर्तन, शकुंतला, लक्ष्मी, रासलीला, यक्ष की पत्नी, मीराबाई, राधा, स्वामी हरिदास आदि उल्लेख्य हैं।
इसके अलाव शारदा चरण उकील भी अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों में रहे जिन्होंने इस शैली में अग्रणी कलाकार की भूमिका निभाई। उन्होंने भारतीय चिन्तन और दर्शन की परंपरा को अपने कृतित्व का विषय बनाया जिनमें सहजता से हम अंतरंगता और मार्मिकता के दर्शन कर सकते हैं। रोथेन्सटिन ने उनकी कृतियों पर बात करते हुए लिखा था- ‘ उकील की कृतियों की भावुकता रवींद्रनाथ ठाकुर के गीतिकाव्य जैसी बन पड़ी है। उनकी अभिजात्य और कलागत विचारमग्नता भारतीय संगीत की भांति दर्शक को भारतीय आत्मा में झांकने का एक अवसर प्रदान करती है। ‘ उनके चित्रों में – ईद का चांद देखते हुए, दरगाह में गाते हुए बालक, दिन भर के परिश्रम के बाद, घड़ा लिए हुए लड़की, हार्डवेयर मर्चेंट, चांदनी रात, लुका छिपी, क्रुद्ध लहरें, जीवन चक्र आदि महत्वपूर्ण हैं।प्रमोद कुमार चटर्जी इस परंपरा के एक अन्य महत्वपूर्ण कलाकार रहे जिनकी कृतियों में पहले विद्रोही स्वर सुन पड़ता है। पर बाद के चरण में वे बंगाल शैली में आकर रम गए। उनके कामों में शिव, दुर्गा, मनसा देवी, विश्वकर्मा, सम्राट अशोक, नर्तकी अम्बपाली, प्रकाश का आह्वान आदि उल्लेख्य हैं। पुलिन बिहारी दत्त अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों में अंतिम कलाकार रहे जिन्होंने बंगाल शैली में अनेक उल्लेखनीय कृतियों की रचना की। उनकी रेखाओं में बल तथा रंगों की सौम्यता आकर्षक रही जिसकी प्रायः सबने प्रशंसा की है। उनके चित्रों में – मीरा, महात्मा गांधी, भिक्षुक बुद्ध, सिद्धार्थ और यशोधरा, चितौड़ की पद्मिनी आदि महत्वपूर्ण हैं।इस तरह बंगाल शैली को अवनीन्द्रनाथ तथा उनके योग्य शिष्यों ने एक नया आकाश दिया जिसे बाद में नंदलाल बोस के शिष्यों ने उसके प्रभाव को बहुत विस्तार दिया।ज्ञातव्य है कि अवनीन्द्रनाथ के योग्य शिष्यों में नंदलाल बोस अन्यतम थे। उन्होंने बंगाल शैली को अपने प्रयासों और सर्जना के बल पर अधिक विस्तार दिया। मालूम हो कि नंदलाल बोस की कला में कल्पनात्मकता, पर्यवेक्षण तथा सर्जनात्मक प्रतिभा का मणिकांचन योग था। उन्होंने अपनी सर्जनात्मकता और विलक्षण निर्देशन के संयुक्त प्रभाव से इस शैली में अपने शिष्यों को दीक्षित किया जिसके फलस्वरूप बंगाल शैली देश की अन्यतम कला शैली बन गई। 1923 में नन्दलाल बोस कला भवन के अध्यक्ष बने और 1953 तक इस पद पर रहे। इन वर्षों में उन्होंने स्वयं अपनी सर्जना में अद्वितीयता का परिचय देते हुए बंगाल शैली को भी शिखर पर ले गए। कला भवन, शांतिनिकेतन में नंदलाल बोस के सानिध्य में काम कर बंगाल शैली को प्रसारित करने में लगे कलाकारों की सूची बहुत लंबी है। इनमें सर्वाधिक उल्लेखनीय कलाकारों में- मुकुल डे, अर्धेन्दु प्रसाद बनर्जी, वीरेश्वर सेन, बिनोद बिहारी मुखर्जी, सत्येन्द्रनाथ बनर्जी, विनायक मासोजी, शैलेश देवबर्मन, सुधीर रंजन ख़ास्तगीर, कृपाल सिंह शेखावत, रामकिंकर बैज, अवतार सिंह पंवार, प्रभात नियोगी, कनु देसाई, हरिहरन, डी बद्री,रमेन्द्र नाथ चक्रवर्ती आदि शामिल हैं। नन्दलाल बोस के इन शिष्यों में मुकुल डे और रमेन्द्र नाथ चक्रवर्ती ने कलकत्ता में, वीरेश्वर सेन ने लखनऊ में, प्रभात नियोगी के ग्वालियर में शैलेश देवबर्मन ने त्रिपुरा में, कृपाल सिंह शेखावत ने जयपुर में, अवतार सिंह पंवार ने उत्तर प्रदेश में, कनु देसाई ने अहमदाबाद में, डी बद्री ने दिल्ली में तथा हरिहरन ने जापान में इस शैली का प्रचार कर अनेक कलाकारों को इस शैली में काम करने को प्रेरित किया। यहां तक आते आते दूसरा चरण समाप्त हो जाता है। तीसरा चरण 1936 से 1947 तक रहा।इस चरण में नन्दलाल बोस के सभी शिष्यों में, जिनके काम सबसे अधिक इस शैली को प्रसारित करने में सहायक हुए उन्हें संक्षेप में यहां देखना आवश्यक है। इनमें सबसे पहला नाम मुकुल डे का है जिन्होंने बंगाल शैली को विदेशी तकनीक से समन्वित कर अपनी एक ऐसी निजी पद्धति विकसित की जो सबका ध्यान खींच सकी। यह रेखांकित करनेवाली बात है कि अपनी परम्परा के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रखनेवाले मुकुल डे विशुद्ध भारतीय शैली में अपनी निजता की खोज कर सके। अपनी रेखाओं के सुमधुर विन्यास के साथ उनकी पद्धति में जो गम्भीरता थी, वह उस दौर में अलग से आकर्षण का विषय बनी। जापानी और यूरोपीय तकनीकों के प्रभाव के बावजूद भारतीय सोच के साथ काम करने की लगनशीलता के कारण इनको बड़ी सफलता मिली और इनकी प्रदर्शनियां दुनिया के अनेक हिस्सों में हुईं। जीवन वृक्ष और तर्पण जैसी कृतियाँ उनके महत्व को सूचित करती हैं। वे कला के आलोचक भी थे जिनकी मुख्य किताबों में – टेम्पल टेराकोटाज् ऑफ वीरभूम, माई पिलग्रीमेज टू अजंता एंड बाघ शामिल हैं।
वीरेश्वर सेन नंदलाल बोस के शिष्यों में दूसरे बड़े चित्रकार थे जिन्होंने अपनी कृतियों में सुघड़ रेखाओं में जादुई रंगांकन से सबको मन्त्रमुग्ध कर दिया था। उनके हिमालय पर बनाये गए चित्र भी बहुत आकर्षित करते हैं। उनका भूदृश्य अंकन बेहद प्रभावकारी रहा। उनके उल्लेखनीय चित्रों में- गोपियाँ, प्रभात, ब्लैक बैरियर्स, मैडिटेशन आदि महत्वपूर्ण हैं। बिनोद बिहारी मुखर्जी इस परंपरा के एक अन्य बड़े चित्रकार हैं जो अपने विद्रोही स्वभाव के कारण भी जाने जाते हैं। अपने चित्रों में निजी सोच के साथ रूपाकारों में सरल रेखाओं के प्रयोग और संयोजनों की लयात्मकता इन्हें महत्वपूर्ण बनाती है। इन्होंने जलरंगों के साथ साथ टेम्परा में भी काम किया। इसके साथ साथ भित्ति चित्रण में भी उनकी गति रही और उन्होंने ग्राफिक माध्यम में भी उल्लेखनीय काम किये। उनके चर्चित कामों में- वृक्षप्रेमी, मंदिर की घण्टी, नेपाल प्रोसेशन, पल, जंगल, जाड़े की दोपहर और दीपावली उल्लेखनीय हैं। अपने सृजन के निजी आग्रहों के कारण वे बहुधा बंगाल शैली के रूढ़ बन्धनों से बाहर जाते रहे जिसके कारण उन्हें विरोध भी सहना पड़ा।
इस कड़ी में रामकिंकर बैज का नाम भी जुड़ता है जो मूर्तिकला में अपूर्व प्रतिभा के साथ सामने आए। आधुनिक भारत के वे संभवतः पहले सम्पूर्ण मूर्तिकार हैं जिन्होंने मूर्ति के रूढ़िगत ढांचे को तोड़ दिया और उसमें अमूर्त छवियों को ढाला। उनकी सृजनात्मकता में हम अपूर्व कल्पनाशीलता, वैयक्तिकता, नवाचार तथा गति, शक्ति और स्फूर्ति का दुर्लभ संयोग देख पाते हैं। यह विस्मय ही है कि उनका प्रशिक्षण एक चित्रकार के रूप में हुआ था और उन्होंने शुरू में कुछ चित्र भी बनाये, पर 1935 के बाद उनके रचना विधान में अचानक क्रांतिकारी परिकर्तन आया और वे मूर्तिशिल्प के सृजन में जुट गए। दिलचस्प यह है कि मूर्तिशिल्प जैसे ठोस और यथार्थ माध्यम को उन्होंने कल्पना जन्य रूपाकारों में विन्यस्त कर उसे अमूर्त शैली में गढ़ा। बंगाल शैली को अपने जीवंत स्वदेशी बोध से एक नए मार्ग पर ले जाते हुए रामकिंकर ने उसे चरम विकास तक पहुंचाया। चित्रों में जलरंग, तैल और टेम्परा में विषय, तकनीक और भाव के स्तर पर उनकी चर्चित कृतियाँ रहीं- मां और बेटी, कृष्ण जन्म , मेघों से घिरी संध्या, संथाल परिवार, मिल की ओर और दोपहर की विश्रांति । उनके मूर्तिशिल्पों में- रवींद्रनाथ, यक्ष यक्षी, मिस मधुरा सिंह और मिल की ओर उल्लेख्य हैं।इस कड़ी में नंदलाल बोस के अंतिम शिष्यों में सुधीर खस्तगीर आते हैं जिनके कामों में हम पश्चिमी तकनीकी और स्वदेशी दृष्टि के समन्वय से एक विशुद्ध भारतीय कलाबोध का साक्षात्कार कर पाते हैं। वे चूंकि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से भी प्रेरित थे इसलिए उनके कामों में हम सहजता से देश के तत्कालीन समय को देखते हैं। उनके चित्रों में अनायास ही सामान्य जनजीवन के प्रसंग, रोजमर्रा के जीवन, उत्सव तथा तत्कालीन समाज के दृश्य दिखाई पड़ते हैं। उनकी विशिष्टता कृतियों की लय और गति में मिलती है। चेहरे की मुद्राओं के अंकन में भी वे बहुत सफल रहे। बाद में उन्होंने मूर्तिशिल्प में भी काम किया और उसमें भी अपनी निजी छाप छोड़ी। उनके उल्लेखनीय चित्रों में- भिक्षुणी, गरीब की दुनिया, दुख, तूफान, वसन्त नृत्य, भगवान बुद्ध आदि शामिल हैं तो मूर्तिशिल्पों में- महाकवि, विचारक, नर्तक अशोक, बाउल आदि चर्चित हैं।
बंगाल शैली के विकास में उपर्युक्त कलाकारों के अलावा कुछ अन्य बड़े कलाकारों का योग रहा जो सीधे तौर पर अवनीन्द्रनाथ के शिष्य नहीं रहे पर उनसे प्रेरित प्रभावित होकर उन्होंने अपने अपने क्षेत्रों में अभूतपूर्व काम किया। इन कलाकारों में देवीप्रसाद रायचौधुरी, अब्दुर्रहमान चुगताई तथा सुनयनी देवी के नाम महत्वपूर्ण हैं। इनमें देवी प्रसाद का नाम अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों की की तिकड़ी के साथ रख कर देखा जाता है। यह तिकड़ी ख्यात है जिसमें नन्दलाल बोस, के वेंकटप्पा और असितकुमार हालदार का नाम लिया जाता है। देवीप्रसाद की खूबी यह थी कि वे पूरब और पश्चिम की तकनीकी को समन्वित कर एक विशेष शैली को प्रतिपादित कर सके। यह शैली बंगाल शैली के स्वदेशी विधि के निकट रही इसलिए उनके कामों को इस शैली के विकास में देखा जाता है। यही कारण है कि अवनीन्द्रनाथ के शिष्य न होने के बावजूद उनको उनके सफलतम अनुयायी के तौर पर याद किया जाता है। पर उनको यूरोप की यथार्थवादी शैली ने ज्यादा प्रभावित किया था। अन्य कलाकारों की भांति वे भी पहले चित्रकला में ही काम करते रहे। रचना प्रविधि में उनके अधिकतर चित्र बंगाल शैली में रहे पर रंग संयोजनों में उन पर पश्चिमी कलाकारों का प्रभाव दिखता है। प्रकृति भी उन्हें लुभाती थी तो दैनिक जीवन के दृश्य भी उन्हें छूते थे। उनके चित्रों में- जब वर्षा आती है, हिमालय में उषाकाल, भोटिया युवती, कमल सरोवर आदि महत्वपूर्ण हैं। बाद में वे मूर्तिशिल्प की तरफ गए। यह बात याद रखने की है जब वे मूर्तिशिल्प की तरफ प्रवृत्त हुए तब अपने यहां इस क्षेत्र में एक शून्यता की स्थिति थी। तब उन्होंने मूर्तिकला की अकादमिक शिक्षा ली और इस क्षेत्र में अपूर्व काम करके सबको हैरत में डाल दिया। उनके मूर्तिशिल्प अपने देह विन्यास, शक्ति और गतिमयता के लिए विख्यात हैं। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने भारत के मध्यकालीन मूर्ति परम्परा को अपनाकर उन्होंने दक्षिण भारत की होयसल और गुजरात के सोलंकी राजवंश के समय के मूर्तिशिल्प से प्रेरणा ग्रहण की। उनके मूर्तियों में हम स्मारकीय तत्व भी पाते हैं जो स्वाधीनता सेनानियों की शबीहों और प्रसंगों से सम्बंधित कामों में लक्षित होता है। उनके उल्लेख्य मूर्तिशिल्पों में- श्रम का महत्व, शहीद स्मारक, भूख के शिकार, जब जाड़ा आता है आदि महत्वपूर्ण हैं।
इस परम्परा में अब्दुर्रहमान चुगताई का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है जो बंगाल शैली से जुड़े न होने के बावजूद इसके विकास में महत्वपूर्ण योग दे सके। ये विशुद्ध रूप से पारम्परिक भारतीय पद्धति के चित्रकार रहे जिन पर कांगड़ा शैली के साथ साथ ईरानी प्रभाव भी रहा। स्पष्ट रेखाओं में लय और मोहक रंग संयोजन से निर्मित उनके चित्र अद्भुत प्रभाव छोड़ते हैं। आलंकारिकता, कल्पनाशीलता, सौन्दर्य, मधुरता जैसे गुण उनको श्रेष्ठ भारतीय कलाकार बनाते हैं। यह वे गुण हैं जिन्हें हम बंगाल चित्रशैली में देखने के अभ्यस्त हैं। उन्होंने बड़े पैमाने पर चित्र रचे जिनमें- संगीत का जन्म, दीपक और चंद्रमा, शहजाद सलीम, जीवन जाल, राधाकृष्ण, नटराज दीवानी लैला आदि महत्वपूर्ण हैं।

चित्र साभार गूगल
इस कड़ी की आखिरी चित्रकार सुनयनी देवी थीं जो अवनीन्द्रनाथ की छोटी बहन थीं। उन्होंने कला की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली थी पर पारिवारिक वातावरण से प्रेरित होकर उन्होंने चित्र रचना शुरू की। उनके चित्रों में लोककला और भारतीय प्राचीन कला का प्रभाव दिखता है। पर विस्मय होता है कि कला की शिक्षा न लेने के बावजूद उनके चित्रों का रंग विधान, मनोहर विन्यास और रेखाओं की गतिमयता किसी भी सिद्ध कलाकार से कम प्रभावकारी नहीं है। स्त्री होने के कारण उनके चित्रों के अधिकतर विषय स्त्रियों से सम्बंधित हैं। उनके उल्लेखनीय चित्रों में- अर्धनारीश्वर, पुष्प सहित महिला, लक्ष्मी और गोपियाँ महत्वपूर्ण हैं। इन्होंने भी अपने प्रयत्नों से बंगाल शैली की चित्रकला को विस्तार देने में अपनी अहम भूमिका निभाई।
पर ध्यान में रखने की बात यह है कि बंगाल चित्र शैली का देशव्यापी विस्तार केवल बंगाल कला स्कूल ( कला भवन, शांतिनिकेतन और शासकीय कला विद्यालय, कलकत्ता) से जुड़े कलाकारों के कारण नहीं हुआ। तथ्य यह है कि पूरे देश में दर्जनों कला समूहों ने इसमें रुचि ली और उनके प्रभाव में हज़ारों कलाकारों ने इसके विकास को सुनिश्चित किया। इसमें इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट नामक संस्था का भी योगदान है जिसकी स्थापना 1907 में हुई थी। इस संस्था को बनाया ही इसलिए गया था कि यह आंदोलन देश के साथ साथ विश्व्यापी स्वरूप ले सके। इसमें भारतीय कलाकारों और कलाविदों के साथ साथ अंग्रेज अधिकारियों की भी उपस्थिति थी। इसमें शामिल लोगों में- लार्ड किचनर, सर जॉन वुडरूफ, ई बी हैवेल, पर्सी ब्राऊन जैसे अंग्रेजों के साथ आनंद कुमारस्वामी, रामानंद चटर्जी अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, गगनेन्द्रनाथ ठाकुर तथा अर्धेन्दु कुमार गांगुली मुख्य थे। इस संस्था के पहले अध्यक्ष लार्ड किचनर थे जिनकी पहल पर पहले 1908 में अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों की प्रदर्शनी कलकत्ता में लगी और जन सामान्य ने इन चित्रों को देखकर शाबासी दी। इसके बाद क्रमशः 1911, 1912 और 1914 में इस शैली के चित्रकारों की प्रदर्शनियां लंदन, पेरिस, बर्लिन तथा न्यूयॉर्क में आयोजित की गईं। 1911 में ही इस संस्था के साथ साथ लंदन में बंगाल के ही एक पूर्व गवर्नर की अध्यक्षता में इंडिया सोसाइटी की स्थापना भी की गई थी। इस प्रयास से यह आंदोलन वैश्विक चर्चा में आया और इस चित्र शैली को अभूतपूर्व ख्याति अर्जित हो सकी।
इसी दौरान इस चित्रशैली ने कला के लगभग सभी माध्यमों को अपने प्रभाव में ले लिया। मूर्ति, वास्तु, छापा आदि के साथ यह शैली बर्तन, जेवर, वस्त्र आदि की परिकल्पना में भी आ गयी जो इसके व्यापक प्रभाव का परिणाम ही था।
पर 1903 से शुरू हुआ यह आन्दोलन 1947 तक थमता हुआ नजर आने लगा जब पश्चिम के प्रभाव से आधुनिकता का उदय हुआ। इस दौरान भारत में अनेक ऐसे कलाकारों का उदय हुआ जिन्होंने इसे चुनौती दी और अपने कामों से इसके आगे का रास्ता तय किया। कुछ कलाविद यह मानते हैं कि इसके जन्म का लक्ष्य पराधीन भारत में स्वदेशी जागरण था, इसलिए स्वाधीनता मिल जाने के बाद इसका ह्रास स्वाभाविक था। भारतीयता का मानक आज़ादी के बाद बदल गया जिसके कारण यह आंदोलन पहले की तरह प्रभावी नहीं रह पाया और इसमें निरन्तर गिरावट आती गयी।
बहुत से लोग बंगाल कला आंदोलन की इस चित्र शैली में गिरावट आने के कारणों में जिन दोषों को दिखाते हैं, वे हैं- असमंजस से भरी अनिश्चित रेखाएं, धुंधली और संशयपूर्ण आकृतियां, अवसाद से भरे हल्के रंगों का इस्तेमाल, भयपूर्ण चित्रांकन, शक्तिहीन रमणीयता, भावुकता से भरी चित्रमयता और तकनीकी अक्षमता। पर यह कारण गिनाकर इस शैली को महत्वहीन बना देने की कवायद से ज्यादा कुछ नहीं है। सच तो यह है कि इस एक कला आंदोलन लगभग पचास वर्षों तक देशव्यापी कला प्रविधि बनकर पूरे भारत की कला सर्जना को प्रभावित किया और दुनिया भर में अपने विषय, रंग बर्ताव, संयोजन, आकल्पन, रेखाओं की गतिमयता, चित्रण की सुकरता और मोहक छविमयता से चर्चा के केंद्र में रहा। पश्चिम में जितने भी आंदोलन हुए, चाहे वह अभिव्यक्तिवाद हो, चाहे अभिव्यंजनावाद हो, चाहे घनवाद हो , चाहे फाववाद हो या चाहे प्रतीकवाद, आधुनिकतावाद, यथार्थ वाद हो या अमूर्तवाद हो, किसी भी आंदोलन के साथ इतने बड़े पैमाने पर न कलाकार जुड़े और न किसी का भी जीवन इतने लंबे समय तक रहा। सही मायनों में पराधीन भारत में देशज तत्वों की खोज और भारतीयता के भाव को कला में प्रसारित करने का यह दुर्लभ कला आंदोलन था जिसके महत्व को लेकर कोई संदेह नहीं हो सकता। संदेह करने के न तो तर्कों की कमी होती है और न उसके अनुकूल बहस करने के तथ्यों की, पर जो सच है वह यही कि अंग्रेज कलाविदों ने भी इसे प्रसारित करने में योग दिया ( इसकी आलोचना का एक कारण यह भी है) और निश्चय ही इस आंदोलन ने भारतीय कला के विकास की एक नई राह भी दिखाई जिसपर हमारी आगे की कला विकसित हो पाई।

साभार गूगल
यह कत्तई तार्किक सचाई नहीं है कि गगनेन्द्रनाथ ठाकुर, रवींद्रनाथ ठाकुर और जामिनी राय जैसे कलाकार बंगाल शैली से विद्रोह करके आगे आये। कहा जा चुका है कि समय बदल गया था और बदले हुए समय में पश्चिम से जो विचार आये उनसे कला ही नहीं जीवन व्यवहार भी बदला। यह बदलाव ही भारतीय कला के नए मार्ग का सूचक था जिस पर चलते हुए इसके समानांतर कला के एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। गगनेन्द्रनाथ, रवींद्रनाथ और जामिनी राय की कला नए बदलाव के साथ सामने आई जिसमें हम अमृता शेरगिल के कामों को भी देख सकते हैं। यह दौर एक नए भारत को देखने का था और कला में आगे की राह पाने का था। इसका मतलब यह नहीं था कि उसके प्रति विद्रोह इनके सर्जन का कारण बना। बेशक अमृता शेरगिल ने बंगाल चित्रशैली की कटु आलोचना की है और उसकी भारतीयता को भी संदेह से देखा है पर स्वयं अमृता की भारतीयता कितनी प्रामाणिक है, यह कहने की बात नहीं है।कुल मिलाकर यह कहना समीचीन होगा कि बंगाल कला आंदोलन एक सार्थक और देशव्यापी कला आंदोलन रहा जिसके प्रभाव को हम अब भी महसूस कर सकते हैं। यह सच है कि लगभग पचास वर्ष तक सक्रिय रहकर इस कला शैली ने भारतीय कला को परिभाषित कर उसे विकसित करने का महत्वपूर्ण काम किया।
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