अभिप्रेरक (मोटिवेशनल)

दुखवा का से कहे देह

फोटो : साभार गूगल

मनस्वी अपर्णा II

मुझे अक्सर यह लगता है कि हम सब की अधिकांश चर्चा भावनाओं और मानसिक आवेगों पर होती हैं। हमारे सुख-दुख सब भावनाओं से जुड़े हैं। मैंने किसी को भी शरीर के सुचारू रूप से चलने और उसके प्रति अहोभाव से भरते हुए नहीं देखा। अलबत्ता, बीमारी की चर्चाएं जरूर सुनी हैं, लेकिन उनमें गहराई से देखा जाए तो शरीर को हो रही पीड़ा से उपजा मानसिक कष्ट ही देखा है।  

अगर मैं यह पूछूं कि आप अपने शरीर, उसकी जरूरतों, उसके संचालन और उसकी तकलीफों के प्रति कितने सजग है? … तो मुझे बड़े ही आध्यात्मिक किस्म के जवाब सुनने मिलेंगे। माटी की देह, पानी का बुलबुला या नश्वर शरीर जैसे। उस समय वो सभी लोग ये भूल जाते हैं कि शरीर ही वह माध्यम है जिससे आप इस पूरे संसार से जुड़े हुए हैं,और आप जैसा भी खुद को अभिव्यक्त करना चाह रहे हैं, कर रहे हैं भले ही आप इस बात को मानें या न मानें।

मैं बहुत आसान सा उदाहरण लेती हूं- प्रेम या घृणा…। अक्सर लोग ये मानते हैं कि प्रेम आत्यंतिक रूप से एक मानसिक अवस्था है, एक गहरा भाव है प्रेम। जिसका शरीर से कोई लेना देना नहीं है, कुछ अर्थों में ये बात सही है, बात जब आध्यात्मिक स्तर के प्रेम की होती है तब शरीर वाकई मायने नहीं रखता, न प्रेम करने वाले का न ही जिससे प्रेम किया जा रहा है उसका… लेकिन इस आयाम को अधिकांश लोग नहीं छू पाते, हम जब भी प्रेम कहते हैं तो सांसारिक प्रेम की, स्त्री पुरुष मनो दैहिक आकर्षण की ही बात कर रहे होते हैं, और इस प्रेम से शरीर को अलग रख पाना नामुमकिन है। क्योंकि इसकी शुरुआत ही शरीर से होती है, आप किसी को देख कर, सुन कर, जान कर ही उसके प्रेम में पड़ते हैं। और जिसको देखा, सुना, जाना जा रहा है वो प्राथमिक स्तर पर शरीर ही है।

 प्रेम हो या घृणा, ये शरीर से ही अभिव्यक्त हो सकते हैं। सिर्फ घृणा और प्रेम ही नहीं बल्कि इस दुनिया में हमको चाहे जो हासिल करना हो या अभिव्यक्त करना हो वो होगा तो शरीर के माध्यम से ही…और भारतीय मानस के साथ सबसे अहम समस्या यह है कि वो शरीर के अस्तित्व को उसकी महत्ता को मानने को तैयार नहीं हैं। आप जब भी शरीर की बात करेंगे गलत समझे जाएंगे, आप पर भौतिकतावादी होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा, आपको शरीरवादी माना जाने लगेगा। यह थोड़ा गलत है। हम जिस माध्यम से किसी भी आयाम को छू पाने में सक्षम हो पा रहे हैं, उसकी किसी भी स्तर पर अवहेलना ठीक नहीं।

बदकिस्मती से हम वे सब काम करते हैं जो शरीर के सुचारू संचालन में बाधा बनते हैं। इस नैसर्गिक यंत्र को नैसर्गिक व्यवहार ही चाहिए। और हम खान-पान, जीवन शैली से लेकर मानसिक स्तर तक इस शरीर के इको सिस्टम को बस बिगाड़ते रहते हैं। यह आपका इकलौता और बेहतरीन साथी है इसकी आवाज और सलाह सुनना सीखिए। सही भोजन, सही व्यायाम, सही आराम और सही सोच का मेल आपके शरीर को आपकी तरफ से बेहतरीन तोहफा होगा।

फोटो : साभार गूगल

आपका पूरा शरीर स्वायत्त ढंग से संचालित हो रहा है, और यह इतनी बड़ी और जटिल मशीन है कि बरसों-बरस की मेहनत और असंख्य प्रयोगों के माध्यम से हम बस इसकी कार्यप्रणाली को समझ पाने में सक्षम हो पाए हैं और इसमें थोड़ा बहुत सुधार कर पाने में ही सक्षम हो पाए हैं, आपके शरीर का कोई भी अंग जरा खराब हो जाए तो उसको सिर्फ दुरुस्त करने और पहले जैसा बनाने में कितना कुछ लगता है आप बेहतर जानते हैं।    

विज्ञान की कितनी ही तरक्की के बावजूद हम ईश्वर की बनाई इस अनवरत और सुचारू रूप से चलने वाली मशीन जैसा हूबहू कुछ निर्मित नहीं कर पाए हैं। रोबोट की भी अपनी एक सीमा है। कोई छोटा सा अंग बनाया भी तो वह कृत्रिम लगता है। जयपुर फुट को ही देख लीजिए। हजारों नसों, अरबों कोशिकाओं, मीलों लंबे तंत्रिका तंत्र, खून, मांस-मज्जा और लगभग 260 हड्डियों से बना ये शरीर सतत सुचारू रूप से चलता है बिना किसी अतिरिक्त चेष्टा के। और ये सब यूं ही चलता रहे इसके लिए आपको बस इतना करना होता हैं कि वो काम न करें जो शरीर के सुचारू संचालन में बाधा बने।

बदकिस्मती से हम वे सब काम करते हैं जो शरीर के सुचारू संचालन में बाधा बनते हैं। इस नैसर्गिक यंत्र को नैसर्गिक व्यवहार ही चाहिए। और हम खान-पान, जीवन शैली से लेकर मानसिक स्तर तक इस शरीर के इको सिस्टम को बस बिगाड़ते रहते हैं। यह आपका इकलौता और बेहतरीन साथी है। इसकी आवाज और सलाह सुनना सीखिए। सही भोजन, सही व्यायाम, सही आराम और सही सोच का मेल आपके शरीर को आपकी तरफ से बेहतरीन तोहफा होगा।

शरीर प्रकृति से मिला वह अनमोल उपहार है जिस पर शर्म नहीं गर्व होना चाहिए। सयाने यूं भी कह गए हैं- ‘शरीर माध्यम खलु धर्म साधन’ यानी शरीर के माध्यम से ही वो सब साधा जा सकता है जो आप चाहते हैं। तो अपने शरीर का ध्यान रखिए और उसकी आवाज सुनना सीखिए ये बहुत फायदे का सौदा है।  

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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