अश्रुत पूर्वा II
आज विश्व हिंदी दिवस है। हैरत है कि अंग्रेजी में हर जगह हस्ताक्षर करने वाले भी यह दिवस मना रहे हैं। तो यही है हिंदी का विश्व विजयी रूप। हम जानते हैं कि भारत में हिंदी अभी न तो प्रौद्योगिकी की भाषा है और न ही रोजगार की। फिर भी वह अंग्रेजी से आगे निकल रही है। पिछले 65 साल में राष्ट्र की अभिव्यक्ति की जो परिभाषा गढ़ी जा रही है, वह अचंभित करती है। हम इस नई हिंदी को समकालीन भाषा कह सकते हैं, जिसे पूरा भारत बोलता और समझता है। यहां तक कि दुनिया के कई देशों के लोग भी हिंदी सीखना चाहते हैं। हिंदी के लेखकों को पढ़ना चाहते हैं।
अब हिंदी के पास अंग्रेजी से या किसी से भी निरर्थक लड़ने का वक्त नहीं है। उसका तो किसी से और कभी बैर था भी नहीं। वह तो इतनी उदार है कि उर्दू और फारसी से लेकर अंग्रेजी तक के शब्दों को आत्मसात करती रही है। अब तो स्थिति यह है कि आॅक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी हिंदी के प्रचलित शब्दों को जगह मिल रही है। यही है हिंदी की शक्ति। उसने देश की विविध बोलियों को मूल शक्ति बनाया है। फिर हिंदी के प्रति उपेक्षा और द्वेष का भाव कहां से आया? यह मंथन का विषय है।
आज हिंदी की दुर्गति के लिए आपने ही लोग रोते हैं। भारतेंदु तो बरसों पहले रोए। किसने उनकी सुनी? आज हिंदी लेखकों में ही एका नहीं है। मगर उनकी खेमेबाजी और प्रतिद्वंद्विता से त्रस्त हिंदी ऐसे साहित्यकारों के चंगुल से निकल रही है। अब कमान नई पीढ़ी ने संभाली है। सच तो यह है कि इस भाषा की दुर्दशा के लिए कट्टरपंथी पैरोकार जिम्मेदार हैं। उन्होंने पाठ्यक्रमों की चहारदिवारी और जरूरत से ज्यादा व्याकरणिक पाबंदियों के बीच हिंदी की रसधारा को सूखने दिया। साहित्य के मठाधीशों ने तो इसे ऐसी विशिष्ट भाषा बना दी कि एक समय में यह उपहास का पात्र बनी रही। यानी यह एक ऐसी स्त्री के रूप में दिखने लगी, जो बेहद दुबली-पतली थी मगर अलंकारों के बोझ से दबी हुई थी।
हिंदी पर साहित्य के इस अनावश्यक अनावरण को सबसे पहले सिनेमा और फिर मीडिया ने उतार फेंका। सकुचाई सी वह स्त्री (भाषा) एकदम तेजतर्रार अंदाज में सामने आई। हिंदी के इस नए रूप का परंपरावादियों ने यह कर कर विरोध किया कि यह तो बाजार में बैठ गई है। यानी यह बाजार की भाषा है। कोई स्त्री सजने-संवरने लगे, तो क्या उसके चाल-चरित्र पर संदेह करेंगे? परंपरावादियों का आरोप यही भाव लिए हुए था। आज हिंदी का ‘बोल्ड’ होना इन्हीं परंपरावादियों को करारा जवाब है।
क्षेत्रीय भाषाओं के अलावा देसज शब्दों और मुहावरों से समृद्ध हुई हिंदी कोई एक दिन में नहीं बनी है। भाषा के बनने की एक सतत प्रक्रिया होती है। वह समय और स्थान के हिसाब से बनती-बिगड़ती रहती है। पिछले दो दशक में मीडिया और बाजार ने भी एक नई हिंदी बनाई है। यह कुछ को भली लगती है, तो कुछ को अखरती भी है।
हिंदी दुनिया की किसी भी भाषा से कहीं अधिक सहज और सहृदय है। यह हर किसी को गले लगा लेती है। राज्यों की विविध बोलियों ने हिंदी को एक तरह से राष्ट्रीय सूत्र में बांधा है। अनेकता में एकता का भाव हमें यहां भी दिखता है। आप देश में कहीं भी चले जाइए, इस भाषा को बोलने वाले मिल ही जाएंगे। यही नहीं जापान से लेकर अमेरिका और इटली तक में हिंदी बोलते लोग दिख जाते हैं। इसे आप हिंदी की ताकत मान सकते हैं। यही तो है विश्व विजयी हिंदी।
पिछले एक दशक में हिंदी मीडिया ने भाषा को एक बार फिर परिमार्जित किया है। इससे हिंदी जरूरत से ज्यादा चमकी है। यह ‘रिन की चमकार’ की तरह है। मीडिया का प्रभु वर्ग इसे युवा भारत की भाषा बनाना चाहता है। इसका समर्थन भी है और विरोध भी, लेकिन इस पर छाती कूटने वाले यह नहीं बताते कि हिंग्रेजी बनती हिंदी अपने सामान्य रूप में कैसे बरकरार रहे। कैसे वह नई तकनीक से जुड़े शब्दों को अंगीकार करे और इससे जुड़े नए शब्द तैयार कर उन्हें प्रचलित किया जाए।
मोबाइल फोन पर एसएमएस और वाट्सऐप पर रोमन में संदेश भेज रही नई पीढ़ी पहले हिंदी में ही सोचती है। उनकी चैटिंग यानी संवादों में अंग्रेजी के शब्द ‘नमक में आटे के बराबर’ ही होते हैं। यह हिंदी की ही ताकत है कि तमाम बड़ी कंपनियां अपने मोबाइल फोन को हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में समर्थ बना रही हैं। दूसरी ओर माइक्रोसॉफ्ट और गूगल जैसी कंपनियों ने हिंदी के संवर्धन की दिशा में बड़ा काम किया है। वे जानती हैं कि नई पीढ़ी अपनी भाषा में संंवाद करना ज्यादा पसंद करती हैं। फिर क्षेत्रीय भाषाओं का अपना एक विशाल वर्ग भी है, जिसकी उपेक्षा कर बाजार में नहीं टिका जा सकता।
हिंदी दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक भाषाओं में से एक है। उसका अपना व्याकरण है। तत्सम, तद्भव और देसज शब्दों से हिंदी का किला इतना मजबूत है कि अंग्रेजी के तमाम शब्द सेंध लगा लें, इसे कमजोर नहीं कर सकते। हिंदी इतनी गरीब नहीं कि बेवजह वह अंग्रेजी से बहुत ज्यादा शब्द उधार ले। समकालीन लेखकों का यह दायित्व है कि वे हिंदी को परिमार्जित तो करते रहें, मगर इसकी शब्द संपदा का भरपूर प्रयोग करते हुए इसके मूल चरित्र को भी बनाए रखें। जरूरत पड़ने पर चाहे किसी भी भाषा के शब्द मिलाएं, लेकिन इसकी जीवंतता बनी रहे।
बाजार की भाषा बनती हिंदी को ‘कूल’ बनाने वाले बाजारवादियों से न केवल हिंदी बल्कि इस भाषा के लेखकों को भी सजग रहने की जरूरत है। जिस तरह भारत में व्यापार करने आए अंग्रेजों ने बाजार की आड़ में सत्ता की डोर पकड़ कर इस देश को गुलाम और फिर कंगाल बनाया, ये नवबाजारवादी और उनके पैरोकार भी अपनी जेबें भर कर कहीं हिंदी को भी कंगाल न बना दें। इस पर नजर रखना मीडिया का भी उत्तरदायित्व है, लेकिन दुखद यह कि हिंदी मीडिया का एक वर्ग खुद ही बाजार की भेंट चढ़ चुका है।
यह हमें जान लेना चाहिए कि अंग्रेजी शब्दों के बेतहाशा इस्तेमाल से वह युवा पाठकों या श्रोताओं की भाषा नहीं बन जाएगी। हिंदी तो बरसों से अपनी राह बनाती आगे बढ़ रही है। वह हर दौर में भारतीयों की जुबान रही है। कोई बाजार या कोई मीडिया उसे अपनी चेरी बना ले, यह मुमकिन नहीं। इसके लिए हिंदी और भारतीय भाषाओं के सभी लेखकों को सजग रहना होगा। खेमे से बाहर निकल कर एकजुट होना होगा। यह सभी दायित्व है।
विश्व हिंदी दिवस पर अश्रुत पूर्वा की ओर से सभी पाठकों को शुभकामनाएं।
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