डॉ उर्वशी भट्ट II
तुम्हारे सामीप्य से
जितना भी अर्जित कर पायी
वह श्लाघनीय है
मेरे जीवन
मैं जहाँ तक अपना विस्तार
देखती हूँ
तुम्हारी परिधि का आवर्त्त घेरा भी
महसूस करती हूँ
मुझे ज्ञात है
प्रकाश की व्याप्ति से
किसी कण का पार्थक्य सम्भव नहीं
पृथक पाँखुरी का
पुष्प से भिन्न कोई स्वभाव नहीं
फिर भी न जाने क्यों
सांध्य रश्मियों की
कम्पित दिप्तियां बन
कोई संशय जलता है, बुझता है
कैसे कहूँ ?
अब तुमसे
मेरी मुक्ति सम्भव नहीं
मैंने जीवन के भीतर रहते
अपनी मृत्यु को चुना है ।
Leave a Comment