अभिप्रेरक (मोटिवेशनल) जीवन कौशल

प्रकृति का ही दूसरा रूप है स्त्री

फोटो: साभार गूगल

मनस्वी अपर्णा II

मनुष्यों ने जबसे विकसित होना शुरू किया, उसने आवश्यक रूप से दो काम किए। पहला प्रकृति को चुनौती की तरह मान कर उसको येन केन प्रकारेण विजित करने की चेष्टा और दूसरा प्रकृति के विपरीत और अपने अनुकूल विकास…। हमने पेड़ काटे, नदियां रोकीं, पर्वत जीते, समुद्र पार किए, धरती का सीना भेदा, आकाश में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई। अपने आप को इस प्रकृति से बेहतर और सक्षम साबित करने के लिए ऐसी बुलंद और मजबूत इमारतें बनाई जो उत्तुंग शिखर को चुनौतियां देती हैं जो गुरुत्वाकर्षण को भी मात देती है। सपाट-सीधी सड़कें बनाई जो कहीं भी बड़े आराम से पहुंचा दिया करती है।

हम पंछियों की तरह उड़ने लगे। मीलों दूर होकर भी एक दूसरे से संवाद करने में सक्षम हुए। बीमारियों पर विजयी हुए लेकिन इन सबके बावजूद इन सड़कों से, यातायात के साधनों से, इन दूर संचार के माध्यमों से हम जाना चाहते हैं तो प्रकृति के पास ही…। गौर करें तो हमें ये बात बहुत स्पष्ट रूप से समझ आ सकती है। ऊंची और मजबूत इमारतें हमको बांध नहीं पाती। हम इस मानव निर्मित दुनिया से ऊब कर किसी पहाड़ की गोद में, किसी समंदर के किनारे, किसी हरे-भरे मैदान की बांहों में जाना चाहते हैं।

हम मोबाइल संदेशों में सुंदर प्राकृतिक दृश्यों को साझा करते हैं। हम इन सुंदर और सुव्यस्थित सड़कों से किसी प्राकृतिक रूप से सुंदर स्थान पर पहुंचना चाहते हैं क्यों…क्योंकि हम तार्किक, बौद्धिक और ज्ञात रूप से न भी समझें, तब भी अचेतन मन के किसी स्तर पर ये जानते हैं कि हम इसी प्रकृति का हिस्सा हैं और आखिरकार हमें सुख और सुकून यहीं मिलेगा।

स्त्री और प्रकृति में अद्भुत साम्य है। स्त्री के प्रति पुरुष के आकर्षण में आखिरकार उसी सर्जना के प्रति आसक्ति है जिसकी वजह से यह पूरी दुनिया अस्तित्व में है। किसी ने क्या खूब कहा है कि इस संसार का पूरा विस्तार स्त्री तत्व की वजह से है। यह बिलकुल सही बात है स्त्री वह तत्व है जो इस पूरी माया को रचाती है। अगर स्त्रियां नहीं होतीं तो सच में ये दुनिया बड़ी फीकी और सूनी होती। स्त्रियों ने घर बनाए। रिश्ते बनाए और पुरुष को जीने की वजहें दीं। कोई भी पुरुष पूरी दुनिया जीतने की क्षमता रखता हो, लेकिन उसे अंतत: किसी स्त्री के प्रेम में झुकना सबसे श्रेष्ठ लगता है।

यदि हम ठीक-ठीक समझ और नजर रखते हैं तो बहुत जल्दी ही हमें ये समझ आने लगता हैं कि ब्रह्मांड को यदि समझने के दृष्टिकोण से दो भागों में विभाजित किया जाए तो स्त्री तत्व है प्रकृति और पुरुष तत्व को आप परमात्मा कहें या ब्रह्मांड… स्त्री जो कि आत्यंततिक रूप से सृजनकर्ता है। हर दिशा से अपने सृजन की खबर दे रही है। फूल खिल रहे हैं। पक्षी गीत गा रहे हैं। आकाश में बादल उठ रहे हैं, ये सब की सब प्रक्रियाएं सृजन की प्रक्रिया है। प्रकृति अनवरत सृजन में लीन है। क्योंकि उसकी यही नियति है।और यही वो कारण भी है जो हमको बहुत तीव्रता से प्रकृति के पास खींचता है। हम को परमात्मा के होने की झलक मिलती है प्रकृति में ओशो कहते हैं- प्रकृति प्रकट होते-होते परमात्मा हो जाती है और परमात्मा लीन होते होते प्रकृति।

स्त्री और प्रकृति में भी अद्भुत साम्य है। स्त्री के प्रति पुरुष के आकर्षण में आखिरकार उसी सर्जना के प्रति आसक्ति है जिसकी वजह से ये पूरी दुनिया अस्तित्व में है। किसी ने क्या खूब कहा है कि इस संसार का पूरा विस्तार स्त्री तत्व की वजह से है। ये बिलकुल सही बात है स्त्री वह तत्व है जो इस पूरी माया को रचाती है। अगर स्त्रियां नहीं होतीं तो सच में ये दुनिया बड़ी फीकी और सूनी सी होती। स्त्रियों ने घर बनाए। रिश्ते बनाए और पुरुष को जीने की वजहें दीं। कोई भी पुरुष पूरी दुनिया बेशक जीतने की क्षमता रखता हो लेकिन उसे अंतत: किसी स्त्री के प्रेम में झुकना सबसे श्रेष्ठ लगता है। किसी स्त्री का हृदय जीतना पूरी दुनिया जीतने से ज्यादा कीमती और महत्वपूर्ण जान पड़ता है…। उसका कुल कारण सिर्फ इतना है कि इस स्त्री तत्व के बिना पुरुष तत्व अपूर्ण है।

स्त्री प्रकृति का सूक्ष्म रूप है और बड़े दुख की बात है कि जबसे मानवता विकसित हुई है, पुरुष ने इन दोनों को ही बुरी तरह से तहस नहस किया है। अपने वर्चस्व को स्थापित करने और अहंकार को पोषित करने के लिए पुरुष ने दमन की राह चुनी उसने स्त्री का दमन किया और प्रकृति का भी। जबकि दोनों के साथ तादात्म्य स्थापित कर एक बहुत बेहतर जीवन और संसार की नींव रखी जा सकती थी। इस दमन का दुष्परिणाम है कि प्रकृति और स्त्री दोनों ही आज विद्रूप हो गई है। हम लगातार ग्लोबल वार्मिंग, क्लाइमेट चेंज, सुनामी, ओजोन छिद्र और अब कोरोना जैसी आपदाओं से जूझ रहे हैं। नष्ट हो रहे हैं।आधुनिक स्त्री ने करीब-करीब पुरुष का मार्ग अपना लिया है और अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए प्रजनन को ताक पर रखना शुरू कर दिया है। गृहस्थी और रिश्तों से मुंह फेरना शुरू कर दिया है।

कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि भले ही स्त्री पुरुष दो ध्रुव लगते हों, लेकिन हैं नहीं। इसी के साथ साथ दोनों की उन्नति और अवनति आपस में अवगुंठित है। यही बात प्रकृति और परमात्मा के विषय में भी है वो दो लगते हैं लेकिन हैं नहीं…। प्रकृति से खिलवाड़ और उसकी अनदेखी वास्तव में परमात्मा की अनदेखी है जो किसी भी अर्थ में ठीक नहीं। जितनी जल्दी हम ये तथ्य समझ जायेंगे उतनी जल्दी हम मनुष्यता का सही आयाम छू पाने में सक्षम होंगे।

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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