मनस्वी अपर्णा II
मैंने एक कहावत अक्सर सुनी है कि समुद्र अपनी सीमा कभी नहीं लांघता। यह बात बहुत हद तक ठीक भी है। समुद्र के पास उसकी अपनी अपार ग्राह्य शक्ति है जो अथाह जल को समा कर रखने में उसे क्षमतावान बनाती है। नदियां जितना भी जल चाहें, अपने साथ लाकर समुद्र में समा सकती हैं बिना किसी हिचकिचाहट के, समुद्र कभी इनकार नहीं करता न ही कुछ अतिरेक बता कर बाहर फेंकता है। वो बस समा लेता है…। मंतव्य ये है कि बाहर से आने वाले हर इनपुट के लिए समुद्र यथास्थिति तैयार होता है…।
लेकिन एक स्थिति वह भी होती हैं जब समुद्र न सिर्फ अपनी सीमाएं लांघता है, तटबंध तोड़ता है बल्कि अपरिमित तबाही मचाता है। यह वो प्रलयंकारी स्थिति है जिसे हम सुनामी के नाम से बेहतर जानते हैं। सुनामी आती है समुद्र के अपने भीतरी तल में हलचल होने पर, उसमें आंतरिक उथल-पुथल होने पर… यह बात और है कि इसके पीछे सूक्ष्म किंतु सतत बाहरी कारण जिम्मेदार होते हैं।
हमारी मनोस्थिति भी करीब-करीब इसी तरह के पैटर्न में काम करती है। हम बाहरी बाधाओं से बड़ी आसानी से पार पा सकते हैं लेकिन हमारे अंतस की उथल-पुथल हमारा सब कुछ तबाह कर देती है। किसी भी व्यक्ति से आप बात कीजिए तो ये बड़ी आसानी से समझ आ जाएगा कि वो बाहरी तौर पर मिल रही किसी भी चुनौती के लिए उतना व्यथित और त्रस्त नहीं है जितना अपने अंतर्मन में चल रहे सतत संघर्ष और द्वंद से परेशान है। अपनी आजीविका के लिए पुरूष और सुगम जीवन यापन के लिए प्रत्येक महिला हर स्तर का संघर्ष करते नजर आएंगे, लेकिन उनकी वास्तविक समस्या अधिकतर मामलों में ये बाहरी संघर्ष नही होती बल्कि वह बस अपने भीतर चल रहे संघर्ष से ज्यादा परेशान होते हैं।
जाने-अनजाने हम सब के पास कुछ अस्तित्वगत समस्याएं होती हैं जो हमें उलझाए रखती हैं और जब भी ये समस्याएं अनसुलझी रह जाती हैं तो भीतर ही भीतर ये एक बवंडर की तरह इकट्ठी होती जाती हैं और तब ये बिलकुल किसी सुनामी की तरह ही हमारी मानसिक शांति और आंतरिक स्थिरता को ध्वस्त कर देती हैं। और उसके बाह्य परिणाम सहज ही देखे जा सकते हैं…।
फोटो: साभार गूगल
जाने-अनजाने हम सब के पास कुछ अस्तित्वगत समस्याएं होती हैं जो हमें उलझाए रखती हैं और जब भी ये समस्याएं अनसुलझी रह जाती हैं तो भीतर ही भीतर ये एक बवंडर की तरह इकट्ठी होती जाती हैं और तब ये बिलकुल किसी सुनामी की तरह ही हमारी मानसिक शांति और आंतरिक स्थिरता को ध्वस्त कर देती हैं। और उसके बाह्य परिणाम सहज ही देखे जा सकते हैं…। हमारा रोज का जीवन इससे प्रभावित हो जाता है, हम खुद पर से नियंत्रण खोने लगते हैं, हम अधीर-अशांत और उग्र हो जाते हैं। जीवन की सहजता और सरलता समाप्त होने लगती है।
इस सब के दौरान सबसे बड़ी गलती जो हम करते हैं, वह ये कि हम समाधान बाहर ढूंढते रहते हैं। हम अपनी अशांति और अस्थिरता का दोष किसी और के सर पर मढ़ने लगते हैं…। हम साधनों-संसाधनों को दोष देने लगते हैं। हमको लगता है कि बाहरी तौर पर चीजें खराब है इसलिए सब गड़बड़ है। जबकि होता इसके ठीक विपरीत है। यदि हम आंतरिक रूप से शांत और स्थिर हैं, तो बाहरी चीजों में कोई भी उठा-पटक हो जाए हमको उद्विग्न नहीं करती। कर भी नहीं सकती। क्योंकि उनकी उतनी एक्सेस (पहुंच) होती ही नहीं है। ये बात कभी भी आजमाई जा सकती है। जो व्यक्ति आंतरिक रूप से शांत और स्थिर है उस पर बाहरी संघर्ष कोई प्रतिकूल परिणाम नहीं ला सकता बल्कि ये संघर्ष उसे और निखारता ही है।
तो कुल मिला कर यह कि जब भी हमारा संयम टूट रहा हो। हमारी शांति भंग हो रही, हो हमारा आवेग अपने तटबंध तोड़ रहा हो तो भीतर झांकने की जरूरत होती है और ये देखने की कोशिश करनी होती है कि ये अशांति, ये अस्थिरता, ये आवेग उठ कहां से रहे हैं… यदि हम बस ये देखने भर में सक्षम हो जाते हैं, तो स्थिति के सुधार की दिशा में पहला कदम उठ जाता है और एक बार पहला कदम उठ जाए तो आगे की यात्रा भी संभव हो ही जाती है।
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