उपन्यास

याज्ञसेनी (उपन्यास अंश-1)

राजेश्वर वशिष्ठ II

[महाभारत में याज्ञसेनी या द्रौपदी एक केन्द्रीय पात्र है। इस काव्य का सारा कथाक्रम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी पात्र के इर्द-गिर्द घूमता है। इस पात्र को केंद्र में रख कर अनेक भारतीय भाषाओं में बहुत सारा साहित्य रचा गया है। राजेश्वर वशिष्ठ के उपन्यास ‘याज्ञसेनी’ की एक-एक कड़ी को पढ़ना किसी सम्मोहन से गुजरना है। इस विलक्षण उपन्यास की याज्ञसेनी पौराणिक चरित्र होते हुए भी स्त्री अस्मिता की युगों से चली आ रही लड़ाई को समय सापेक्ष धैर्य, विवेक और वीरता से लड़ती है। इस उपन्यास का कथाक्रम प्रबुद्ध, जुझारू और धरती से जुड़ी एक स्त्री का पितृ-सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था से सीधा संघर्ष है, जो आज तक चला आ रहा है। यह कृति भारतीय समाज की प्रत्येक स्त्री को सामाजिक चेतना और नए जीवन-मूल्य देगी ]

द्रुपद का अमर्ष उन्हें चैन नहीं लेने दे रहा था। उठते-बैठते आचार्य द्रोण का मुस्कुराता हुआ मुख मंडल ही दृष्टिगोचर होता था। वह युद्ध में द्रोण को परास्त करना चाहते थे किंतु उनकी अपनी सभी ग्यारह संतानें इस योग्य नहीं थीं। वह समय-समय पर गुणी-ज्ञानी जनों से चर्चा कर, द्रोण से बदला लेने का उपाय पूछा करते थे। गंगा के किनारे पर टहलते हुए, दूसरे पार उत्तर में अपने खोए हुए राज्य को देख कर वह फूट-फूट कर रोने लगते थे।

हिमालय से आए एक साधु ने राजा के सेवा भाव से प्रसन्न होकर कहा – राजन, आपके भाग्य में अभी संतान योग है। पराक्रमी और वीर संतान पाने के लिए आपको शीघ्र ही संतान प्राप्ति यज्ञ करना चाहिए। राजा को यह विमर्श उचित जान पड़ा और वह इस कार्य के लिए योग्य पुरोहित की खोज करने लगे।

एक दिन गंगा के किनारे घूमते हुए वह ब्राह्मणों के एक ऐसे ग्राम में जा पहुँचे जहाँ सभी ब्राह्मणों ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेद-वेदांग की शिक्षा ग्रहण की थी। उस ग्राम में महाराज द्रुपद ने मुख्य मंदिर के पुजारी से आशीर्वाद ग्रहण करने के बाद पुत्र-प्राप्ति यज्ञ के लिए किसी सुयोग्य पुरोहित का नाम पूछा। पुजारी ने बताया कि यहाँ कर्मकाण्ड और यज्ञादि के लिए याज तथा उपयाज नामक ब्राह्मण प्रसिद्ध हैं। लोग कहते हैं कि उन्हें कोई दैवीय सिद्धि प्राप्त है।

द्रुपद वहाँ से चल कर सीधे उपयाज नामक ब्राह्मण के स्थान पर गए। उनकी पूजा-अर्चना करने के बाद राजा ने उनसे कहा – हे, काश्यप गोत्रीय श्रेष्ठ विप्र, मुझे एक ऐसा पुत्र चाहिए जो आचार्य द्रोण का वध करे। मैं ऐसा यज्ञ करने वाले ब्राह्मण को धन, सम्पदा के अतिरिक्त दस करोड़ गायें भी दान में दूँगा।

उपयाज ने राजा की ओर देख कर कहा – महाराज, मुझे अपनी विपन्नता से कोई क्लेश नहीं है। मैं आपके लिए इस यज्ञ का निष्पादन नहीं कर सकता क्योंकि इसका उद्देश्य पवित्र नहीं है। आप चाहें तो मेरे बड़े भ्राता याज से सम्पर्क कर लें, सम्भव है वह आपकी दक्षिणा से प्रभावित होकर इस यज्ञ का निष्पादन स्वीकार कर लें।

महाराज द्रुपद संवेदनशील व्यक्ति थे, उन्हें उपयाज का तर्क उचित लगा किंतु द्रोण का विजयी मुखमंडल उन्हें अमर्ष से मुक्त नहीं कर रहा था। वह याज के पास गए और याज ने इस यज्ञ हेतु पुरोहित बनना स्वीकार कर लिया। काम्पिल्य में बहुत हर्ष और उत्साह के साथ इस पुत्र-प्राप्ति यज्ञ की तैयारियाँ आरम्भ हो गईं। पुरोहित याज ने शुभ तिथि, मुहूर्त आदि देख कर यज्ञ को आरभ किया।

पूरे तीस दिनों तक यज्ञस्थल पर हवि से पोषित सुगंधित धूम्र छाया रहा और अग्निदेव प्रसन्न रहे। पूर्णाहूति का समय आ गया और पुरोहित याज ने महारानी को आज्ञा दी – पृषत की पुत्रवधू, शीघ्र मेरे पास हविष्य ग्रहण करने के लिए आओ, अग्निदेव तुम्हें एक पुत्र तथा एक पुत्री देने वाले हैं।

महारानी के मुख में ताम्बूल था और वह मुख पवित्र करने के लिए प्रासाद के भीतर चली गईं। याज ने महारानी को न पाकर अग्निदेव से प्रार्थना की कि इस संस्कार युक्त हविष्य से प्रसन्न होकर आप इन संतानों को अयोनिज ही उत्पन्न करें।

अग्नि की लपटें और तेज़ हो गईं, चारों ओर एक दिव्य प्रकाश फैल गया और वहाँ उपस्थित लोगों को लगा कि एक रथ पर सवार होकर एक तेजस्वी कुमार अपनी बहन का हाथ थामें यज्ञभूमि में चला आया है। उस कुमार के माथे पर किरीट था, शरीर पर कवच और हाथों में खड्ग, बाण और धनुष था।

पुरोहित याज ने शंख बजा कर उच्च स्वर में घोषणा की – यह राजकुमार पांचालों के भय को दूर करने वाला और उनके यश की वृद्धि करने वाला होगा। इसका पृथ्वी पर आगमन द्रोणाचार्य के वध के लिए हुआ है। इस राजकुमार का नाम धृष्टद्युम्न होगा।

याज ने राजकुमार के साथ आई कन्या के विषय में कहा – इस कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखों वाली श्यामा बालिका के केश घने और शरीर सुंदर है, इसका नाम मैं श्रीकृष्ण के नाम के अनुरूप कृष्णा रखता हूँ। यह राजकुमारी पृथ्वी पर क्षत्रियों का संहार सुनिश्चित करने के लिए प्रकट हुई है। यह देवताओं का कार्य सिद्ध करेगी और कौरवों का विनाश।

याज ने आगे कहा – राजन, यह जुड़वाँ संतानें अग्निदेव ने आपको दी हैं। आपकी पत्नी की अनुपस्थिति में स्वयं अग्निदेव ने अपनी संतानों को आपके अभीष्ट के लिए यहाँ भेज दिया है। ये संताने अयोनिज होते हुए भी आपको पिता रूप में स्वीकार करेंगी।

राजा द्रुपद ने आगे बढ़ कर धृष्टद्युम्न को गले से लगा लिया। पुत्री की ओर देखा भी नहीं। कृष्णा उस समय, भाई का हाथ थामें पीछे खड़ी थी।

इन क्षणों में, पृथ्वी पर अवतरित होते ही कृष्णा ने जान लिया कि वह अवांछित रूप से राजा द्रुपद के घर आ गई है। राजा को तो मात्र उस पुत्र की आवश्यकता थी जो आचार्य द्रोण का वध कर सके। कृष्णा ने सोचा कि उसे अब भाई धृष्टद्युम्न की छाया बन कर रहना होगा। पृथ्वी पर आना किसी के वश में नहीं है, यह तो नियति चक्र का एक पड़ाव है।

यद्यपि पृथ्वी पर अवतरण इन दोनों संतानों का एक साथ ही हुआ था फिर भी उस समय कृष्णा लगभग चौदह वर्ष की और धृष्टद्युम्न लगभग सोलह वर्ष के थे। महाराज द्रुपद का परिवार बहुत बड़ा था और उनकी अन्य संतानें, इन दो नई संतानों के आगमन पर यदि रुष्ट नहीं थीं तो प्रसन्न भी नहीं थीं। इन दोनों को कुछ महीने अपनी अतिथिशाला में रख कर महाराज ने धृष्टद्युम्न और कृष्णा के लिए अपने प्रासाद के निकट ही एक नया प्रासाद बनवा दिया था।

राजा द्रुपद और उनकी पत्नी कभी-कभी इन दोनों संतानों से मिलने इस नए प्रासाद में आया करते थे किंतु इन्हें मुख्य राज प्रासाद में नहीं बुलाया जाता था क्योंकि यह मान लिया गया था कि बाल्यावस्था विहीन होने के कारण ये दोनों पारिवारिक  सम्बंधों का मर्म नहीं समझ पाएँगे। एक सीमा तक यह सत्य भी था।

कृष्णा को अब कई नामों से पुकारा जाने लगा था। धर्म, दर्शन और नीति की शिक्षा देने वाले अध्यापक उसे याज्ञसेनी कहते थे अर्थात जो यज्ञ के माध्यम से उत्पन्न हुई। सभी सम्बंधी और राजा के मित्रगण उसे द्रुपद पुत्री होने कारण द्रौपदी के नाम से पुकारते थे। आदर, सम्मान देते प्रजाजन इस किशोरी को पंचाल की राजकुमारी होने के कारण पांचाली कहने लगे। भाई धृष्टद्युम्न कभी–कभी चिढ़ाने के लिए श्याम वर्णा होने कारण उसे श्यामा भी कह देता था।

द्रुपदराज, धृष्टद्युम्न का और अपना भाग्य जानने के लिए देश भर के विख्यात ज्योतिषियों को काम्पिल्य में आतिथ्य देते थे। सभी जानते हैं, जो व्यक्ति जितना अधिक असुरक्षित होता है उतना ही अधिक भविष्य जानने का मोह रखता है।

धृष्टद्युम्न का भाग्य बताने वाले ज्योतिषी अक्सर कृष्णा का भाग्य भी बताने लगते थे। एक तपस्वी साधु ने तो कृष्णा के कई जन्मों का लेखा-जोखा महाराज को सुना दिया था। उस साधु ने बताया कि राजपुत्री द्रौपदी श्यामला (धर्म की पत्नी), भारती (वायु की पत्नी), शचि (इंद्र की पत्नी), उषा (अश्विनीकी पत्नी) और पार्वती (शिव जी की पत्नी) का सम्मिश्रित अवतार हैं। इस जन्म से पूर्व वह निषाद कुल के सम्राट नल और उनकी पत्नी दमयंती की अति सुंदरी पुत्री थी। दुर्भाग्य के कारण ही उसे यह जन्म लेना पड़ा है।

कृष्णा ने उस साधु से अनुरोध किया कि वह जानना चाहती है कि पूर्व जन्म में दुर्भाग्य की स्थिति क्या थी? राजा द्रुपद की इस विस्तार में रुचि नहीं थी फिर भी, कृष्णा की इच्छा को देखते हुए वह उस साधु को रोक नहीं सके।

साधु ने कहा – सम्राट नल बहुत द्यूत प्रेमी शासक थे। कई बार वह द्यूत में अपना राज्य तक हार जाते थे और अरण्य में वास करने लगते थे। उनकी पत्नी दमयंती अलौकिक सुंदरी, त्याग और शुचिता की प्रतिमूर्ति थी। दमयंती के गर्भ से एक नलयानी नाम की पुत्री उत्पन्न हुई जो युवावस्था में अत्यंत लावण्यमयी और कमनीय दृष्टिगोचर होती थी। उस समय द्यूत की विपदा के कारण राजा नल वनवास में जीवन व्यतीत कर रहे थे। दमयंती को पुत्री नलयानी के विवाह की चिंता थी। वन क्षेत्र में नलयानी किसी हंसिनी की तरह विचरण किया करती थी।

एक दिन नलयानी को ऋषि मौद्गल्य ने वन में विचरण करते हुए देखा। मौद्गल्य वृद्ध और कुष्ठ रोगी थे। नलयानी को देख कर वह मोहित हो गए और राजा नल के पास जाकर, उनसे आग्रह किया कि वह अपनी पुत्री का परिणय उन के साथ कर दें। दमयंती ने इसका विरोध किया किंतु राजा नल ने ऋषि शाप से बचने के लिए उस अल्हड़ युवती का हाथ, मौद्गल्य को सौंप दिया। नलयानी विवश होकर मौद्गल्य की पत्नी बन गयीं। अपनी काम-पीड़ा का शमन करने के लिए वह ऋषि की सेवा में प्राण-पण से जुट गयी।

कई वर्षों के बाद, सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि मौद्गल्य ने नलयानी से कहा कि मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहे वर माँग लो। नलयानी का यौवन धधक रहा था, उसने ऋषि से कहा कि मुझे कामसुख की अपेक्षा है, उसे प्रदान करें। ऋषि वचन से बँधे थे अतः वह हर रात्रि में युवक का शरीर धारण कर नलयानी की वासना को पूर्ण करने लगे। ऐसा लगभग एक वर्ष चला। उसके बाद ऋषि मौद्गल्य ने नलयानी से कहा कि यह प्रपंच मुझे असह्य हो चला है, अब मैं बहुत बूढ़ा हो चुका हूँ, मैं इस शरीर का त्याग करना चाहता हूँ, तुम मुझे अनुमति दो ताकि मैं अपने वचन से मुक्त हो सकूँ।

नलयानी ने कहा – नवयौवना पत्नी के होते हुए आपको शरीर त्यागने की क्या आवश्यकता है।अभी तो मुझे काम का सुख मिलने लगा है, आप मुझे इस आनंद से विरत नहीं कर सकते। आप में क्षमता है कि आप रात्रि में युवक बन कर जीवित रह सकते हैं। नलयानी के इस व्यवहार पर ऋषि मौद्गल्य कुपित हो गए और उन्होंने शाप देते हुए कहा – पापी स्त्री, तू इसी समय भस्म हो जा। अगले जन्म में तेरी वासना को पाँच पुरुष मिल कर ही शांत करेंगे। और उसी क्षण अग्नि ने इस कन्या के शरीर में नलयानी की आत्मा को प्रवेश देकर, याज्ञसेनी को पृथ्वी पर भेज दिया। इस घटना को सुनकर राजा द्रुपद खिन्न हो गए और कृष्णा विचित्र-से भावों में डूब गई।

याज्ञसेनी ने पहली बार अनुभव किया कि वह इस जन्म में भी स्त्री ही है!

अंश : उपन्यास ‘याज्ञसेनी’ से साभार , प्रकाशक : प्रलेक

About the author

राजेश्वर वशिष्ठ

श्री राजेश्वर वशिष्ठ जी आकाशवाणी मे उद्घोषक के पद पर कार्य के बाद,सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक से कार्यपालक के रूप मे सेवानिवृत । फिलहाल गुरुग्राम में रहते हुए स्वतंत्र लेखन। ‘मुट्ठी भर लड़ाई’(उपन्यास ), कविता देशान्तर-कनाडा(कविताओं का अनुवाद ), ‘सोनागाछी की मुस्कान’ (कविता संग्रह), ‘अगस्त्य के महानायक श्री राम’ (चरित्र काव्य), याज्ञसेनी:द्रौपदी की आत्मकथा (उपन्यास ), प्रेम का पंचतंत्र (लव नोट्स) के रूप मे अपना महती योगदान देने वाले श्री वशिष्ठ जी को सुनो वाल्मीकि के लिए ‘हरियाणा साहित्य अकादमी का श्रेष्ट काव्य संग्रह’ सम्मान-2015 एवं सलिला साहित्यरत्न सम्मान 2016, ऑरा साहित्य रत्न सम्मान 2018 प्राप्त हो चुकें हैं।

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