उपन्यास

सूरज का सातवां घोड़ा (उपन्यास-अंश)

डॉ. धर्मवीर भारती II

[‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ प्रख्यात कवि, कथाकार डॉ. धर्मवीर भारती का एक सफल प्रयोगात्मक उपन्यास है । इस उपन्यास में हमारे निम्न-मध्य वर्ग के जीवन का सही सही चित्रण है। यह सत्य है कि वह चित्र ‘प्रीतिकर या सुखद नहीं है; क्योंकि उस समाज का जीवन वैसा नहीं है और भारती ने यथाशक्य उसका सच्चा चित्र उतारना चाहा है। पर वह असुन्दर या अप्रीतिकर भी नहीं है, क्योंकि वह मृत नहीं है, न मृत्यु-पूजक ही है। उसमें दो चीजें हैं जो उसे इस खतरे से उबारती हैं- एक तो उसका हास्य, दूसरे एक अदम्य और निष्ठामयी आशा।’ उपन्यास की शैली अपने ढंग की अनूठी है। इस पुस्तक के माध्यम से हिन्दी में एक नयी कथाशैली का आविर्भाव हुआ। इसकी कथावस्तु कई कहानियों में गुम्फित है, किन्तु इसमें ‘एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है।’

प्रस्तुत है इसी उपन्यास से एक अंश साभार उपन्यास सूरज का सातवां घोड़ा (सत्वाधिकारी)
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ
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‘लेकिन मुल्ला भाई! एक बात मैं कहूँगा, अगर तुम बुरा न मानो तो- ” प्रकाश ने बात काटकर कहा, “ये कहानियाँ जो तुम कहते हो बिलकुल सीधे-सादे विवरण की भाँति होती हैं। उनमें कुछ कथाशिल्प, कुछ काट-छाँट, कुछ टेकनीक भी तो होना चाहिए!”

“टेकनीक! हाँ टेकनीक पर ज़्यादा ज़ोर वही देता है जो कहीं-न-कहीं अपरिपक्व होता है, जो अभ्यास कर रहा है, जिसे उचित माध्यम नहीं मिल पाया। लेकिन फिर भी टेकनीक पर ध्यान देना बहुत स्वस्थ प्रवृत्ति है बशर्ते वह अनुपात से अधिक न हो जाये। जहाँ तक मेरा सवाल है मुझे तो कहानी कहने के दृष्टिकोण से फ्लाबेयर और मोपासा बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि उनमें पाठक को अपने जादू में बाँध लेने की ताक़त है, वैसे उनके बाद चेख़व कहानी के क्षेत्र में विचित्र व्यक्ति रहा है और मैं उसका लोहा मानता हूँ। चेखव ने एक बार किसी महिला से कहा था, “कहानी कहना कठिन बात नहीं है। आप कोई चीज़ मेरे सामने रख दें, यह शीशे का गिलास, यह ऐश-ट्रे और कहें कि मैं इस पर कहानी कहूँ। थोड़ी देर में मेरी कल्पना जागृत हो जाएगी और उससे सम्बद्ध कितने लोगों के जीवन मुझे याद आ जाएँगे और वह चीज़ कहानी का सुन्दर विषय बन जाएगी।”

मैंने अवसर का लाभ उठाते हुए फ़ौरन वह काले बेंटवाला चाकू ताख पर से उठाया और बीच में रखते हुए कहा, “अच्छा इसको सत्ती की कहानी का केन्द्र बिन्दु बनाइए!”

‘बनाइए!” माणिक मुल्ला गम्भीर होकर बोले, “यह तो उसकी कहानी का केन्द्र-बिन्दु है ही! जब मैं यह चाकू देखता हूँ तो कल्पना करता हूँ—इसके काले बेंट पर बहुत सुन्दर फूल की पाँखुरियों जैसे गुलाबी नाखूनों वाली लम्बी पतली उँगलियाँ आवेश से काँप रही हैं, एक चेहरा जो आवेश से आरक्त है, थोड़ी निराशा से नीला है और थोड़े डर से विवर्ण है! यह स्मृति चित्र है सत्ती का जब वह अन्तिम बार मुझे मिली थी और मैं आँख उठाकर उसकी ओर देख भी नहीं सका था। उसके हाथ में यही चाकू था।”

उसके बाद उन्होंने सत्ती की जो कहानी बतायी, उसे टेकनीक न निबाहकर मैं संक्षेप में बताए देता हूँ :

माणिक मुल्ला का कहना था कि वह लड़की अच्छी नहीं कही जा सकती थी क्योंकि उसके रहन-सहन में एक अजब-सी विलासिता झलकती थी, चाल-ढाल भी बहुत उद्दीप्त करनेवाली थी, वह हर आने-जानेवाले, परिचित-अपरिचित से बोलने-बतियाने के लिए उत्सुक रहती थी, गली में चलते-चलते गुनगुनाती रहती थी और अकारण ही लोगों की ओर देखकर मुसकरा दिया करती थी।

लेकिन माणिक मुल्ला का कहना था कि वह लड़की बुरी भी नहीं कही जा सकती थी क्योंकि उसके बारे में कोई वैसी अफ़वाह नहीं थी और सभी लोग अच्छी तरह जानते थे कि अगर कोई उसकी तरफ ऐसी-वैसी निगाह से देखता तो वह आँखें निकाल सकती है। उसकी कमर में एक काले बेंट का चाकू हमेशा रहा करता था।

लोगों का यह कहना था कि उसका चाचा, जिसके साथ वह रहती थी, रिश्ते में उसका कोई नहीं है, वह असल में फ़तेहपुर के पास के किसी गाँव का नाई है जो सफ़रमैना पल्टन में भरती होकर क्वेटा बलूचिस्तान की ओर गया था और वहाँ किसी गाँव के नेस्तनाबूद हो जाने के बाद यह तीन-चार बरस की लड़की उसे रोती हुई मिली थी जिसे वह उठा लाया और पालने पोसने लगा था। बहुत दिनों तक वह लड़की उधर ही रही, और अन्त में उसका एक हाथ कट जाने बाद उसे पेंशन मिल गयी और वह आकर यहीं रहने लगा। एक हाथ कट जाने से वह अपना पुश्तैनी पेशा तो नहीं कर सकता था, लेकिन उसने यहाँ आकर साबुनसाज़ी शुरू कर दी थी और चमन ठाकुर का पहिया छाप साबुन न सिर्फ़ मुहल्ले में, वरन चौक तक की दूकानों पर बेचा जाता था। चूँकि उसका एक हाथ कटा हुआ था, अतः सोलह-सत्रह साल की अनिन्द्य सुन्दरी सत्ती साबुन जमाती थी, उसके टुकड़े उसी काले बेंट के चाकू से काटती थी, उन्हें दूकानदारों के यहाँ पहुँचाती थी और हर पखवारे के अन्त में जाकर उसका दाम वसूल कर लाती थी। हर दूकानदार उसके सिर पर बँधे रंग-बिरंगे रूमाल, उसके बलूची कुरते, उसके चौड़े गरारे की ओर एक दबी निगाह डालता और दूसरे साबुनों के बजाय पहिया छाप साबुन दूकान पर रखता, ग्राहकों से उसकी सिफारिश करता और उसकी यह तमन्ना रहती कि कैसे सत्ती को पखवारे के अन्त में ज़्यादा-से ज़्यादा कलदार दे सके।

चमन ठाकुर कारखाने के बाहर खाट डालकर नारियल का हुक्का पीते रहते थे और सत्ती अन्दर काम करती थी। श्रम ने सत्ती के बदन में एक ऐसा गठन, चेहरे पर एक ऐसा तेज, बातों में एक ऐसा अदम्य आत्मविश्वास पैदा कर दिया था कि जब उसे माणिक मुल्ला ने देखा तो उनके मन में लिली का अभाव बहुत हद तक भर गया और सत्ती के व्यक्तित्व से मन्त्र-मुग्ध हो गये।

सत्ती से उनकी भेंट अजब ढंग से हुई। कारखाने के बाहर चमन और सत्ती मिलकर गंगा महाजन के यहाँ का देना-पावना जोड़ रहे थे। चमन ने जो कुछ पढ़ा-लिखा था वह भूल चुके थे, सत्ती ने थोड़ा पढ़ा था पर यह हिसाब काफ़ी जटिल था। उधर माणिक मुल्ला दही लेकर घर जा रहे थे कि दोनों को हिसाब पर झगड़ते देखा। सत्ती सिर झटकती थी तो उसके कानों के दोनों बुन्दे चमक उठते थे और हँसती थी तो मोती-से दाँत चमक जाते थे, मुड़ती थी तो कंचन-सा बदन झलमला उठता था और सिर झुकाती थी तो नागिन-सी अलकें झूल जाती थीं। अब अगर माणिक मुल्ला के क़दम धरती से चिपक ही गये तो इसमें माणिक मुल्ला का कौन क़सूर ?

इतने में चमन ठाकुर बोले, “जै राम जी की भइया!” और उनके कटे हुए दायें हाथ ने जुम्बिश और फिर लटक गया। सत्ती हँसकर बोली, “लो ज़रा हिसाब जोड़ दो माणिक बाबू!” और माणिक बाबू भाभी के लिए दही ले जाना भूलकर इतनी देर तक हिसाब लगाते रहे कि भाभी ने खूब डाँटा। लेकिन उस दिन से अक्सर उनके ज़िम्मे सत्ती का हिसाब जोड़ना आता रहा और गणितशास्त्र में एकाएक उनकी जैसी दिलचस्पी बढ़ गयी, उसे देखकर ताज्जुब होता था। 

माणिक मुल्ला की गिनती पता नहीं क्यों सत्ती अपने मित्रों में करने लगी। एक ऐसा मित्र जिस पर पूर्ण विश्वास किया जा सकता है। एक ऐसा  मित्र जिसे सभी साबुन के नुस्खे निस्सन्देह बताए जा सकते थे। जिसके बारे में पूरा भरोसा था कि वह साबुन के नुसखों को दूसरी कम्पनीवालों को नहीं बता देगा। जिस पर सारा हिसाब छोड़ा जा सकता था, जिससे यह भी सलाह ली जा सकती थी कि हरधन स्टोर्स को माल उधार दिया जा सकता है या नहीं। माणिक के आते ही सत्ती सारा काम छोड़कर उठ आती, दरी बिछा देती, जमे हुए साबुन के थाल ले आती और कमर से काला चाकू निकालकर साबुन की सलाखें काटती जाती और माणिक को दिनभर का सारा दुःख सुख बताती जाती। किस बनिये ने बेईमानी की, किसने सबसे ज़्यादा साबुन बेचा, कहाँ किराने की नयी दुकान खुली है, वगैरह।

माणिक मुल्ला उसके पास बैठकर एक अजब-सी बात महसूस करते थे। इस मेहनत करनेवाली स्वाधीन लड़की के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो न पढ़ी-लिखी भावुक लिली में था और न अनपढ़ी दमित मनवाली जमुना में था। इसमें सहज स्वस्थ ममता थी जो हमदर्दी चाहती थी, हमदर्दी देती थी। जिसकी मित्रता का अर्थ था एक दूसरे के दुःख-सुख, श्रम और उल्लास में हाथ बँटाना। उसमें कहीं से कोई गाँठ, कोई उलझन, कोई भय, कोई दमन, कोई कमज़ोरी नहीं थी, कोई बन्धन नहीं था। उसका मन खुली धूप की तरह स्वच्छ था। अगर उसे लिली की तरह थोड़ी शिक्षा भी मिली होती तो सोने में सुहागा होता। मगर फिर भी उसमें जो कुछ था वह माणिक मुल्ला को आकाश के सपनों में विहार करने की प्रेरणा नहीं देता था, न उन्हें विकृतियों की अँधेरी खाइयों में गिराता था। वह उन्हें धरती पर सहज मानवीय भावना से जीने की प्रेरणा देती थी। वह कुछ ऐसी भावनाएँ जगाती थी जो ऐसी ही कोई मित्र संगिनी जगा सकती थी जो स्वाधीन हो, जो साहसी हो, जो मध्यवर्ग की मर्यादाओं के शीशों के पीछे सजी हुई गुड़िया की तरह बेजान और खोखली न हो। जो सृजन और श्रम में सामाजिक जीवन में उचित भाग लेती हो, अपना उचित देय देती हो।

मेरा मतलब यह नहीं था कि माणिक मूल उसके पास बैठ कर यह सब चिन्तन किया करते थे। नहीं, यह सब तो उस परिस्थिति का मेरा अपना 

विश्लेषण है, वैसे माणिक मुल्ला को तो वह केवल बहुत अच्छी लगती थी और उन दिनों माणिक मुल्ला का मन पढ़ने में भी लगने लगा, काम करने में भी, और उनका वज़न भी बढ़ गया और उन्हें भूख भी खुलकर लगने लगी, वे कॉलेज के खेलों में भी हिस्सा लेने लगे।

माणिक मुल्ला ने ज़रा झेंपते हुए यह भी स्वीकार किया कि उनके मन में सत्ती के लिए बहुत आकर्षण जाग गया था और अक्सर सत्ती की हाथी दाँत-सी गरदन को चूमते हुए उसके लम्बे झूलते बुन्दों को देखकर उनके होठ काँपने लगते थे, और माथे की नसों में गरम ख़ून ज़ोर से दौड़ने लगता था। पर सारी मित्रता के बावजूद कभी सत्ती के व्यवहार में उसे जमुना-सी कोई बात नहीं दिखाई पड़ी। माणिक की निगाह जब उसके झूलते हुए बुन्दों पर पड़ती और उनका माथा गरम हो जाता, तभी उनकी निगाह सत्ती की कमर से झूलते हुए चाकू पर भी पड़ती और माथा फिर ठंडा हो जाता, क्योंकि सत्ती उन्हें बता चुकी थी कि एक बार एक बनिये ने साबुन की सलाखें रखवाते हुए कहा, “साबुन तो क्या मैं साबुनवाली को भी दुकान पर रख लूँ” तो सत्ती ने फ़ौरन चाकू खोलकर कहा, “मुझे अपनी दुकान पर रख और ये चाकू अपनी छाती में रख कमीने!” तो सेठ ने सत्ती के पाँव छूकर क़सम खायी कि वह तो मज़ाक कर रहा था, वरना वह तो अपनी पहली ही सेठानी नहीं रख पाया। वही दरबान के साथ चली गयी अब भला सत्ती को क्या रखेगा!

इसी घटना को याद कर माणिक मुल्ला कभी कुछ नहीं कहते थे, पर मन-ही-मन एक अव्यक्त करुण उदासी उनकी आत्मा पर छा गयी थी और उन दिनों वे कुछ कविताएँ भी लिखने लगे थे जो बहुत करुण विरहगीत होती थीं जिनमें कल्पना कर लेते थे कि सत्ती उनसे दूर कहीं चली गयी है और फिर वे सत्ती को विश्वास दिलाते थे कि प्रिये, तुम्हारे प्रणय का स्वप्न मेरे हृदय में पल रहा है और सदा पलता रहेगा। कभी-कभी वे बहुत व्याकुल होकर लिखते थे जिसका भावार्थ होता था कि मेघों की छाया में तो अब मुझसे तृषित नहीं रहा जाता, आदि-आदि। सारांश यह कि वे जो कुछ सत्ती से नहीं कह पाते थे उसे गीतों में बाँध डालते थे पर जब कभी सत्ती के सामने उन्होंने उसे गुनगुनाने का प्रयास किया तो सत्ती हँसते-हँसते लोट-पोट हो गयी और बोली, तुमने बन्ना सुना है? साँझी सुनी है? और तब वह मुहल्ले में गाये जानेवाले गीत इतनी दर्द भरी आवाज़ में गाती थी कि माणिक मुल्ला भावविभोर हो उठते थे और अपने गीत उन्हें कृत्रिम और शब्दाडम्बरपूर्ण लगने लगते थे। ऐसी थी सत्ती, सदैव निकट, सदैव दूर, अपने में एक स्वतन्त्र सत्ता, जिसके साथ माणिक मुल्ला के मन को सन्तोष भी मिलता था और आकुलता भी। कभी-कभी वे सोचते थे कि अपनी भावनाओं को पत्र के माध्यम से लिख डालें और वे कभी-कभी पत्र लिखते भी थे बहुत लम्बे-लम्बे और बहुत मधुर, यहाँ तक कि अगर वे बचे होते तो उनकी गणना नेपोलियन और सीज़र के प्रेम-पत्रों के साथ की जाती, मगर जब उसमें आत्मा की ज्योति’ ‘चाँद की राजकुमारी’ आदि वे लिख चुकते तो उन्हें ख़याल आता कि यह भाषा तो बेचारी सत्ती समझती नहीं, और जो भाषा उसकी समझ में आती थी उसका व्यवहार करने पर कमर में लटकनेवाले काले चाकू की तसवीर दिमाग़ में आ जाती थी। अतः उन्होंने वे सब ख़त फाड़ डाले।

उसी बीच में सत्ती की ममता माणिक के प्रति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गयी और जब-जब माणिक मुल्ला कहीं जाते, बाहर बैठा हुआ चमन ठाकुर अपना कटा हाथ हिलाकर इन्हें सलाम करता, हँसता और पीठ पीछे इन्हें बहुत खूनी निगाह से देखकर दाँत पीसता और पैर पटककर हुक्के के अंगारे कुरेदता। सत्ती माणिक के खाने-पीने, कपड़े-लत्ते, रहन-सहन में बहुत दिलचस्पी लेती और बाद में अपनी अड़ोसिन-पड़ोसिन से बतलाती कि माणिक बारहवें दरजे में पढ़ रहे हैं और इसके बाद बड़े लाट के दफ्तर में इन्हें नौकरी मिल जाएगी और हमेशा माणिक को याद दिलाती रहती थी कि पढ़ने में ढिलाई मत करना। 

फोटो- साभार गूगल
  • माणिक का यह हाल कि ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे। कविता-उविता तो ठीक है पर यह इल्लत माणिक कहाँ पालते! और फिर भइया ठहरे भइया और भाभी उनसे सात क़दम आगे। माणिक की सारी किस्मत बड़े पतले तागे पर झूल रही थी। पर आख़िर दिमाग़ माणिक मुल्ला का ठहरा। खेल ही तो गया। फ़ौरन बोले, “अच्छा बैठो सत्ती ! मैं अभी चलूँगा। तुम्हारे साथ चलूँगा।” और इधर पहुँचे भइया के पास। चुपचाप दो वाक्यों में सारी स्थिति बता दी।

पर एक बात अक्सर माणिक देखते थे कि सत्ती अब कुछ उदास-सी रहने लगी है और कोई ऐसी बात है जो यह माणिक से छिपाती है। माणिक ने बहुत पूछा पर उसने नहीं बताया। पर वह अक्सर चमन ठाकुर को झिड़क देती थी, राह में उसकी चिलम पड़ी रहती थी तो उसे ठोकर मार देती थी, खुद कभी हिसाब न करके उसके सामने कापी और वसूली के रुपये फेंक देती थी। चमन ठाकुर ने एक दिन माणिक से कहा कि मैं अगर इसे न लाकर पालता-पोसता तो इसे चील और गिद्ध नोच-नोचकर खा गये होते और यही जब माणिक ने सत्ती से कहा तो वह बोली, “चील और गिद्ध खा गये होते तो वह अच्छा होता बजाय इसके कि यह राक्षस उसे नोचे खाये!” माणिक ने सशंकित होकर पूछा तो वह बहुत झल्लाकर बोली, “यह मेरा चाचा बनता है। इसीलिए पाल-पोसकर बड़ा किया था। इसकी निगाह में खोट आ गया है। पर मैं डरती नहीं। यह चाकू मेरे पास हमेशा रहता है।” और उसके बाद उन्होंने सत्ती को पहली बार रोते देखा और वह अनाथ, मेहनती और निराश्रित लड़की फूट-फूटकर रोयी और उन्हें कई घटनाएँ बतायीं। यह बात सुनकर माणिक मुल्ला को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हुआ पर वे बहुत व्यथित हुए और यह जानकर कि ऐसा भी हो सकता है उनके मन पर बहुत धक्का लगा। उस दिन शाम को उनसे खाना नहीं खाया गया और यह सोचकर उनकी आँख में आँसू भी आ गये कि यह ज़िन्दगी इतनी गन्दी और विकृत क्यों है।

उसके बाद उन्होंने देखा कि सत्ती और चमन ठाकुर में कटुता बढ़ती ही गयी, साबुन का रोज़गार भी ठंडा होता गया और अक्सर माणिक के जाने पर सत्ती रोती हुई मिलती और चमन ठाकुर चीखते-गरजते हुए मिलते। वे रिटायर्ड सोल्जर थे अतः कहते थे- शूट कर दूँगा तुझे। संगीन से दो टुकड़े कर दूँगा। तूने समझा क्या है? आदि-आदि।

सत्ती के चेहरे पर थोड़ी खुशी उस दिन आयी जिस दिन उसे मालूम हुआ कि माणिक बारहवाँ दरजा पास हो गये हैं। उसने उस दिन महीनों बाद पहली बार चमन ठाकुर से जाकर दो रुपये माँगे, एक की मिठाई मँगायी और दूसरे के फूल-बताशे चंडी के चौतरे पर चढ़ा आयी। पर उस दिन माणिक आये ही नहीं। जिस दिन माणिक आये उस दिन उसे यह जानकर बड़ी निराशा हुई कि माणिक नौकरी नहीं करेंगे, बल्कि पढ़ेंगे, हालाँकि भैया भाभी ने साफ़ मना कर दिया है कि अब ज़माना बुरा है और वे माणिक का खर्चा नहीं उठा सकते। सत्ती की राय भैया-भाभी के साथ थी; क्योंकि वह अपनी आँख से माणिक को बड़े लाट के दफ्तर में देखना चाहती थी, पर जब उसने माणिक की इच्छा पढ़ने की देखी तो कहा, “उदास मत होओ। अगर मैं यहीं रही तो मैं दूंगी तुम्हें रुपये। अगर नहीं रही तो देखा जाएगा।”

माणिक मुल्ला घबराकर पूछा कि “कहाँ जाओगी तुम?” तो सत्ती ने एक और बात बतायी जिससे माणिक स्तब्ध रह गये।

महेसर दलाल, यानी जमुनावाले तन्ना का पिता, अक्सर आया करता था और चूँकि दलाल होने के नाते उसकी सुनारों और सर्राफों से काफ़ी जान पहचान थी अतः वह गिलट के कड़े और पायल पर पॉलिश कराकर और चाँदी के गहनों पर नक़ली सुनहरा पानी चढ़वाकर लाता था और सत्ती को देने की कोशिश करता था। जब माणिक मुल्ला ने पूछा कि चमन ठाकुर कुछ नहीं कहते तो बोली कि रोज़गार तो पहले ही चौपट हो चुका है, चमन गाँजा और दारू खूब पीता है। महेसर दलाल उसे रोज़ नये नोट लाकर देते हैं। रोज उसे अपने साथ ले जाते हैं। रात को वह पिये हुए आता है और ऐसी बातें बकता है कि सत्ती अपना दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लेती हैं और रात-भर डर के मारे उसे नींद नहीं आती। इतना कहकर वह रो पड़ी और बोली, सिवा माणिक के उसका अपना कोई नहीं है और माणिक भी उसे कोई रास्ता नहीं बताते।

माणिक उस दिन बहुत ही व्यथित हुए और उस दिन उन्होंने एक बहुत ही करुण कविता लिखी और उसे लेकर किसी स्थानीय पत्र में देने ही जा रहे थे कि रास्ते में सत्ती मिली। वह बहुत घबराई हुई थी और रोते-रोते उसकी आँखें सूज आयी थीं। उसने माणिक को रोककर कहा, “तुम मेरे यहाँ मत आना। चमन ठाकुर तुम्हारा क़त्ल करने पर उतारू है। चौबीसों घंटे नशे में धुत रहता है। तुम्हें मेरी माँग की कसम है। तुम फ़िकर न करना। मेरे पास चाकू रहता है और फिर कोई मौका पड़ा तो तुम तो हो ही जानते हो, वह बूढ़ा पोपला महेसरा मुझसे ब्याह करने को कह रहा है!”

माणिक का मन बहुत आकुल रहा। कई बार उन्होंने चाहा कि सत्ती की ओर जाएँ पर सच बात है कि नशेबाज़ चमन का क्या ठिकाना, एक ही हाथ है पर सिपाही का हाथ ठहरा।

इस बीच में एक बात और हुई। यह सारा क़िस्सा माणिक मुल्ला के नाम के साथ बहुत नमक-मिर्च के साथ फैल गया और मुहल्ले की कई बूढ़ियों  ने आकर बीजा छीलते हुए माणिक की भाभी को कहानी बतायी और ताकीद की कि उसका ब्याह कर देना चाहिए, कई ने तो अपने नातेदारों की सुन्दर सुशील लड़कियाँ तक बतायीं। भाभी ने थोड़ी अपनी तरफ से भी जोड़कर भइया से पूरा क्रिस्सा बताया और भइया ने दूसरे दिन माणिक को बुलाकर समझाया कि उन्हें माणिक पर पूरा विश्वास है, लेकिन माणिक अब बच्चे नहीं हैं, उन्हें दुनिया को देखकर चलना चाहिए। इन छोटे लोगों को मुँह लगाने से कोई फायदा नहीं। ये सब बहुत गन्दे और कमीने किस्म के होते हैं। माणिक के ख़ानदान का इतना नाम है। माणिक अपने भइया के स्नेह पर बहुत रोये और उन्होंने वायदा किया कि अब वे इन लोगों से नहीं घुले मिलेंगे।

दो-तीन बार सत्ती आयी पर माणिक मुल्ला अपने घर से बाहर नहीं निकले और कहला दिया कि नहीं हैं। माणिक अक्सर जमुना के यहाँ जाया करते थे और एक दिन जमुना के दरवाज़े पर सत्ती मिली। माणिक कुछ नहीं बोले तो सत्ती रोकर बोली, “नसीब रूठ गया तो तुमने भी साथ छोड़ दिया। क्या ग़लती हो गयी मुझसे?” माणिक ने घबराकर चारों ओर देखा। भइया के दफ्तर से लौटने का वक़्त हो गया था। सत्ती उनकी घबराहट समझ गयी, क्षण-भर उनकी ओर बड़ी अजब निगाह से देखती रही फिर बोली, “घबराओ न माणिक! हम जा रहे हैं।” और आँसू पोंछकर धीरे-धीरे चली गयी।

उन्हीं दिनों भाभी और माणिक के बीच अक्सर झगड़ा हुआ करता था क्योंकि भाभी-भइया साफ़ कह चुके थे कि माणिक को अब कहीं नौकरी कर लेनी चाहिए। पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं। पर माणिक पढ़ना चाहते थे। भाभी ने एक दिन जब बहुत जली-कटी सुनायी तो माणिक उदास होकर एक बाग़ में जाकर बरगद के नीचे बेंच पर बैठ गये और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए।

थोड़ी देर बाद उन्हें किसी ने पुकारा तो देखा सामने सत्ती। बिलकुल शान्त, मुरदे की तरह सफ़ेद चेहरा, भावहीन जड़ आँखें, आयी और आकर पाँवों के पास ज़मीन पर बैठ गयी और बोली, “आख़िर जो सब चाहते थे वह हो गया।”

माणिक के पूछने पर उसने बताया कि कल रात को चमन ठाकुर के साथ महेसर दलाल आया। दोनों बड़ी रात तक बैठकर शराब पीते रहे। सहसा महेसर से बहुत-से रुपयों की थैली लेकर चमन उठकर बाहर चला गया और महेसर आकर सत्ती से ऐसी बातें करने लगा जिसे सुनकर सत्ती का तन-बदन सुलगने लगा और सत्ती बाहर के दरवाज़े की ओर बढ़ी तो देखा चमन उसे बाहर से बन्द करके चला गया है। सत्ती ने फ़ौरन अपना चाकू निकाला और महेसर दलाल को एक धक्का दिया तो महेसर दलाल लुढ़क गये। एक तो बूढ़े दूसरे शराब में चूर और सत्ती जो चाकू लेकर उनकी गरदन पर चढ़ बैठी तो उनका सारा नशा काफूर हो गया और बोले, “मार डाल मुझे, मैं उफ़ न करूँगा। मैं तुझ पर हाथ न उठाऊँगा। लेकिन मैंने नक़द पाँच सौ रुपया दिया है। मैं बाल-बच्चेदार आदमी मर जाऊँगा।” और उसके बाद हिचकिया भर-भरकर रोने लगा और फिर उसने वह काग़ज दिखाया जिस पर चमन ठाकुर ने पाँच सौ पर उसके साथ सत्ती को भेजने की शर्त की थी और महेसर रोने लगा और सत्ती के जैसे किसी ने प्राण खींच लिये हों। महेसर के हाथ-पाँव फूल गये। फिर महेसर दलाल ने समझाया कि अब तो क़ानूनी  कार्रवाई हो गयी है। फिर महेसर दलाल सुख से रखेगा वग़ैरह-वगैरह-पर सत्ती जड़ मुरदे-सी पड़ी रही। उसे याद नहीं महेसर ने क्या कहा,उसे याद  नहीं क्या हुआ।

सत्ती चुपचाप नीची निगाह किये नखों से धरती खोदती रही और फिर माणिक की ओर देखकर बोली, “महेसर ने आज यह अँगूठी दी है।” माणिक ने हाथ में लेकर देखा तो मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, “असली है।” माणिक चुप हो रहे सत्ती ने थोड़ी देर बाद पूछा कि माणिक उदास क्यों हैं तो माणिक ने बताया कि भाभी से पढ़ाई के बारे में चख-चख हो गयी है तो सत्ती ने अँगूठी निकालकर फ़ौरन माणिक के हाथ रख दी  और कहा कि इससे वह फ़ीस जमा कर दे। आगे की बात सत्ती के हाथ में  छोड़ दे। माणिक ने इसे नहीं स्वीकार किया तो क्षण-भर सत्ती चुप रही फिर सहसा बोली, “मैं समझ गयी। अब तुम मुझसे कुछ नहीं लोगे। पर बताओ मैं क्या करूँ? मुझे कोई भी तो नहीं बताता। मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। मुझे कोई रास्ता बताओ? कोई रास्ता – तुम जो कहोगे—मैं हर तरह से तैयार हूँ।” और सचमुच सत्ती जो अब तक पत्थर की तरह निष्प्राण बैठी थी पाँव पकड़कर फूट-फूटकर रो पड़ी। माणिक घबराकर उठे पर उसने पाँवों पर सिर रख दिया और इतना रोयी इतना रोयी कि कुछ पूछो मत। पर माणिक ने कहा कि अब उन्हें देर हो रही है। तो वह चुपचाप उठी और चली गयी।

एक बार फिर वह मिली और माणिक उस दिन भी उदास थे क्योंकि जुलाई आ गयी थी और उनके दाख़िले का कुछ निश्चय ही नहीं हो पा रहा था। सत्ती ने बहुत इसरार करके माणिक को रुपये दिये ताकि उनका काम न रुके और फिर बहुत बिलख-बिलखकर रोयी और कहा कि उसकी ज़िन्दगी नरक हो गयी है। उसे कोई राह नहीं बताता। माणिक मुल्ला ने सान्त्वना का एक शब्द भी नहीं कहा, तो वह चुप हो गयी और पूछने लगी कि माणिक को उसकी बातें बुरी तो नहीं लगतीं क्योंकि माणिक के अलावा और कोई नहीं है जिससे वह अपना दुःख कह सके। और माणिक से न जाने क्यों वह कोई बात नहीं छिपा पाती है और उनसे कह देने पर उसका मन हल्का हो जाता है और उसे लगता है कि कम-से-कम एक आदमी ऐसा है जिसके आगे उसकी आत्मा निष्पाप और अकलुष है।

माणिक के सामने कोई रास्ता नहीं था और सच तो यह है कि भइया का कहना भी उन्हें ठीक लगता था कि माणिक का और इन लोगों का क्या मुकाबला, दोनों की सोसायटी अलग, मर्यादा अलग, पर माणिक मुल्ला सत्ती से कुछ कह भी नहीं पाते थे क्योंकि उन्हें पढ़ाई भी जारी रखनी थी, और इसी अंतरद्वयंद  के कारण उनके गीतों में गहन निराशा और कटुता आती जा रही थी।

और फिर एक रात एक अजब-सी घटना हुई। माणिक मुल्ला सो रहे थे कि सहसा किसी ने उन्हें जगाया और उन्होंने आँख खोली तो सामने देखा सत्ती! उसके हाथ में चाकू था, उसकी लम्बी-पतली गुलाबी उँगलियों में चाकू काँप रहा था, चेहरा आवेश से आरक्त, निराशा से नीला, डर से विवर्ण। उसकी बगल में एक छोटा-सा बैग था जिसमें गहने और रुपये भरे थे। सत्ती माणिक के पाँव पर गिर पड़ी और बोली, “किसी तरह चमन ठाकुर से छूटकर आयी हूँ। अब डूब मरूँगी पर वहाँ नहीं लौटूंगी। तुम कहीं ले चलो! कहीं! मैं काम करूँगी। मज़दूरी कर लूँगी। तुम्हारे भरोसे चली आयी हूँ।”

माणिक का यह हाल कि ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे। कविता-उविता तो ठीक है पर यह इल्लत माणिक कहाँ पालते! और फिर भइया ठहरे भइया और भाभी उनसे सात क़दम आगे। माणिक की सारी किस्मत बड़े पतले तागे पर झूल रही थी। पर आख़िर दिमाग़ माणिक मुल्ला का ठहरा। खेल ही तो गया। फ़ौरन बोले, “अच्छा बैठो सत्ती ! मैं अभी चलूँगा। तुम्हारे साथ चलूँगा।” और इधर पहुँचे भइया के पास। चुपचाप दो वाक्यों में सारी स्थिति बता दी। भइया बोले, “उसे बिठाओ, मैं चमन को बुला लाऊँ।” माणिक गये और सत्ती जितना इसरार करे जल्दी निकल चलने को कि कहीं महेसर दलाल या चमन ही न आ पहुँचे उतना माणिक किसी न-किसी बहाने टालते जाएँ और जब सत्ती ने चाकू चमकाकर कहा कि ‘अगर नहीं चलोगे तो आज या तो मेरी जान जाएगी या और किसी की” तो माणिक का रोम-रोम थर्रा उठा और मन-ही-मन माणिक भइया को स्मरण करने लगे । 

सत्ती उनसे पूछती रही, “कहाँ  चलोगे ? कहाँ ठहरोगे? कहाँ नौकरी दिलाओगे? मैं अकेली नहीं रहूँगी!” इतने में एक हाथ में लाठी लिये महेसर और एक में लालटेन लिये चमन ठाकुर आ पहुँचे ओर पीछे-पीछे भइया और भाभी। सत्ती देखते ही नागिन की तरह उछलकर कोने में चिपक गयी और क्षण-भर में ही स्थिति समझकर चाकू खोलकर माणिक की ओर लपकी, “दग़ाबाज़! कमीना!” पर भइया ने फ़ौरन माणिक को खींच लिया, महेसर ने सत्ती को दबोचा और भाभी चीख़कर भागीं।

उसके बाद कमरे में भयानक दृश्य रहा। सत्ती क़ाबू में ही न आती थी, पर जब चमन ठाकुर ने अपने एक ही फ़ौजी हाथ से पटरा उठाकर सत्ती को मारा तो वह बेहोश होकर गिर पड़ी। इसी अवस्था में सत्ती का चाकू वहीं छूट गया और उसके गहनों का बैग भी पता नहीं कहाँ गया। माणिक का अनुमान था कि भाभी ने उसे सुरक्षा के ख़याल से ले जाकर अपने सन्दूक़ में रख लिया था।

बेहोश सत्ती को भइया और महेसर उठाकर उसके घर पहुँचा आये और माणिक मुल्ला डर के मारे भइया के कमरे में सोये।

दूसरे दिन चमन ठाकुर के घर पर काफ़ी जमाव था क्योंकि घर खुला पड़ा था, सामान बिखरा पड़ा था, और चमन ठाकुर तथा सत्ती दोनों ग़ायब थे और बहुत सुबह उठकर जो बूढ़ियाँ गंगा नहाने जाती हैं उनका कहना था कि एक ताँगा इधर से गया था जिस पर कुछ सामान लदा था, चमन ठाकुर बैठा था और आगे की सीट पर सफ़ेद चादर से ढका कोई सो रहा था जैसे लाश हो।

लोगों का कहना था कि चमन और महेसर ने मिलकर रात को सत्ती का गला घोंट दिया।

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