उपन्यास

अरावली का मार्तण्ड (उपन्यास अंश-2)

प्रतापनारायणसिंह II

(यह उपन्यास महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित है। उनके साहस, धैर्य, वीरता और स्वातंत्र्य-प्रेम की स्तुति भारतीय जन-मानस पिछले साढ़े चार सौ वर्षों से निरंतर करता आया है। किन्तु सत्तावन वर्ष के जीवन-काल वाले राणा प्रताप से आम जनमानस का परिचय कुछ गिनी-चुनी घटनाओं जैसे हल्दीघाटी का युद्ध और अरावली की पहाड़ियों के बीच उनके संघर्षरत जीवन से जुड़ी कुछ जन-श्रुतियों तक ही सीमित है। आम लोगों को यह तक नहीं ज्ञात है कि उनका जन्म कहाँ हुआ था, कहाँ लालन-पालन हुआ, कहाँ राजतिलक हुआ, कहाँ उनकी राजधानी रही और कहाँ उनका देहावसान हुआ। इस उपन्यास में महाराणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को दर्शाया गया है।)

अरावली की गोद (१)

“वनवीर ने…चित्तौड़गढ़ के महल में…।“ माँ ने बताया। अब मुझे समझ में आ रहा था कि चित्तौड़गढ़ जाने की बात से ही पन्ना दादी’सा क्यों विचलित हो जाती हैं।
“वनवीर कौन था?”
“एक दुष्ट व्यक्ति, जो बिना अधिकार के ही चित्तौड़ का राजा बनना चाहता था…और कुछ समय के लिए बना भी।“
“लेकिन वह कैसे राजा हो सकता था माँ…दादो’सा के तो तीन ही पुत्र थे- राणा रतन सिंह, राणाविक्रमादित्य और दाजीराज।“
“तीन नहीं बल्कि चार पुत्र थे। इन तीनों लोगों से भी बड़े भोजराज थे। जिनकी पत्नी तुम्हारी भाभू’सा1 मीराबाई हैं।“
“भोजराज बाबो’सा2 को क्या हुआ था…वे तो राणा बने नहीं!”
“हाँ, वे राणा नहीं बने क्योंकि उनकी मृत्यु तुम्हारे दादो’सा के जीवन-काल में ही हो गई थी…विवाह के एक वर्ष बाद ही।“
“कैसे…?”
“एक युद्ध में…”
“अभी भाभू’सा मीराबाई कहाँ रहती हैं?”
“द्वारिका में।“
“वहाँ क्यों…यहाँ क्यों नहीं रहतीं? उनका घर तो यहाँ है।”
“वे भगवान श्रीकृष्ण की भक्त हैं इसलिए। वे उनके भजन लिखती और गाती हैं। उनका मन महल में नहीं लगता, वे मंदिर में ही रहना चाहती हैं।“
“मैं कभी उनसे मिलने जाऊँगा।“ मेरी बात सुनकर माँ ने मुस्करा दिया। फिर मैंने पूछा, “आप भी तो भगवान कृष्ण की पुजारिन हैं, लेकिन महल में ही रहती हैं।“
“हाँ…मैं भी श्रीकृष्ण की भक्त हूँ…लेकिन प्रत्येक स्त्री मीराबाई नहीं हो सकती।“ कहते हुए माँ गम्भीर हो गईं।

थोड़ी देर के लिए हम चुप हो गए। फिर मुझे अचानक याद आया और मैंने पूछा, “आप मुझे वनवीर के विषय में बता रही थीं। जब वनवीर हमारे दादो’सा का पुत्र था ही नहीं तो फिर वह कैसे राजगद्दी पर बैठ गया?”
“जैसा कि मैंने बताया कि ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का देहान्त पहले ही हो चुका था, अतः आपके दादो’सा की मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र रतन सिंह राणा बने…” माँने बताना आरम्भ किया, “किंतु तीन वर्ष में ही उनकी मृत्यु एक सम्बन्धी सूरजमल से आपसी विवाद में हो गई। उस समय तुम्हारे दाजीराज और उनके बड़े भाई विक्रमादित्य अपनी माँ कर्मवती के साथ रणथम्भोर के किले में रह रहे थे। वे दोनों लोग बहुत छोटे थे। विक्रमादित्य चौदह वर्ष के और तुम्हारे दाजीराज मात्र दस वर्ष के थे।“
“यानी कि राणा रतन सिंह की मृत्यु के बाद विक्रमादित्य राणा बने।“
“हाँ, लेकिन एक तो उनकी आयु कम थी और ऊपर से उनमें बचपना बहुतअधिक था। वे नहीं जानते थे कि राज्य छत्र और सिंहासन से नहीं बल्कि समर्पित और गुणी व्यक्तियों से चलता है। अचानक मिली अनपेक्षित शक्ति ने उनके मन में घमंड भर दिया और वे राज्य के सामन्तों का अपमान करने लगे। परिणाम यह हुआ कि अनेक सामन्त छोड़कर चले गए और कई उनसे रुष्ट रहने लगे। इस बीच राज्य पर आक्रमण भी होते रहे। फलस्वरूप राज्य की सामरिक शक्ति घटती गई और सब कुछ बिखरने लगा।“
“तो क्या उसी समय वनवीर ने आक्रमण करके राज्य पर अधिकार कर लिया था?”
“नहीं, उसे आक्रमण करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उसने तो कुछ रुष्ट सामन्तों और विक्रमादित्य के लोभी चापलूसों को अपनी ओर मिलाया और एक रात विक्रमादित्य की छल से हत्या कर दी। उसके बाद स्वयं को राजा घोषित कर दिया।“
“किंतु कैसे? राणा तो अपने महल में रहे होंगे। कोई सामान्य व्यक्ति उन तक कैसे पहुँच सकता था?
“वह कोई सामान्य व्यक्ति नहींथा…तुम्हारे दादो’सा के बड़े भाई पृथ्वीराज का दासी-पुत्र था। जब बाहरी आक्रमण और विक्रमादित्य के पिछले पाँच वर्षों के शासन की अव्यवस्था से राज्य बिखरने लगा तब अवसर देखकर वह चित्तौड़गढ़ आ गया। विक्रमादित्य से वहीं दुर्ग के अंदर रहने की अनुमति माँग ली।“
“इसका अर्थ यह हुआ कि महाराणा को उसके विषय में ज्ञात था, किंतु उसे पहचान नहीं सके।“
“हाँ उन्हें ज्ञात था…” माँ ने सिर हिलाते हुए कहा, “उनकी हत्या के कुछ समय बाद वह तुम्हारे दाजीराज को भी मारकर अपना राज्य निष्कंटक करना चाहता था।“
“फिर दाजीराज कैसे बचे?”
“पन्ना माँ’सा ने बचाया…“ माँ कुछ पलों के लिए रुकीं। उनके मुख पर मैंने भावनाओं की एक झुरझुरी सी देखी। स्वर में थोड़ा कम्पन्न था। मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि उनके मुख पर टिकी हुई थी। उन्होंने आगे कहा, “एक रात उन्हें अपनी किसी दासी के द्वारा पता चला कि वनवीर तुम्हारे दाजीराज को मारने के लिए उनके भवन की ओर आ रहा है। उन्होंने तुरंत ही अपने पुत्र चंदन को राजसी वस्त्र पहनाकर तुम्हारे दाजीराज की पलंग पर सुला दिया और उन्हें दूसरे कक्ष में छिपा दिया।“
“वनवीर ने चंदन को दाजीराज समझ कर मार दिया?”
“हाँ…वह भी पन्ना माँ’सा की आँखों के सामने ही।“ माँ का गला रुँध गया और आँखें भर आईं। मेरा पूरा शरीर सिहर उठा। कैसे कोई इतना बड़ा त्याग कर सकता है! मेरे मुँह से बस इतना ही निकला, “ओह…” मैंने कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद ली। मन थोड़ा संयत हुआ तो पूछा, “फिर…फिर क्या हुआ?”

तस्वीर : गूगल से साभार

“फिर वे तुम्हारे दाजीराज को लेकर किसी तरह कुछ विश्वासपात्रों की सहायता से चित्तौड़गढ़-दुर्ग से पलायन कर गईं।“
“जब उन्हें पहले ही पता चल गया था कि वनवीर दाजीराज को मारना चाहता है तो वे उन्हें और अपने पुत्र दोनों लोगों को लेकर क्यों नहीं किले से बाहर चली गईं।“
“यदि ऐसा करतीं तो दोनों के प्राण संकट में पड़ जाते। क्योंकि तब वनवीर किसी को न पाकर तुरंत उनकी खोज करवाता। किंतु चंदन को मारकर वह आश्वस्त हो गया कि उसने सिसौदिया वंश को समाप्त कर दिया है। अतः पन्ना माँ’सा आसानी से दुर्ग से बाहर निकलने में सफल हो सकीं।“
पन्ना दादी’सा ने जो किया था वह अविश्वसनीय था। मेरे मन में बार-बार प्रश्न उठ रहा था। मैंने पूछा, “माँ’सा उन्होंने ऐसा क्यों किया? राजा के पुत्र को बचाने के लिए अपने पुत्र का बलिदान दे दिया!“
“चित्तौड़ के दूसरे शाके के समय तुम्हारी दादी’सा ने अपने दोनों पुत्रों को उन्हें सौंपा था और उन्होंने वचन दिया था कि वे उनकी रक्षा करेंगी।“
“यह शाका क्या होता है?”
“अपने प्राणों का उत्सर्ग करने को शाका कहते हैं।“
“समझा नहीं…”
“बाहरी आक्रमणकारी यवन बहुत ही क्रूर और आततायी होते हैं। जब वे युद्ध जीत जाते हैं तो राजपरिवार की स्त्रियों के साथ बलात्कार करते हैं और उनको दासी बना लेते हैं। उनका जीवन नर्क से भी अधिक कष्टकारी हो जाता है। इसलिए हारने की आशंका होने पर अपने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु राजपूत स्त्रियाँ सामूहिक रूप से अग्निकुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग देती हैं। जिसे जौहर कहा जाता है और पुरुष केसरिया पगड़ी बाँधकर अपने जीवन का अंतिम युद्ध करते हैं, किंतु आत्म समर्पण नहीं करते। एक साथ दोनों के प्राणों के उत्सर्ग को शाका कहते हैं।“
“क्या यवनों को स्त्रियों पर अत्याचार करते हुए पाप का डर नहीं लगता? क्या ऐसा करने से उनका धर्म उन्हें नहीं रोकता?
“नहीं…उल्टा वे धर्म के नाम पर ही ऐसा करते हैं। उनका मानना है कि मात्र उनके धर्म वालों को ही सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है और जो लोग अन्य धर्मों को मानते हैं वे उनके दास बनकर अपमानपूर्ण जीवन जीने के अधिकारी हैं। हमारे देश में जहाँ-जहाँ यवनों के राज्य हैं, वहाँ मंदिर तक नहीं बनाए जा सकते।“
“आपने एक बार बताया था कि इस समय यवनों का राज्य बहुत बड़ा है और वे बहुत शक्तिशाली भी हैं।”
“हाँ, भारत के बड़े भाग पर इस समय उनका अधिकार है। पूरे उत्तर और पूर्व भारत में उनका ही राज्य है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भागों पर भी है।“
“ये लोग वास्तव में हैं कौन…कहाँ से आये?”
“इनमें अधिकांश अरब, तुर्क और अफगान हैं। जो कि पश्चिम और उत्तर के देशों से यहाँ आए।“
माँ की बातों से मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। कोई मनुष्य इस तरह का कैसे हो सकता है!…और कोई धर्म दूसरों पर अत्याचार करने को कैसे कह सकता है! धर्म तो अन्याय और अत्याचार के विरोध का नाम है। मैंने आगे पूछा, “दादी’सा ने जौहर किया था?”
“हाँ, विक्रमादित्य के गद्दी पर बैठने के तीन वर्ष बाद गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने आक्रमण कर दिया। सामन्तों की सलाह पर विक्रमादित्य और तुम्हारे दाजीराज को छोटे होने के कारण उनके ननिहाल बूँदी भेज दिया गया और सामन्त बाघ सिंह को सेनापति बनाया गया। उनके नेतृत्व में राजपूतों ने केसरिया किया और शत्रु की सेना के साथ लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। जब दुर्ग पर यवनों का अधिकार होने लगा तो तुम्हारी दादी’सा के नेतृत्व में सैकड़ों स्त्रियों ने अग्निकुंड में कूदकर जौहर किया।“
उफ्फ्फ…कितना हृदयविदारक रहा होगा! मैंने आगे पूछा-“जब चित्तौड़ दुर्ग पर बहादुर शाह का अधिकार हो गया था तो फिर से वह राणा विक्रमादित्य के अधिकार में कैसे आया?“
“कुछ ही समय बाद दिल्ली के शासक हुमायूँ ने बहादुरशाह के राज्य पर आक्रमण करके उसे हरा दिया। उसी समय इधर मेवाड़ के सामन्तों ने राजपूतों को इकट्ठा करके चित्तौड़ में रह रही बहादुरशाह की सेना पर चढ़ाई कर दी और उसे राज्य से बाहर खदेड़ दिया। फिर राणा विक्रमादित्य को बूँदी से वापस लाकर मेवाड़ की गद्दी पर बिठा दिया।“
अब सारी बातें मुझे स्पष्ट हो चुकी थीं। किंतु मुख्य बात अभी शेष थी। मैंने माँ से आगे पूछा- “जब पन्ना दादी सा चित्तौड़ से दाजीराज को लेकर निकलीं तो फिर क्या हुआ?”
“किले से निकलकर पन्ना माँ’सा आश्रय के लिए देवलिये पहुँचीं। वहाँ रावत राय सिंह ने उनका सत्कार तो बहुत किया लेकिन वनवीर के डर से शरण देने से मना कर दिया। फिर वे डूंगरपुर के रावल आसकरण के पास गईं। उनका व्यवहार भी वैसा ही रहा। उन्होंने भी उनके लिए राह-खर्च और घोड़े का प्रबंध करके विदा कर दिया।“
“फिर…” मेरे मन में उत्सुकता बढ़ गई थी।
“डूंगरपुर से वे यहाँ कुम्भलगढ़ आईं।“
“यहाँ देपुरा काको’सा ने उन्हें रहने दिया…है न?”
“हाँ…”
“सच में देपुरा काको’सा का हम पर बड़ा उपकार है…और पन्ना दादी’सा का ऋण तो हमारी कई पीढ़ियाँ भी मिलकर नहीं चुका पाएँगी।“ पन्ना दादी’सा की वचन-बद्धता और स्वामिभक्ति के लिए मेरे मन में अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई।
“हाँ कुँअर’सा, आपने सही कहा।“
“फिर दाजीराज महाराणा कैसे बने?”
“विक्रमादित्य और चंदन को मारने के बाद वनवीर ने चारों ओर घोषणा करवा दी कि संग्राम सिंह का वंश पूरी तरह समाप्त हो चुका है और अब वही चित्तौड़ का महाराणा है। उसके पक्ष में विक्रमादित्य से रुष्ट हुए कई सामन्त थे। किंतु शीघ्र ही सामन्तों को अपनी गलती का भान हो गया कि वनवीर एक अयोग्य और क्रूर व्यक्ति है। वह सदैव आशंकित रहता कि जिस तरह उसने विश्वासघात से राज्य प्राप्त किया था, उसी तरह उसके साथ भी न हो जाए। इसलिए वह मात्र संदेह के आधार पर लोगों को कठोर दण्ड देने लगा। दण्ड पाने वालों में कुछ सामन्तों के परिजन भी थे। उसके इस व्यवहार से लोगों में भय व्याप्त हो गया और सामन्त उससे रुष्ट रहने लगे।“
“सामन्तों ने उसे अपदस्थ नहीं किया?”
“नहीं…क्योंकि एक तो अभी भी सोलंखी रामा और मल्ला जैसे कुछ सामन्त उसके पक्ष में थे। दूसरे, सामन्तों के सामने वनवीर का कोई विकल्प नहीं था। यदि उसको अपदस्थ करते भी तो गद्दी पर किसे बिठाते, यह एक बड़ा प्रश्न था। इसी कारण सभी सामन्त एकमत नहीं हो पाए।“
“हूँ…फिर आगे क्या हुआ?”
“इधर कुम्भलगढ़ में कुछ समय रहने के बादपन्ना माँ’सा ने आपके दाजीराज के जीवित होने का समाचार उनके ननिहालबूँदी भिजवा दिया और साथ ही राणा संग्राम सिंह को समर्पित अनेक विश्वासपात्र सामन्तों को भी कुम्भलगढ़ आने की सूचना भेज दी। जिनमें प्रमुख थे राव भारमल्ल, हाड़ा सुल्तान, रावत जगमाल, रावत साहिबखान, रावत राय सिंह, रावत साईंदास चूण्डावत, रावत जग्गा चूण्डावत, रावत सांगा चूण्डावत, डोडिया राव सांडा, राव अक्षयराज इत्यादि। इन सभी सामन्तों ने आपके दाजीराज का साथ दिया और इसी कुम्भलगढ़ दुर्ग में वनवीर पर आक्रमण करने की योजना बनाई गई।“
“उस समय आप यहाँ थीं…?
“हाँ…सामन्तों ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए पिताजी के पास मुझसे महाराणा के विवाह का प्रस्ताव भेजा। पहले तो उन्हें हिचकिचाहट हुई क्योंकि वनवीर ने सब जगह यह बात फैला दी थी कि आपके दाजीराज की हत्या उसने स्वयं की थी। किंतु जब उनके ननिहाल वालों तथा अन्य सामन्तों ने उनकी थाली में खाना खाकर आश्वस्त किया कि वे महाराणा सांगा के ही पुत्र हैं तो पिताजी मान गये।“
“यानी कि दाजीराज ने आपसे विवाह के बाद वनवीर पर आक्रमण किया था।“
“हाँ…एक वर्ष बाद। जिस दिन आपका जन्म हुआ, उसी दिन उन्होंने चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की थी।“ कहते हुए माँ का मुख खिल उठा।
“हमलोग चित्तौड़ क्यों नहीं गए?”
“आपके दाजीराज की व्यस्तता के कारण। उस समय पूरा राज्य बिखरा हुआ था। सामन्तों की जागीरें जो वनवीर ने छीन ली थी, उन्हेंपुनः आवंटित करना था। मेवाड़ की सैन्यशक्ति को पुनर्गठित करना था। राजव्यवस्था को फिर से सही करना था। आपके दादो’सा की मृत्यु के बाद से ही मेवाड़ अस्थिर हो गया था। इसके अतिरिक्त, मुझे भी यहाँ रहना अधिक अच्छा लगता है।“
माँ के इस उत्तर से मैं संतुष्ट नहीं हो सका, फिर भी चुप रहा।

क्रमशः

साभार ‘अरावली का मार्तण्ड’ ,प्रकाशक: डायमंड पब्लिकेशन


  1. भाभू’सा- बड़ी माँ, ताई जी
  2. बाबो’सा- बड़े पिता, ताऊ जी

About the author

प्रताप नारायण सिंह

प्रताप नारायण सिंह उन प्रतिभाशाली लेखकों में से हैं जिनकी पहली ही पुस्तक “सीता: एक नारी” को 'हिंदी संस्थान', उत्तर प्रदेश द्वारा “जयशंकर प्रसाद पुरस्कार" जैसा प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किया गया। साथ ही पुस्तक लोकप्रिय भी रही। तदनंतर उनका उपन्यास “धनंजय" प्रकाशित हुआ, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष की अवधि के अंदर ही उसका दूसरा संस्करण 'डायमंड बुक्स' के द्वारा प्रकाशित किया गया। इस बीच उनका एक काव्य संग्रह "बस इतना ही करना" और एक कहानी संग्रह राम रचि राखा" भी प्रकाशित हुआ। “राम रचि राखा" की अनेक कहानियाँ कई पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित हो चुकी थीं। उनका नवीनतम उपन्यास 'अरावली का मार्तण्ड'डायमंड बुक्स के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।

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