कविता काव्य कौमुदी

धूमिल की कविता ‘सार्वजनिक जिंदगी’

तस्वीर : गूगल से साभार

सुदामा पांडे ‘धूमिल’ II

मैं होटल के तौलिया की तरह
सार्वजनिक हो गया हूं
क्या खूब, खाओ और पोंछो,
ज़रा सोचो,
यह भी क्या जिंदगी है
जो हमेशा दूसरों के
जूठ से गीली रहती है।
कटे हुए पंजे की तरह
घूमते हैं अधनंगे बच्चे
गलियों में गोलियां खेलते हैं
मगर अव्वल यह कि
देश के नक्शे की लकीरें
इन पर निर्भर हैं
और दोयम यह कि
न सही मुझसे सही
आदमी होने की उम्मीद
मगर आज़ादी ने
मुझे यह तो सिखलाया है
कि इश्तहार कहां चिपकाना है
और पेशाब कहां करना है
और इसी तरह खाली हाथ
वक़्त-बेवक्त मतदान करते हुए
हारे हुओं को हींकते हुए
सफलों का सम्मान करते हुए
मुझे एक जनतान्त्रिक मौत मरना है।

* कवि धूमिल को पढ़ना यानी मनुष्यता को समृद्ध करना है।
उनकी ज्यादातर कविताएं लोकतंत्र और मानवीयता की ओर कदम
बढ़ाने की आश्वस्ति हैं। रोटी और संसद उनकी मशहूर कविता है।
उनके काव्य संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ को आज भी याद किया जाता है।
धूमिल इतने सादगी संपन्न थे कि जब ब्रेन ट्यूमर के कारण उनकी मौत
हुई तो रेडियो पर उनके निधन की खबर से परिजनों को पता चला
कि वे देश के कितने बड़े कवि थे। उन्हें मरणोपरांत 1979 में साहित्य
अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

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Ashrut Purva

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