उपन्यास

याज्ञसेनी- उपन्यास अंश-2

राजेश्वर वशिष्ठ II

[महाभारत में याज्ञसेनी या द्रौपदी एक केन्द्रीय पात्र है। इस काव्य का सारा कथाक्रम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी पात्र के इर्द-गिर्द घूमता है। इस पात्र को केंद्र में रख कर अनेक भारतीय भाषाओं में बहुत सारा साहित्य रचा गया है। राजेश्वर वशिष्ठ के उपन्यास ‘याज्ञसेनी’ की एक-एक कड़ी को पढ़ना किसी सम्मोहन से गुजरना है। इस विलक्षण उपन्यास की याज्ञसेनी पौराणिक चरित्र होते हुए भी स्त्री अस्मिता की युगों से चली आ रही लड़ाई को समय सापेक्ष धैर्य, विवेक और वीरता से लड़ती है। इस उपन्यास का कथाक्रम प्रबुद्ध, जुझारू और धरती से जुड़ी एक स्त्री का पितृ-सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था से सीधा संघर्ष है, जो आज तक चला आ रहा है। यह कृति भारतीय समाज की प्रत्येक स्त्री को सामाजिक चेतना और नए जीवन-मूल्य देगी।]

धृष्टद्युम्न के गुरुग्राम जाने के पश्चात कृष्णा की औपचारिक शिक्षा को भी आरम्भ कर दिया गया। गुरु सत्यमूर्ति ने उसके लिए चार आचार्य नियुक्त कर दिए थे। कृष्णा विलक्षण बुद्धिमति थी, यह अल्प समय में ही सिद्ध हो गया था। नृत्य, संगीत, काव्य, चित्रकला और भारतीय दर्शन की शिक्षा में उसे विशेष आनंद आता था। कई बार तो वह अपनी अभिव्यक्ति में इतने सुंदर और शास्त्रीय मानकों पर रचे गए छंदों का प्रयोग करती थी कि आचार्य चकित रह जाते थे।

काम्पिल्य उन दिनों श्रेष्ठ ऋषियों और ज्ञानियों के आगमन का महत्वपूर्ण केंद्र था। जब-जब विद्वानों के मध्य शास्त्रार्थ का आयोजन होता, कृष्णा की उपस्थिति अनिवार्य-सी होती थी। उसकी इस रुचि को देख कर महाराज दंग रह जाते थे और द्रुपद की अन्य रानियाँ कटाक्ष करते हुए कहा करती थीं – कृष्णा जिस राजवंश में वधू बन कर जाएगी, वहाँ शास्त्रार्थ ही हुआ करेगा!

कृष्णा दिन भर अपने आचार्यों के साथ विभिन्न विषयों का अध्ययन करती रहती थी। उसने अतिरिक्त प्रयास करके राज्य प्रबंधन, स्थापत्य और पाक-कला जैसे विषयों का ज्ञान अर्जन भी आरम्भ कर दिया था। साप्ताहिक रूप से वह सामरिक कलाओं की शिक्षा भी ग्रहण करने लगी ताकि युद्ध की स्थिति में स्वयं की ही नहीं अन्य पीड़ितों की रक्षा भी कर सके।

कृष्णा मानवीय स्तर पर बहुत अधिक संवेदनशील थी। नित्य भोजन ग्रहण करने से पूर्व वह प्रासाद के सेवकों के परिवारों के बच्चों को बुला कर अपनी देख-रेख में भोजन करवाती थी। धाय माँ अक्सर कहा करती थीं कि उन्होंने कृष्णा जैसे स्वभाव और दृष्टि वाली किसी अन्य राजकुमारी के विषय में आज तक नहीं सुना है। तुम्हें देख कर तो मैं त्रेता युग में उत्पन्न हुईं, माँ सीता की कल्पना करने लगती हूँ।

उस दिन से कृष्णा के प्रासाद में महर्षि वाल्मीकि की रामायण की कथा आरम्भ हो गई। विद्वान धाय माँ, कृष्णा के एक-एक प्रश्न का उत्तर देती थीं, कठिनाई की स्थिति में स्वयं गुरु सत्यमूर्ति, समस्याओं का समाधान करते थे।

सीताजी के स्वयंवर का प्रकरण चल रहा था। शिव-धनुष को प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए एक चौकी पर रखा गया था। सभागार में अनेक वीर पुरुष उपस्थित थे। वहाँ श्रीराम भी थे। धाय माँ बहुत डूब कर वाल्मीकि रचित एक-एक श्लोक का अर्थ बता रही थीं। अचानक कृष्णा ने कहा – धाय माँ, आज इस कथा को यहीं विराम दे दीजिए, शेष कथा कल सुनेंगे। धाय माँ ने कृष्णा की आँखों में देखा और स्नेह से कहा – ठीक है पुत्री, आगे की कथा हम कल पढ़ेंगे।

उस रात सोने से पहले कृष्णा ने पूछा – धाय माँ, स्वयंवर में बहुत सारे वीर, लक्ष्य की पूर्ति की चुनौती स्वीकार कर, राजकुमारी को जीत कर ले जाने के लिए आ जाते हैं। और उन में से जो लक्ष्य को पूरा कर देता है, राजकुमारी को उसके साथ जाना पड़ता है, तब यह स्वयंवर कैसे हुआ? योग्य पुरुष, वृद्ध हो या राजकुमारी की पसंद का न हो तो क्या होगा?

चित्र: साभार Pinterest

धाय माँ ने कृष्णा के मनोविज्ञान को पढ़ लिया था। वह समझ रही थीं कि सीताजी के स्वयंवर के साथ-साथ, कृष्णा अपने स्वयंवर के विषय में ही सोच रही होगी। उसकी जिज्ञासा बहुत स्वाभाविक है और उसके मन की बातें जानने के बाद ही आगे की कथा पढ़ना उचित होगा।

उस रात सोने से पहले कृष्णा ने पूछा – धाय माँ, स्वयंवर में बहुत सारे वीर, लक्ष्य की पूर्ति की चुनौती स्वीकार कर, राजकुमारी को जीत कर ले जाने के लिए आ जाते हैं। और उन में से जो लक्ष्य को पूरा कर देता है, राजकुमारी को उसके साथ जाना पड़ता है, तब यह स्वयंवर कैसे हुआ? योग्य पुरुष, वृद्ध हो या राजकुमारी की पसंद का न हो तो क्या होगा?

धाय माँ को कृष्णा से इतने जटिल प्रश्न की अपेक्षा नहीं थी।

धाय माँ ने स्नेह से कृष्णा का मस्तक चूमते हुए कहा – तुमने अद्भुत प्रश्न पूछा है कृष्णा। यह प्रश्न तुम्हें स्वयंवर प्रथा का ही नहीं, हमारी सामाजिक व्यवस्था का मूल मंत्र भी समझा देगा। इस समाज में तो हमें जीवन पर्यंत ही रहना है।

कृष्णा, धर्माचार्यों के द्वारा बनाई गई व्यवस्थाओं के अंतर्गत अयोनिजा कन्याओं के स्वयंवर किसी कठिन बाधा के निवारण से जोड़ कर आयोजित करवाए जाने की प्रथा है। सीताजी के स्वयंवर में यह बाधा-लक्ष्य शिवजी का प्राचीन धनुष था। यह अच्छा हुआ कि उस धनुष को श्रीराम ने प्रत्यंचा चढ़ा कर भंग किया और सीताजी ने उनके गले में वर-माला पहना दी। कल्पना करो यदि इस धनुष को कोई अन्य राजा भंग कर देता तो क्या होता? निश्चित ही जनकसुता को उसके साथ ही विवाह करना पड़ता। निष्कर्षतः मैं कहना चाहूँगी, हमारी समस्त व्यवस्थाएँ, पुरुषवादी चिंतन का ही प्रश्रय करती हैं। इस चिंतन में कन्या के पिता का दम्भ है, वह चुनौती दे रहा है कि श्रेष्ठ पुरुष लक्ष्य को प्राप्त करे और मेरी कन्या को अपनी पत्नी बना कर ले जाए। यह प्रक्रिया स्वयंवर नहीं, श्रेष्ठ वर-चयन कहला सकती है। बहुत संभव है कि वह वीर पुरुष वृद्ध या अनेक पत्नियों का पति हो, तब भी वह कन्या उस व्यक्ति को वर-माला पहनाने को विवश होगी। बस इतनी ही स्वतंत्रता है स्त्री को हमारे समाज में, चाहे वह राज कन्या ही क्यों न हो!

धाय माँ से यह उत्तर सुन कर कृष्णा चिंतित हो गयी।

कुछ क्षण सोच कर उसने प्रश्न किया – तो, मेरा स्वयंवर भी इसी प्रक्रिया का पालन करेगा। फिर एक धनुष और एक लक्ष्य होगा और जो वीर उस लक्ष्य को प्राप्त करेगा, मुझे भी उस व्यक्ति को ही वर-माला पहनानी होगी।

हाँ, यह सत्य है। धाय माँ ने दृष्टि झुका कर कहा।

धाय माँ, फिर श्रीकृष्ण के उस आश्वासन का क्या होगा जो उन्होंने मुझे दिया है कि मेरा विवाह महाराज पांडु के पुत्र अर्जुन से होगा। यदि किसी अन्य धनुर्धर ने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया तो क्या मैं उससे विवाह करने के लिए विवश नहीं हो जाऊँगी?

क्या अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर कोई अन्य नहीं है पृथ्वी पर?

धाय माँ ने चिंतित होते हुए कहा – मैंने अन्य श्रेष्ठ धनुर्धरों के नाम सुने तो हैं। एक घटनाक्रम तो हस्तिनापुर के निकट मेरी आँखों के सामने ही हुआ था। उन दिनों मैं हस्तिनापुर के एक गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण कर रही थी।

कृष्णा की आँखों से नींद भाग गई थी। उसने आग्रह किया कि अब वह उस वृतांत को सुन कर ही सोएगी!

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Ashrut Purva

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