नरेन्द्र कोहली II
अमिताभ सोचता है, तो उसे लगता है कि उसके पश्चात् उनके जीवन में एक लंबा अवकाश है। उस अवकाश में वे लोग या तो नहीं मिले और कोई काम की बात, जो पूछनी हो या कहनी हो, पूछकर या कहकर अलग हो गए। अब कमरे से काम नहीं चल सकता था, इसलिए अमिताभ को मकान खोजना था। घर का सामान बनाना था। शादी के कार्ड छपवाने थे। वरी का सामान खरीदना था। बारात के जाने के लिए बस तथा अन्य चीजों का प्रबंध करना था। रिसेप्शन की पार्टी का प्रबंध करना था। फिर कार्ड बाँटने थे इत्यादि। इन कामों में बहुधा अनुराधा उसके साथ थी। पर ये सारे कार्य एक जड़ स्वप्नावस्था में हुए थे। उन्हें अमिताभ अपने जीवन का अंग कैसे मान लेता! वह तो एक और तरह का जीवन था, जिसमें अमिताभ अमिताभ नहीं था, अनुराधा अनुराधा नहीं थी। वे दो जड़ पुर्जे थे, जो एक संवेदनशून्य अवस्था में कुछ निर्दिष्ट कार्य करते रहे.
उन दिनों अमिताभ कितना जूझा था अपने आप से और अपने आसपास से। कितनी ही जगहों से रगड़ खा-खाकर वह घिस गया था। उसकी अपनी तीखी रेखाओं का कहीं पता नहीं था। लगता था, वह सारा का सारा भुरभुरा गया है। जहाँ कहीं किसी का हाथ लगता है, वहीं से तीखी रेखाएँ घिसने लगती हैं और वह गोल, भद्दा और सामान्य होता जा रहा है। उसका अपना व्यक्तित्व कहीं खो गया था। कई वर्षों से उसने अपने व्यक्तित्व के जिन तीखे कोनों का निर्माण किया था, वे सब समाप्त हो गए थे। इस भुरभुराने में कहीं उसके किसी अपने सगे का अनुरोध था और कहीं अनुराधा के सगों का। उन अनुरोधों का विरोध वह नहीं कर पाया था, क्योंकि वह किसी को नाराज नहीं करना चाहता था”
ब्राह्मणों की बताई गई शुभ तिथि में सेहरा बाँधकर घोड़ी पर सवार हो, रोशनी और बाजे-गाजे लेकर वह अनुराधा के द्वार पहुँचा था। मिलनियाँ हुईं, सेहरा पढ़ा गया, जयमाला हुई और फिर खाना-पीना।
फेरों पर बैठते हुए अमिताभ को लगा, विनीता आज अनुराधा के साथ कुछ अतिरिक्त रूप में जुड़ी हुई थी। वह एक क्षण के लिए भी उससे अलग नहीं हुई। जरा सा कपड़ा खिसकने पर, उसे ठीक कर देती थी। अनुराधा को जरा हिलने भी नहीं देती थी। फेरे बहुत जल्दी समाप्त हुए और अनुराधा को भीतर ले जाकर वरी में दी गई विदा की गुलाबी साड़ी में बाहर लाया गया।
घर लौटते हुए कार में साथ बैठी अनुराधा अमिताभ को नई सी अनुराधा लगी। वह तो कोई और थी, जिसको उससे कोई लगाव नहीं था। वह पास बैठा था और उसने नजर उठाकर देखा तक न था। वह धीरे-धीरे उसे समझाता रहा और अनुराधा रोती रही। यह अनुराधा कोई और होगी-यह नहीं हो सकती, जिसने खुले रूप से उसे स्वीकारा था और उसे अपना कहने में कभी भी संकोच नहीं किया था।
एकांत पाकर पुरानी अनुराधा लौटी। आँसू पोंछ डाले और मुसकराई। “यहाँ आने का बहुत दुःख हुआ, अनु!” अमिताभ बोला, “रास्ते भर रोती रहीं।”
“रोना आ गया!” अनुराधा संकुचित होती सी बोली, ” यहाँ आने का दुःख तो नहीं है। आज सवेरे से घर में भूचाल आया हुआ था। तुम नहीं जानते, अमि! वहाँ क्या हुआ!”
“क्या हुआ?”
“मैंने तुम्हारी दी हुई लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी में ही फेरे लिये हैं, ” अमि!” अनुराधा बहुत भावुक स्वर में बोली, “उस पर उन्होंने एक दूसरी साड़ी लपेट जरूर दी थी, जिसे विनीता हर क्षण हटने से रोकती रही। मैं तुम्हारे प्यार में लिपटी यहाँ आई हूँ एक वचन दोगे, अमि?”
“क्या?” अमिताभ हतप्रभ हुआ। आज की रात वह किसी वस्तु से इनकार नहीं कर सकता था।
“मैं जब न रहूँ, अमि! तो मुझे इस साड़ी में लपेटकर जलाना ‘अनु!” अमिताभ ने उसे अपने कंधे से लगा लिया, “आज ऐसी बातें न करो, अनु! मैं तुम्हारी भावना समझता हूँ।” अनुराधा काफी देर तक रोती रही और अमिताभ उसे समझाता रहा।
अमिताभ को याद नहीं कि वे लोग कब सोए। महीना भर पहाड़ों पर घूमते हुए कैसे निकल गया, अमिताभ को मालूम नहीं हुआ। वापस दिल्ली आने पर उसे अपने भीतर एक नया ठहराव सा लगा। वह संतुष्टि का भाव था। पहले की व्याकुलता कहीं खो गई थी।
अनुराधा नए घर, नए वातावरण में आई थी। उसकी उस पद की अपनी जिम्मेदारियाँ थीं। वह उनसे आच्छादित सी हो गई थी। उसे अकसर कहीं-न-कहीं यह बात चुभ जाया करती थी कि वह अनुराधा के रूप में कुछ नहीं है, जो कुछ है, अमिताभ की पत्नी के रूप में है। व्यक्तित्व का तिरोभाव उसे भला नहीं लगता था। पर जब कभी उसने स्वतंत्र व्यक्तित्व दिखाना चाहा, वह अमिताभ से टकरा गया।
उसने जीवन में पति को सहायक के रूप में चाहा था, जो उसके काम कर दिया करे। वह नहाने जाए तो उसके कपड़े अलमारी से निकाल दिया करे। वह बाहर जाने के लिए तैयार हो तो भागकर उसकी साड़ी इस्त्री करवा लाया करे। अलमारी से उसके गहनों का सेट निकाल दिया करे। जब वह काम पर चला जाया करें तो पीछे से उसके उतारे हुए रात के कपड़े सँभाल दिया करे। बिस्तर झाड़कर बेड-कवर बिछा दिया करे। ड्रेसिंग टेबल पर खुली पड़ी तेल की शीशी बंद कर ठीक जगह पर रख दिया करे। उसका पफ कंपेक्ट बॉक्स में डाल उसे बंद कर दिया करे। कंघी में से बाल निकालकर, कंघी को ब्रश कर उसे ब्रश में लगा दिया करे। उसके गीले तौलिए को बाहर तार पर सुखा दिया करे और बिस्तर के सिरहाने पड़े चाय के कप तथा पानी के गिलास को रसोई में पहुँचा दिया करे। जब वह काम से लौटकर आए तो नीचे खड़े स्कूटर-रिक्शा को पैसे दे आया करे और ऊपर आते ही उसके सामने पानी का गिलास, चाय का कप, कुछ फल इत्यादि काटकर रख दिया करे। सोने से पहले बिस्तर पर से बेड-कवर हटा दिया करे और जब वह सो जाए तो उसे चादर ओढ़ा दिया करे।
पर अमिताभ ऐसा नहीं था। शादी से पहले वह जैसा भी हो, पर अब वह उसका पति था और पत्नी का सहायक बनने की जगह, पत्नी को अपनी सहायिका बनाना चाहता था। जिन बातों की अपेक्षा उसे अमिताभ से थी- उसने देखा था, उन्हीं बातों की अपेक्षा अमिताभ उससे करता था।
और फिर उन्हीं दिनों अनुराधा की तबीयत खराब रहने लगी थी। वह कुछ भी खा नहीं पा रही थी। जो खाती, उल्टी कर देती। हाथों-पैरों की सूजन बढ़ती जा रही थी। ब्लड प्रेशर ऊँचा हो गया था। दो मिनट खड़ी रहती तो हाँफने लगती। स्वभाव से भी बहुत चिड़चिड़ी हो रही थी। छोटी सी बात पर लड़ पड़ती और फिर देर तक रोती रहती।
पिताजी का पत्र आया था कि अमिताभ, बहू को इन दिनों दिल्ली में न रखकर घर पर छोड़ जाए, ताकि उसकी देखभाल की जा सके। वह वहाँ अकेला है और उसे इस विषय में कोई अनुभव भी नहीं है। ऐसा न हो कि कोई गड़बड़ हो जाए।
पहले अमिताभ झिझका। वह अनुराधा के बिना रह सकेगा क्या? जब अनुराधा ने घर पर आने से मना किया था और रोज मिलने की संभावना कुछ कम हो गई थी तो उसका नर्वस ब्रेकडाउन होने लगा था। अब अनुराधा को कई महीनों के लिए छोड़ना पड़ेगा। पर साथ रहकर भी तो वे विशेष प्रसन्न नहीं थे। रोज ही कोई-न कोई झगड़ा हो जाता था। उसने अनुराधा से बात की। उसे लगा कि अनुराधा भी चले जाना ही पसंद करेगी।
अनुराधा कानपुर चली गई।
शुरू के दो-एक दिन वह बहुत खाली-खाली रहा। उसे कोई काम नहीं था।
विवाह के बाद उसने अपने सारे बाहरी सूत्र समेट लिये थे। अब कोई ऐसा स्थान नहीं था, जहाँ वह अपना समय काट सकता।
उसे लगा, वह एक विशेष प्रकार के जीवन का आदी हो गया है। सवेरे उठकर दफ्तर, दफ्तर के पश्चात् घर घर में पत्नी की उपस्थिति। घर का खाना। छुट्टियों में घर की झाड़-पोंछ। वह इतना पालतू हो चुका था कि उसके लिए बहुत देर तक बाहर रहना संभव नहीं था।
फिर उसका मानसिक तनाव बढ़ने लगा था। उसे लगा कि वह फिर उसी प्रकार खिंचा-तना रहने लगा है। फिर वह टची होता जा रहा है। दिल की धड़कन फिर उसके कानों में सुनाई पड़ने लगी है और उसकी छाती में जलन रहने लगी है। कहीं फिर उसका नर्वस ब्रेकडाउन तो नहीं हो रहा।
अनुराधा का सप्ताह में एक-आध पत्र आ जाता। वह डॉक्टर के पास गई थी। डॉक्टर ने क्या कहा था। उसके रक्त का फिर परीक्षण हुआ है। उसे बहुत सारी दवाइयाँ खानी पड़ रही हैं। वह दूध रोज पी रही है, अंडा खा रही है, फल खा रही है। ये अनुराधा के उसके नाम पत्र नहीं थे- ये तो एक पत्नी की पति को दी गई सूचनाएँ थीं।
वह भी तो अनुराधा को याद नहीं करता। उसे भी अपनी पत्नी का अभाव खटकता है, जिसके बिना उसकी बहुत सारी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती। यदि उसकी पत्नी अनुराधा न हो कोई और होती तो क्या कोई अंतर होता? तब भी वह उसे इतना ही प्यार करता। क्योंकि हर पति को अपनी पत्नी से प्रेम करना चाहिए। यह उसकी भावना नहीं-घरेलू सुख-शांति के लिए उसका कर्तव्य था। वह बहुत दुर्बल व्यक्ति था, जिसने साहस के अभाव को आदर्शों की ओट दे रखी थी। वह शारीरिक आवश्यकताओं के लिए कहीं और नहीं जा सकता था, इसलिए बार-बार उसे अपनी पत्नी की याद आती थी। और पत्नी की जरूरत पड़ती थी, इसलिए उससे वह प्रेम करता था। जिससे उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति होती थी, वह उसी से प्रेम तो करेगा.
तो क्या वह अनुराधा से प्रेम नहीं करता? या अनुराधा उससे प्रेम नहीं करती? यह क्या सामाजिक और शारीरिक आवश्यकताओं के कारण किया गया एक समझौता मात्र है? उसे अनुराधा न मिलती या अनुराधा को वह न मिलता तो क्या कोई अंतर न पड़ता? आज उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कहीं और से होने लगे तो क्या उसे अनुराधा की कोई आवश्यकता न रहेगी? या अनुराधा की ही आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से कहीं अन्यत्र होने लगे तो अनुराधा उससे प्रेम नहीं करेगी? फिर उस लाल बाॅर्डर वाली साड़ी का क्या होगा…
क्रमशः
साभार: ‘नरेन्द्र कोहली की लोकप्रिय कहानियां’ , प्रभात प्रकाशन
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