उपन्यास

‘अरावली का मार्तण्ड ‘ उपन्यास के अंश

(यह उपन्यास महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित है। उनके साहस, धैर्य, वीरता और स्वातंत्र्य-प्रेम की स्तुति भारतीय जन-मानस पिछले साढ़े चार सौ वर्षों से निरंतर करता आया है। किन्तु सत्तावन वर्ष के जीवन-काल वाले राणा प्रताप से आम जनमानस का परिचय कुछ गिनी-चुनी घटनाओं जैसे हल्दीघाटी का युद्ध और अरावली की पहाड़ियों के बीच उनके संघर्षरत जीवन से जुड़ी कुछ जन-श्रुतियों तक ही सीमित है। आम लोगों को यह तक नहीं ज्ञात है कि उनका जन्म कहाँ हुआ था, कहाँ लालन-पालन हुआ, कहाँ राजतिलक हुआ, कहाँ उनकी राजधानी रही और कहाँ उनका देहावसान हुआ। इस उपन्यास में महाराणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को दर्शाया गया है।)

प्रतापनारायणसिंह II

संधि प्रस्ताव

भगवंतदास के जाने के बाद हम यही सोच रहे थे कि अब वार्ता का क्रम समाप्त हो चुका है। हमारी सेना युद्धाभ्यास करने लगी किन्तु दो माह बाद ही सूचना प्राप्त हुई कि अकबर के वयोवृद्ध प्रधान मंत्री राजा टोडरमल मुझसे मिलना चाहते हैं। वे एक अत्यंत बुद्धिमान, सुलझे हुए, वाकपटु, कुशल प्रबंधक और शासन-नीति के मर्मज्ञ माने जाते थे। अकबर की उनके ऊपर विशेष कृपा थी।
महल के बाहर जब मैंने उनकी अगवानी की तो अभिवादन करते हुए वे उच्च स्वर में बोल पड़े, “मेवाड़ के स्वामी की जय हो।” उनके होठों पर एक मधुर मुस्कराहट थी।
“नहीं राजा जी, मेवाड़ का स्वामी मैं नहीं एकलिंगनाथ हैं। मैं तो उनका दीवाण मात्र हूँ।” मैंने हँसते हुए उत्तर दिया। हम लोग अतिथि कक्ष की ओर चल दिए। साथ में उनके दो मंत्री और हमारे कुछ सामन्त थे
“यह तो आपकी उनके प्रति श्रद्धा है…और देखा जाए तो यही शक्ति भी है। मेवाड़ के राजवंश को बप्पा रावल के समय से ही महादेव शक्ति प्रदान करते आए हैं
“हाँ, यह बात तो बिलकुल ठीक कही आपने। जो भी है उन्हीं का है
“आपके आतिथ्य-सत्कार और मधुर व्यवहार की चर्चा दिल्ली तक फैली हुई है। साथ ही आपके चातुर्य तथा प्रजा व पड़ोसियों पर प्रभाव की भी
“आशा करता हूँ कि आपके द्वारा की गई प्रशंसा में किसी और बात की भूमिका नहीं मिली होगी।” मैंने मुस्कराते हुए कहा
“नहीं बिलकुल भी नहीं।” उन्होंने हँसते हुए उत्तर दिया
“यह अच्छी बात है। आभारी हूँ आपका
हम लोग अतिथि कक्ष में पहुँच गए। सबने अपना-अपना आसन ग्रहण किया। अतिथियों को जलपान कराया गया। उसके बाद कुछ अनौपचारिक वार्ता हुई। जिसका केंद्र नवीन नगर उदयपुर और गोगुन्दा था
फिर उन्होंने कहा, “मुझे पहले की सारी बातें पता चलीं और आपको भेजे गए प्रस्ताव को भी मैंने देखा। उसमें कई बिंदुओं में हम आपकी इच्छानुसार संशोधन कर सकते हैं। किन्तु एक-दो आवश्यक शर्तें आपको भी स्वीकार करनी चाहिए
“वे शर्तें कौन सी हैं
“हालाँकि मैंने उसमें भी सुधार किया है।” उन्होंने भूमिका के साथ कहना आरम्भ किया, “मैंने बादशाह को समझाया कि इतने गौरवशाली राजवंश के महाराणा जिनके प्रति एक-एक प्रजाजन समर्पित है,उनसे प्रति वर्ष दिल्ली आने की अपेक्षा करना अनुचित होगा। अत: मैंने उन्हें इस बात पर मना लिया है कि आप मात्र एक बार दिल्ली चले चलें; दिल्ली न सही तो जब भी बादशाह शिकार खेलने आम्बेर या आपके राज्य के आस-पास आते हैं तो वहीं एक बार मिल लें। इसमें तो कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए
“सिर एक बार झुके या सौ बार, बात तो एक ही है राजा जी। दिल्ली दरबार में झुके या कहीं मार्ग में, उससे भी कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है। आपको उन्हें समझाना चाहिए था कि अपने राज्य विस्तार की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएँ।” मैंने मुस्कराते हुए कहा
“राज्य विस्तार सही है या गलत, यह एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है। किन्तु यह सत्य है कि प्रत्येक राजा राज्य विस्तार करता ही है। बादशाह कोई नया कार्य नहीं कर रहे हैं। अब प्रश्न यह है कि उनके विस्तार में सहायक बना जाए या अवरोध
“इस प्रश्न का उत्तर तो तभी दिया जा सकता है जब पहले यह तय हो कि सहायक बनना सही है या अवरोध बनना। विस्तार का उद्देश्य क्या है
“उद्देश्य तो स्पष्ट है, सभी राज्यों को संगठित करके एक शक्तिशाली संघीय साम्राज्य का निर्माण करना, जिससे कि पूरे देश की उन्नति हो सके।
“यदि यह उद्देश्य है तो आधिपत्य क्यों, सहकारिता क्यों नहीं? राज्य के आतंरिक विषयों में हस्तक्षेप क्यों, मात्र विदेश नीति तक ही सम्बन्ध क्यों नहीं? राज्यों का विलय क्यों, संगठन क्यों नहीं? आदेश क्यों, सर्वस्वीकृत दिशा निर्देश क्यों नहीं
“क्योंकि सबको समन्वित रखने के लिए एक केंद्रीय शक्ति का होना आवश्यक होता है। अन्यथा सब लोग अपने-अपने हिसाब से चलने लगेंगे
“किन्तु वह केंद्रीय शक्ति मात्र दिल्ली के शासक की ही क्यों होनी चाहिए? उसमें सभी राज्यों का प्रतिनिधित्व क्यों न हो
“दिल्ली दरबार में सभी राज्यों के प्रतिनिधि हैं
“वहाँ राज्यों के प्रतिनिधि आपके बादशाह के सेवक के रूप में हैं। उनका अधिकार अधिक से अधिक किसी विषय पर प्रार्थना करने तक ही सीमित है, किसी निर्णय को प्रभावित करने की वे क्षमता नहीं रखते हैं। इसे राज्य का प्रतिनिधित्व करना नहीं कहा जा सकता है
“ऐसा नहीं है, सबकी बात सुनी जाती है। बादशाह सबके हितों को ध्यान में रखकर ही निर्णय लेते हैं। दूसरी बात, यदि बादशाह अपनी शक्ति से देश को संचालित करना चाहते हैं तो आप भी तो मात्र सिसौदिया और गहलोत वंश के गौरव की रक्षा हेतु लड़ रहे हैं
“नहीं, मैं मात्र सिसौदिया वंश के लिए नहीं लड़ रहा हूँ, अपितु हर उस व्यक्ति के लिए लड़ रहा हूँ जो स्वतंत्रता और आत्मसम्मान से जीवन व्यतीत करना चाहता है।मेरे साथ राठौड़ भी हैं, चौहान भी हैं, डोडिया भी हैं, भील भी हैं और हकीम खाँ सूरी भी हैं। मैं ऐसे किसी भी संधि और संगठन के लिए तैयार हूँ, जिसमें हमारी स्वायत्तता बनी रहे। किन्तु उसके लिए क्या आपके बादशाह तैयार होंगे
“संगठन का संघीय स्वरुप तो पहले से ही तय है, आपको तो मात्र उसे स्वीकार करना है। अधिकांश लोग स्वेच्छया इसे स्वीकार कर रहे हैं। एक बात मैं आपको स्पष्ट करना चाहूँगा कि हमारी नीति में किसी भी राज्य के सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक जीवन में हस्तक्षेप करना नहीं है
देखिए बादशाह ने धार्मिक उदारता दिखाते हुए जजिया* कर तक समाप्त कर दिया। हम तो मात्र दिल्ली सल्तनत की साम्राज्यीय संघ के प्रति राज्यों की सत्यनिष्ठा, स्वयं को संघ का एक अंग मानना, विदेश नीति में सहयोग और थोड़ा सा खिराज चाहते हैं, जो कि व्यवस्था को चलाने के लिए आवश्यक होता है
“क्या मात्र एक जजिया कर हटा देना ही उदारता का प्रमाण है? वह राजनीतिक लक्ष्य-पूर्ति का एक साधन भी तो हो सकता है, क्योंकि आज दिल्ली सल्तनत के सहायकों में हिन्दुओं की एक बड़ी संख्या हो गई है। अभी तो कर को हटाए हुए समय हीकितना हुआ है! उसे भी लेकर उनके धर्म-गुरुओं का विरोध चल ही रहा है। क्या पता कब पुन: लगा दिया जाए
यदि यह मान भी लें कि अकबर के शासन काल में नहीं लगेगा तो उसके बाद जो गद्दी पर बैठेगा वह पुन: नहीं लगाएगा यह कैसे सुनिश्चित हो सकेगा? जिसे आप उदार बता रहे हैं उसने अपनी बादशाहत का आरम्भ युद्ध
बंदी हेमू की हत्या और गाजी1 की उपाधि धारण करके की थी। चित्तौड़गढ़ में उसके द्वारा किए गए नर-संहार के साक्षी आप भी रहे हैं
“तब उनकी आयु मात्र पच्चीस वर्ष थी। समय के साथ चीजें बदलती हैं। व्यक्ति के अंदर धीरे-धीरे परिपक्वता आती है। तब वह सहिष्णु और उदार होने लगता है
“यह उदारता है या मात्र राजनीतिक परिपक्वता, इसमें अंतर कर पाना बहुत कठिन है। जब तैमूर ने दिल्ली के चौराहों पर हिन्दुओं के कटे हुए सिरों की मीनारें बनवाई थीं तब वह पच्चीस वर्ष का अपरिपक्व युवा नहीं, बल्कि साठ वर्ष का गाजी था। आपके बादशाह का सम्बन्ध उसी वंश से है। वैसे भी राज्य-विस्तार के पीछे इनका मुख्य उद्देश्य क्या रहता है, इससे आप भी अनभिज्ञ नहीं हैं

फोटो- साभार गूगल

“वर्तमान पीढ़ी से उनके पूर्वजों के कृत्यों का लेखा-जोखा माँगना तो उचित नहीं है
“हाँ ठीक बात है, किंतु जिस तरह वर्तमान पीढ़ी से पूर्वजों के कृत्यों का लेखा-जोखा नहीं माँगा जा सकता, वैसे ही वर्तमान पीढ़ी के आधार पर आने वाली पीढि़यों के व्यवहार को भी सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। दिल्ली सल्तनत आज जितना अधिक शक्तिशाली बनेगा उसकी आने वाली पीढि़याँ उतनी ही अधिक निरंकुश होंगी
यदि एक पल को यह मान भी लें कि अकबर में परिवर्तन हुआ है तो भी इस बात से कैसे आश्वस्त हुआ जा सकता है कि उसकी आने वाली पीढि़याँ अपने पूर्वजों के उद्देश्य को आगे नहीं बढ़ाएगी? आज तो अकबर शक्ति संचय में लगा हुआ है इसलिए कुछ सीमा तक उदारता उसकी विवशता है, किन्तु जिसे एक बड़ा और शक्तिशाली साम्राज्य विरासत में मिलेगा उसके समक्ष उदार रहने की कोई विवशता नहीं होगी
“मुझे लग रहा है कि आप पिछली घटनाओं के प्रभाव से अभी बाहर नहीं निकल पाए हैं इसलिए आपको नकारात्मक पक्ष अधिक दिख रहा है।
“पहली बात तो यह कि इतिहास को भुलाना ठीक नहीं होता। दूसरी बात, यदि हम आज की ही घटनाओं को देखें तो आपके लाहौर के राज्यपाल ने हिन्दुओं के लिए अपनी बाँहों पर विभिन्न रंगों के पैबंद लगाने और घोड़ों पर सवारी न करने के नियम लगा रखे हैं। आपके राज्य में बलपूर्वक धर्मांतरण की घटनाएँ प्राय: प्रकाश में आती ही रहती हैं। दूसरे धर्मानुयायियों की बात तो दूर आपके राज्य के कट्टरपंथी तुर्कों ने मीर बख्शी, खिज्र खाँ, मिर्जा मुकीम और याकूब जैसे उदारवादी शियाओं तक को मार डाला
“लाहौर के उस नियम के विरुद्ध शाही आदेश भेजा जा चुका है, फिर भी
स्थानीय लोगों के दबाव में कुछ घटनाएँ प्रकाश में आ जाती हैं। शेष घटनाएँ व्यक्तिगत स्तर पर हुई हैं, उसमें प्रशासन की कोई मंशा नहीं थी
“जब आपके बादशाह के जीवन काल में ही उसके द्वारा लगाए गए धार्मिक उदारता के नियमों का पूर्णतया पालन नहीं हो पा रहा है तो उसके बाद क्या होगा! दूसरी बात, जिसे आप संघीय साम्राज्य बता रहे हैं उसका आधार वास्तव में निरंकुश सत्ता और स्वेच्छाचारी शासन है
मैंने आगे कहा, ”मुझे आश्चर्य होगा यदि आप यह कहेंगे कि दिल्ली दरबार में सेवारत राजपूत राजाओं के असहाय और अपमानजनक वास्तविकता से आप अवगत नहीं हैं। कौन सा ऐसा राजा है जिसे आपका बादशाह अपने राज्य विस्तार के लिए सामन्त बनाकर उसके राज्य से दूर सैनिक अभियानों में नहीं भेजता है? यहाँ तक कि आपको भी इस आयु में जाना पड़ता है। इसके अतिरक्त दिल्ली सल्तनत का सभी राज्यों के आंतरिक विषयों में हस्तक्षेप रहता है। क्या आप मुझे एक भी ऐसा राज्य बता सकते हैं जिसे सही रूप में आतंरिक स्वायत्तता प्राप्त हो
कुछ देर के लिए मौन छा गया। फिर मैंने आगे कहा, ”सत्य तो यह है कि सभी राजा आज दिल्ली सल्तनत के जागीरदार के रूप में कार्य कर रहे हैं
“आप ने तो एक दृढ़ मत पहले से ही बना रखा है।” उन्होंने एक फीकी हँसी हँसते हुए कहा
“यदि मेरे मत में कोई त्रुटि हो तो आप सुधार सकते हैं। एक बात मैं और कहना चाहूँगा कि जिन राजाओं को आप कह रहे हैं कि उन्होंने स्वेच्छया प्रसन्नतापूर्वक आपकी अधीनता स्वीकार की है, वे वास्तव में आपके कूटनीति के शिकार हुए हैं। उन्होंने अपने आतंरिक कलह, शक्तिहीनता और राज्य पर अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए विवश होकर वैसा किया
“आपने तो दिल्ली सल्तनत को पूरी तरह से कटघरे में खड़ा कर दिया?” उन्होंने हँसते हुए कहा, “देखिए, इतने बड़े राज्य और शासन व्यवस्था में कुछ अनियमितताएँ तो होती रहेंगी। व्यवस्था में निरंतर सुधार भी हो रहा है। हमें सकारात्मक होकर चीजों को देखना पड़ेगा
“सारा अंतर दृष्टिकोण का ही तो है। वास्तव में अकबर दोहरी नीति के साथ चल रहा है। एक ओर उसने हिंदू राजाओं को प्रसन्न करने के लिए उन्हें उच्च पददे रखा है तथा जजिया समाप्त कर दिया। दूसरी ओर तुर्कों को अंदर ही अंदर पूरी छूट मिली हुई है कि वे अपने धर्म के प्रसार हेतु कुछ भी करें। क्या कोई भी एक ऐसा उदाहरण हैजिसमें आपके बादशाह ने हिंदुओं पर अत्याचार करने वाले किसी भी तुर्क को कड़ा दण्ड दिया हो।
मेरी बात का उन्हें कोई उत्तर नहीं सूझा। उन्हें मौन देखकर मैंने आगे कहा, ”आप यह देखनहीं पा रहे हैं कि अपनी उच्च महात्वाकांक्षा के कारण आज अकबर यदि अपने गाजी स्वरूप से कुछ समझौते कर भी ले, तो भी उसकी आने वाली पीढि़याँ अपने धर्म का बल पूर्वक प्रचार करने तथा उसके नाम पर रक्त बहाने और अत्याचार करने में हिचकिचाएँगी नहीं
मेरी बात के बाद कुछ देर के लिए शांति छा गई। इस बीच सबके लिए पेय आया। टोडरमल विचार कर रहे थे कि किस तरह से प्रस्ताव को कार्यरूप में लाया जाए
कुछ देर बाद उन्होंने कहा, “इतने सत्य आपने उद्घाटित किए तो इस सत्य से भी आप अपरिचित नहीं होंगे कि बादशाह की शक्ति अतुलनीय है।” अंत में यह बात तो आनी ही थी। यदि प्रलोभन से काम नहीं बनता है तो भय दिखाना ही पड़ता है
“इस बात से तो आप भी सहमत होंगे कि इस धरती ने बहुत बड़ी-बड़ी शक्तियाँ देखी है। शक्तियों को उत्पन्न और नष्ट करते रहना इस सृष्टि का स्वभाव है
उन्होंने देखा कि उनके भय दिखाने का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है तो कुछ देर सोचकर पुन: बोले, ”मेरा तो कहना बस यही था कि हवा की गति के अनुसार ही वृक्षों को अपना व्यवहार रखना चाहिए
“हाँ सच कहा आपने…वृक्षों को, किन्तु दूसरी हवाओं को नहीं। हवाएँ अपनी गति अपने अनुसार रखती हैं
“ठीक है…फिर तो मुझे नहीं लगता कि अब आगे चर्चा के लिए कोई बिंदु शेष है।” उन्होंने एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा
“फिर चलिए, भोजन ग्रहण करते हैं। चर्चा में बहुत समय लग गया
भोजनोपरांत मैंने उन्हें रुकने को कहा तो बोले कि चित्तौड़गढ़ किले में रुकेंगे। उसका निरीक्षण भी करते जाना है। सायंकाल या रात के प्रथम प्रहर तक पहुँच जाएँगे
चलते समय बोले, “मैंने जितना आपके विषय में मैंने सुना था, आप उससे कहीं अधिक समर्थ हैं
“आपसे मिलकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। आपकी प्रसिद्धि चतुर्दिक है।” मैंने कहा
अंत में उन्होंने कहा, “इस विषय में मेरी अंतिम बात – यदि आप हमसे मिल जाते हैं तो सम्पूर्ण राजपूताना आपका होगा
मैंने मुस्करा भर दिया।

1.जजिया कर- मुसलमान शासकों द्वारा उनके राज्य में रहने वाले हिंदुओं पर यह कर लगाया जाता था। अकबर ने १५६४ में जजिया कर समाप्त किया। पुन: १५७५ में लगा दिया। फिर १५८० में समाप्त कर दिया। उसके बाद औरंगजेब ने १६७९ में फिर से लगा दिया

1.गाज़ी- अपने धर्म के लिए युद्ध करने वाला मुसलमान योद्धा

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प्रताप नारायण सिंह

प्रताप नारायण सिंह उन प्रतिभाशाली लेखकों में से हैं जिनकी पहली ही पुस्तक “सीता: एक नारी” को 'हिंदी संस्थान', उत्तर प्रदेश द्वारा “जयशंकर प्रसाद पुरस्कार" जैसा प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किया गया। साथ ही पुस्तक लोकप्रिय भी रही। तदनंतर उनका उपन्यास “धनंजय" प्रकाशित हुआ, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष की अवधि के अंदर ही उसका दूसरा संस्करण 'डायमंड बुक्स' के द्वारा प्रकाशित किया गया। इस बीच उनका एक काव्य संग्रह "बस इतना ही करना" और एक कहानी संग्रह राम रचि राखा" भी प्रकाशित हुआ। “राम रचि राखा" की अनेक कहानियाँ कई पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित हो चुकी थीं। उनका नवीनतम उपन्यास 'अरावली का मार्तण्ड'डायमंड बुक्स के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।

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