उपन्यास

अरावली का मार्तण्ड (उपन्यास अंश-1)

प्रताप नारायण सिंह II

(यह उपन्यास महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित है। उनके साहस, धैर्य, वीरता और स्वातंत्र्य-प्रेम की स्तुति भारतीय जन-मानस पिछले साढ़े चार सौ वर्षों से निरंतर करता आया है। किन्तु  सत्तावन वर्ष के जीवन-काल वाले राणा प्रताप से आम जनमानस का परिचय कुछ गिनी-चुनी घटनाओं जैसे हल्दीघाटी का युद्ध और अरावली की पहाड़ियों के बीच उनके संघर्षरत जीवन से जुड़ी कुछ जन-श्रुतियों तक ही सीमित है। आम लोगों को यह तक नहीं ज्ञात है कि उनका जन्म कहाँ हुआ था, कहाँ लालन-पालन हुआ, कहाँ राजतिलक हुआ, कहाँ उनकी राजधानी रही और कहाँ उनका देहावसान हुआ। इस उपन्यास में महाराणा प्रताप के सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को दर्शाया गया है।)

अरावली की गोद
(१)

“पाती* मिल गई…” गौरजा माता की मूर्ति से चिपके हुए पुष्प और जवारा के नीचे पाट पर गिरते ही देवरे* के पुजारी ने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए उच्च स्वर में घोषणा की।  

तत्क्षण “जय शिवशंकर”, “जय महादेव” और “जय गौरी माई” के घोष से पूरा मेरपुर गूँज उठा। कई नगाड़े एक साथ गड़गड़ाने लगे और उनके संग थालियाँ भी झनझना उठीं। ‘गवरी नृत्य’* के लिए सजे हुए भीलों का उत्साह चरम पर था। मुखिया सहित गाँव के अन्य लोग भी कितनी ही देर से दृष्टि गड़ाए प्रतीक्षारत थे कि कब माता की कृपा हो और पुष्प पाट पर गिरे।

“कुँअर सा! माता ने अनुमति दे दी है…अब आपकी आज्ञा हो तो खेल आरम्भ किया जाए।” मेरपुर के मुखिया दूदा ने विनम्रता से मुझसे पूछा। 

वे गवरी नृत्य के प्रमुख पात्र बूड़िया का मुखौटा लगाए हुए थे। उनके हाथ में लकड़ी का खड्ग और कमर पर घुँघरुओं की पट्टी बँधी हुई थी। उनके साथ गवरी के अन्य कलाकार भी मेरे आसन के पास एक घेरा बनाकर खड़े हो गए थे। उनके मुखों को मानव, दानव, पशु इत्यादि स्वांग के विभिन्न पात्रों जैसे राई, बणजारा-बणजारी, कालूकीर, खड़लिया भूत, हठिया, शेर, भालू इत्यादि  के अनुरूप सजाया गया था।

“अवश्य…आप लोग आरंभ करें।” मैंने कहा।

मेरी अनुमति मिलते ही गवरी नृत्य आरम्भ हो गया। सबसे पहले गणपति का खेल किया गया। झामट्या पात्र ने वागड़ी* भाषा में कविता बोलना आरम्भ किया। पहले देवताओं का आह्वान किया- 

पहेला सीमरू थाने गजानन देवता, 

रिदी-सिदी लेकर आवजो सतिस करोड़ देवी-देवता

खटकड़िया उसे दोहराने लगा। खटकड़िया ही स्वांग का सूत्रधार था। शीघ्र ही स्वांग मुझे रोचक लगने लगा। बीच-बीच में भीलों का सामूहिक नृत्य “घाई” किया जा रहा था। वह भी बहुत मनोरंजक लग रहा था। 

अरावली की पहाड़ियों से घिरा वह एक सुन्दर स्थान था। कल श्रावण पूर्णिमा के दिन वर्षा हो जाने से हवाएँ भी थोड़ी शीतल हो गई थीं।  

इस बीच कुछ युवा लड़कियाँ थाल में रखकर मेरे लिए जलपान ले आईं। उनके साथ लगभग मेरी ही आयु का एक लड़का भी था।  

“कुँअर’सा! आपके लिए शहद का पेय है।” लड़के ने विनम्रता से कहा।  

“तुम्हारा क्या नाम है ?” मैंने उससे पूछा। 

“पुंजा, हुकुम!” 

“किसके पुत्र  हो?” 

“गमेती* दूदा मेरा बापो* है।”  

“यानी कि तुम यहाँ के अगले गमेती और सरदार हो…” मैंने हँसते हुए कहा। उसने भी हँस दिया। बहुत ही सरल हँसी थी। 

“पुंजा! तुम्हारे बापो तो मुझे गवरी दिखा रहे हैं…क्या तुम्हारे पास भी कुछ है मुझे दिखाने के लिए?” मैंने यूँ ही अनायास पूछ लिया। 

“मेरे पास मेरा तीर-धनुष  है…और अचूक निशाना भी। मैंने कल ही 

नया धनुष बनवाया।” उसने अत्यंत आत्मविश्वास से उत्तर दिया।    

“ठीक है, मुझे दोपहर में विश्राम के समय दिखाना।” 

गणपति के बाद माता राणी का खेल हुआ और फिर राई- बुड़िया का। दोपहर घिर आई। गवरी रुक गई और खाना-पीना आरम्भ हो गया। सामूहिक भोज था। 

भोजन के बाद गवरी के सभी खेल्ये* विश्राम करने लगे। मैं भी अपने शिविर में आ गया। जिसे देवरे से थोड़ी ही दूरी पर बनाया गया था।  

“वह सब जानने के लिए आप अभी छोटे हैं।“ 

“मैं नौ वर्ष का हो चुका हूँ माँ’सा…ध्रुव ने पाँच वर्ष की आयु में ही घर त्याग कर तपस्या आरम्भ कर दी थी। जब लव-कुश ने राम जी का घोड़ा रोककर युद्ध किया था तब वे लगभग मेरी ही आयु के रहे होंगे…तो क्या आप समझती हैं कि आपके पुत्र और महान बप्पा रावल व संग्राम सिंह के वंशज का मन मात्र कुछ अप्रिय बातों को सुनकर विचलित हो जाएगा?” माँ अपलक मुझे निहार रही थीं।

फोटो: साभार गूगल 

“कुँअर’सा! अब वापस कुम्भलगढ़ चलते हैं। गवरी के शुभारम्भ का कार्य संपन्न हो चुका है।” आशा देपुरा ने कहा। 

वागड़ी- राजस्थान में भील-बाहुल्य क्षेत्र की भाषा।  

“काको’सा* ! मैं यहाँ कुछ दिन रुकना चाहता हूँ।” 

“रानी’सा ने संध्या तक लौट आने को कहा था। वे बाट जोहती होंगी।”

“आप एक सैनिक के द्वारा माँ’सा को संदेश भिजवा दीजिए कि हम कुछ दिन यहाँ रुकेंगे। यह भी कहलवा दीजिएगा कि वे मेरी चिंता न करें। अब मैं नौ वर्ष का हो चुका हूँ।” 

“ठीक है…जैसी आपकी इच्छा।” कहते हुए उन्होंने मुस्करा दिया। 

उनकी मुस्कराहट का अर्थ था कि आपकी बात तो ठीक है लेकिन माँ के मन को कौन समझाए। तीस कोस बैलगाड़ी हाँककर परसों जब यहाँ के मुखिया दूदा कुम्भलगढ़ अपने साथियों के साथ अनुरोध करने आए थे कि बहुत समय से गवरी में राजपरिवार का प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है; महाराणा तो चित्तौड़ में है, कम से कम कुँअर’सा ही आ जाएँ, तो माँ ने बहुत हिचकिचाते हुए मुझे आने की अनुमति दी थी। जब हम चलने लगे तो मुझसे अधिक निर्देश काको’सा को मिले थे। 

आशा देपुरा ने संदेश देकर एक दूत माँ के पास कुम्भलगढ़ भेज दिया। तभी पुंजा अपना धनुष और बाण लेकर शिविर में आया। 

“अहा! तुम्हारा धनुष तो अद्भुत है!“ पुंजा के धनुष की लकड़ी पर सुन्दर कलाकृति बनी हुई थी।  

“हाँ, इसे गढ़ने में बावल्या सुथार को पूरे सात दिन लगे थे।“ 

“सुथार ने तो अपनी कलाकारी दिखा दी है, अब तुम्हारी बारी है।“

“आप आदेश दें, किस पर निशाना लगाऊँ?” 

मैंने इधर-उधर देखा, पास के पेड़ पर एक बड़ी सी चिड़िया बैठी हुई थी। मैंने उसकी ओर संकेत कर दिया। पुंजा ने कान तक खींच कर बाण छोड़ा। बाण सीधा उसे जा लगा और वह फड़फड़ाकर नीचे आ गिरी। 

“अनर्थ हो गया…” उधर से जाता हुआ पुंजा का काका चिल्लाते हुए दौड़कर चिड़िया के पास गया और उसे उठा लिया। वह अभी जीवित थी। उसने बाण को चिड़िया के शरीर से बाहर निकाला और घाव को अँगूठे से दबा दिया। पुंजा के काका की चीख सुनकर आराम कर रहे खेल्ये और गमेती दूदा भी दौड़कर वहाँ आ गए। 

मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हुआ। क्यों एक चिड़िया के लिए 

वह इतनी जोर से चीखा। मैंने पुंजा की ओर देखा। उसका मुख भय से श्वेत हो गया था। 

“क्या हुआ?” मेरी प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर गड़ गई। 

तब तक पुंजा का काका और कुछ लोग चिड़िया को वहाँ से उपचार के लिए ले जा चुके थे। उसके पिता और कुछ खेल्ये हमारे पास आ गए। 

“पुंजा! तूने यह कैसा पाप कर दिया। अब गौरजा माता के कोप से तुझे कौन बचा पायेगा?” गमेती दूदा के स्वर में क्रोध और पीड़ा दोनों थी। 

“बापो! मुझे ध्यान नहीं रहा।“ पुंजा भी रुँआसा हो गया। 

अब तक मैं सब समझ चुका था। गवरी माह में उनके लिए किसी भी जीवधारी को मारना पाप था और उनका ऐसा मानना था कि मारने वाले को देवी माँ दण्ड देती हैं। 

“काको’सा! आप चिंता न करें, पुंजा ने बाण मेरे कहने से चलाया था। यदि देवी माँ दण्ड देंगी तो मुझे देंगी। पुंजा का कोई दोष नहीं है।“ मेरी बातों से दूदा के माथे की चिंता की रेखाएँ कुछ कम हुईं। मैंने आगे कहा, “मुझे ज्ञात नहीं था, आप सब से क्षमा माँगता हूँ। देवरे में चल कर मैं देवी माँ से स्वयं के लिए दण्ड और पुंजा के लिए क्षमादान की याचना करूँगा।“ 

 “आप मेवाड़ के स्वामी हैं…और हमारे लिए देव-तुल्य…हमसे क्षमा माँगकर हमें पाप का भागी न बनाएँ।“ दूदा की आँखें छलछला गईं। 

मैंने आगे बढ़कर उन्हें गले लगा लिया और कहा, “मेवाड़ के स्वामी तो एकलिंगनाथ* हैं काको’सा…हम तो यदि उनके दीवाण बन सकें तो भी हमारा सौभाग्य होगा। चलिए देवरे चलते हैं।“ 

देवरे पर आकर मैंने माँ गौरजा से पुंजा के लिए क्षमा-याचना की और स्वयं के लिए दण्ड माँगा। एक अच्छी बात यह हुई कि चिड़िया मरी नहीं। इससे लोगों को यह भी आश्वस्ति हो गई कि माता का कोप नहीं बरसेगा। अतः कुछ देर बाद सब कुछ सामान्य हो गया और गवरी पुनः आरम्भ कर दी गई। खेल्ये पूर्ववत उल्लसित होकर स्वांग करने लगे। 

( 2 )

रात में भोजनोपरांत सोने का उपक्रम होने लगा। मैंने अपनी शय्या शिविर से बाहर खुले आकाश के नीचे लगाने को कहा। कल वर्षा हुई थी किंतु आज आकाश पूरी तरह से खुला हुआ था। तारे टिमटिमा रहे थे। मेरे ही पास आशा देपुरा की शय्या भी लगाई गई। 

“काको’सा! आपको गवरी के रिवाजों के बारे में पता है?” मैंने पूछा। 

 “हाँ…जीवन भर इनके सम्पर्क में रहा हूँ।“ 

“मुझे भी बताइए…आखेट की मनाही के अतिरिक्त और क्या विशेष रहता है इस माह में?” 

“एक तो जैसा कि आपने ध्यान दिया होगा, दोपहर के खाने में कोई भी हरी सब्जी नहीं थी। खेल्ये पूरे चालीस दिनों तक आखेट, मांस-मदिरा और हरी साग-सब्जी के सेवन का त्याग करते हैं। स्नान भी नहीं करते और नंगे पैर ही रहते हैं। एक बार गवरी के लिए जो घर से निकले तो चालीस दिनों के बाद ही घर में प्रवेश करते हैं।“ 

“यह तो तपस्या की तरह हो गया।“

“हाँ प्रत्येक आराधना एक तपस्या ही होती है। सब लोग अलग-अलग विधियों से अपनी आराधना करते हैं। सबका उद्देश्य तो एक ही होता है।“ 

आशा देपुरा बचपन से मेरी देखभाल कर रहे थे। माँ को उनके ऊपर अटूट विश्वास था। चलते समय माँ ने उनसे कहा था-“जिस तरह महाराणा को शरण देकर आपने उनकी रक्षा की थी, उसी तरह कुँवर पर भी सदैव अपनी छत्रछाया रखिएगा।“ 

“रानी’सा आप एक सेवक को जो यह मान देती हैं वह तो आपका बड़प्पन है। महाराणा की रक्षा तो एकलिंगनाथ ने की थी, मेरी क्या सामर्थ्य है! जो कुछ सेवा कर सका वह तो बड़े हुकुम के नमक का ऋण चुकाना मात्र था। उन्होंने ही तो मुझे यहाँ की किलेदारी दी थी।“ कहते हुए उनकी दृष्टि विगत में चली गई और आँखों की कोरें हल्की सी नम हो गईं। बड़े हुकुम से उनका तात्पर्य हमारे दादो’सा संग्राम सिंह* से था। 

बहुत भयावह दिन थे। पन्ना दादी’सा कभी भी उन दिनों की चर्चा नहीं करतीं। माँ भी प्रायः टाल जाया करती थीं। कुछ समय पहले एक दिन मैं हठ कर बैठा…कई प्रश्न थे- हम लोग यहाँ कुम्भलगढ़ में क्यों रहते हैं जबकि दाजीराज* चित्तौड़ के महाराणा हैं और वहाँ रहते हैं…वह कौन सी रहस्यमयी बात है जिसके बारे में कोई कुछ नहीं बताता लेकिन कई बातें उससे स्वतः जुड़ जाती हैं…आखिर उस रात को हुआ क्या था…पन्ना दादी’सा की आँखें प्रायः क्यों भर आती हैं? पन्ना दादी’सा दाजीराज की धाय माँ थीं। 

“वह सब जानने के लिए आप अभी छोटे हैं।“ 

“मैं नौ वर्ष का हो चुका हूँ माँ’सा…ध्रुव ने पाँच वर्ष की आयु में ही घर त्याग कर तपस्या आरम्भ कर दी थी। जब लव-कुश ने राम जी का घोड़ा रोककर युद्ध किया था तब वे लगभग मेरी ही आयु के रहे होंगे…तो क्या आप समझती हैं कि आपके पुत्र और महान बप्पा रावल व संग्राम सिंह के वंशज का मन मात्र कुछ अप्रिय बातों को सुनकर विचलित हो जाएगा?” माँ अपलक मुझे निहार रही थीं। 

“बातों से तो आप बहुत बड़े हो गए हैं।“ कहते हुए एक ममता भरी मुस्कराहट उनके होठों पर तैर गई। फिर उन्होंने गम्भीर होकर बताना आरम्भ किया, “उस रात पन्ना माँ’सा के पुत्र की हत्या उनकी आँखों के सामने ही कर दी गई थी।“ कहकर माँ एकदम से चुप हो गईं। मैं भी सन्न रह गया। 

“कहाँ…किसने की थी…?” कुछ पल के बाद मैंने पूछा। 

क्रमशः


🔶पाती- गवरी नृत्य के आयोजन में पाती माँगना एक परम्परा है। देवी माँ की मूर्ति के समक्ष लकड़ी पर चढ़ा हुआ लाल वस्त्र जिसे पाट कहा जाता है, रख कर प्रार्थना की जाती है। जब उनकी मूर्ति से चिपका हुआ पुष्प या जवारा नीचे पाट पर गिरता है, तो उसे गवरी नृत्य आरम्भ करने के  लिए माँ की अनुमति मानी जाती है।
🔶देवरे-भीलों के गाँवों में चबूतरेनुमा बने लोक देवी/देवता का पूजा-स्थल।
🔶गवरी नृत्य- मेवाड़ के भील समुदाय में आदिकाल से चली आ रही एक लोक-नृत्य-नाटिका जिसका आयोजन भगवान शिव और माता पार्वती की आराधना हेतु किया जाता है। यह श्रावण पूर्णिमा के दूसरे दिन से आरम्भ होकर चालीस दिनों तक चलता है
🔶गमेती- भीलों का मुखिया, सरदार
🔶बापो- पिता
🔶खेल्ये- गवरी नृत्य में भाग लेने वाले कलाकार&
🔶एकलिंगनाथ- श्री एकलिंग महादेव रूप में भगवान शिव मेवाड़ राज्य के महाराणाओं  के प्रमुख आराध्य देव रहे हैं। मान्यता है कि यहाँ में राजा तो उनके मात्र प्रतिनिधि के रूप में शासन किया करते हैं। इसी कारण मेवाड़ के महाराणा को दीवाण जी कहा जाता है
🔶काको’सा- काका जी, चाचा जी
🔶दाजीराज-पिताजी

साभार ‘अरावली का मार्तण्ड’ ,प्रकाशक: डायमंड पब्लिकेशन

About the author

प्रताप नारायण सिंह

प्रताप नारायण सिंह उन प्रतिभाशाली लेखकों में से हैं जिनकी पहली ही पुस्तक “सीता: एक नारी” को 'हिंदी संस्थान', उत्तर प्रदेश द्वारा “जयशंकर प्रसाद पुरस्कार" जैसा प्रतिष्ठित सम्मान प्रदान किया गया। साथ ही पुस्तक लोकप्रिय भी रही। तदनंतर उनका उपन्यास “धनंजय" प्रकाशित हुआ, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि एक वर्ष की अवधि के अंदर ही उसका दूसरा संस्करण 'डायमंड बुक्स' के द्वारा प्रकाशित किया गया। इस बीच उनका एक काव्य संग्रह "बस इतना ही करना" और एक कहानी संग्रह राम रचि राखा" भी प्रकाशित हुआ। “राम रचि राखा" की अनेक कहानियाँ कई पत्रिकाओं में पूर्व प्रकाशित हो चुकी थीं। उनका नवीनतम उपन्यास 'अरावली का मार्तण्ड'डायमंड बुक्स के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है।

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