धारावाहिक कहानी/नाटक

परिणति (भाग-१)

चित्र : साभार गूगल

नरेन्द्र कोहली II

अनुराधा बहुत देर से आई और जब आई तो बहुत उदास थी। अमिताभ ने उसे देखते ही कारण पूछना चाहा- -देर का भी और उदासी का भी; पर वह अनुराधा को बहुत अच्छी तरह जानता था। पूछने पर वह बड़ी सुविधा से सारा दोष परिवहन-व्यवस्था पर डाल सकती थी। और उदासी का कारण? वह अनुराधा नहीं बताएगी। जितनी बार पूछेगा, उतनी ही बार वह कहेगी, ‘कुछ नहीं हुआ। तुम तो खामखाह ही पीछे पड़ जाते हो!’ अमिताभ ने कुछ नहीं पूछा।
वे मॉरिसनगर से यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी की ओर जा रहे थे। चुपचाप । फिर अनुराधा ही बोली, “सुनो अमि! एक बात कहनी है, पर इस एश्योरेंस के साथ कि तुम उसका कारण नहीं पूछोगे, पूछताछ नहीं करोगे।”
अनुराधा स्वयं ही खुल रही थी। फिर अधिक कुरेदने की आवश्यकता? वह जानता था, अनुराधा उससे कुछ छिपा नहीं पाएगी। पहले थोड़ी सी बात बताएगी, फिर आधी और जाते-जाते पूरी बात कह जाएगी।
अनुराधा को आश्वस्त करने के लिए ही उसने कह दिया, “नहीं पूछूंगा।” सोचा था, उसके यह कहते ही अनुराधा शुरू हो जाएगी और बात समाप्त करने से पूर्व चुप नहीं होगी।
पर अनुराधा चुप ही रही। अनुराधा की चुप्पी से अमिताभ के स्नायुओं पर बोझ बढ़ने लगा था। लाइब्रेरी की सीढ़ियाँ चढ़कर अमिताभ हटकर एक किनारे खड़ा हो गया। अनुराधा काउंटर पर चली गई। किताबें लौटाने में उसे पाँच मिनट से अधिक नहीं लगे। कार्ड वापस ले, उसने अपने पर्स में डाले और साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई लाइब्रेरी के स्टैक-हॉल की ओर मुड़ गई।
अमिताभ को साथ चलना पड़ा। उसको अनुराधा का स्टैक-हॉल में जाना अच्छा नहीं लग रहा था। वह बात, जो अनुराधा उसे बताने वाली थी, क्या है? अधिक प्रतीक्षा वह नहीं कर सकता था। वह जल्दी-से-जल्दी लाइब्रेरी से बाहर निकलना चाहता था, ताकि अनुराधा से वह बात पूछ सके। पर अनुराधा स्टैक हॉल में जा रही थी, जहाँ से चार-पाँच पुस्तकें छाँटेगी, फिर उन्हें ईशू करवाएगी और तब बाहर निकलेगी। इस सबमें आधा-पौना घंटा तो लग ही जाएगा।

अनुराधा शेल्फें खँगाल रही थी। जिस शेल्फ के सामने जा खड़ी होती, उसकी कोई भी पुस्तक अनछुई न रहने देती! और तब तक अमिताभ की दृष्टि आसपास खड़े पुस्तकें देखने में संलग्न लोगों को उलटती-पलटती रही।
अनुराधा ने तीन पुस्तकें चुनीं। अपने पर्स में से ईशू कराने वाले तीन कार्ड निकाले और उसे इंगित किया, ‘आओ, चलें ।’
अमिताभ आगे-आगे चलता हुआ, पहले ही दरवाजे से बाहर निकल, सीढ़ियों पर आकर खड़ा हो गया। अनुराधा पुस्तकें ईशू करवा, पीछे-पीछे ही आ गई।
‘क्या बात है?” सीढ़ियाँ उतरते ही अमिताभ ने पूछा। “बता दूँगी!” अनुराधा बोली। उसका स्वर टालने वाला नहीं
था। अमिताभ को लगा, अभी एक-आध बार और पूछना पड़ेगा।
वे चलते-चलते विधि-संकाय के पास से गुजरते हुए रामजस कॉलेज के सामने आ खड़े हुए थे। रास्ते में अमिताभ और दो-तीन बार पूछ चुका था। अनुराधा बता देना चाह रही थी, पर अपनी आदत के अनुसार असली बात न बताकर, इधर-उधर की बातें करती जा रही थी। रामजस कॉलेज और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के बीच की सड़क पर आते ही वह ठिठक गई, “लो मैं आज फिर भूल गई!”
‘क्या भूल गई?” अमिताभ इस अप्रत्याशित बात से कुछ खीझ सा उठा।
“भई! अब देखो, हम यहाँ तक आए हैं,” अनुराधा बोली, “इस समय
मिसेज शर्मा से भी मिलते चलते।”
“तो मिल लो न!” अमिताभ बोला, “मैंने कब मना किया है।”
“आज नहीं, मैं आज उनकी चीजें नहीं लाई।” “न सही। अच्छा, अब यह बताओ, वह बात क्या है?”
“वह बात !” अनुराधा एक क्षण रुकी, “बुरा मत मानना और कुछ पूछना भी मत!”
“नहीं पूछूंगा!”
“देखो, ” अनुराधा बहुत हौले से बोली, “तुम अब हमारे घर मत आना। बाहर जहाँ कहोगे, जब कहोगे- मैं आ जाऊँगी। पर हम अब घर पर नहीं मिलेंगे।”
“क्यों?” अमिताभ के मुख से अनायास ही निकल गया।
“तुमने कहा था, तुम कुछ नहीं पूछोगे!” अनुराधा ने याद दिलाया।
“हाँ-हाँ! अच्छा, नहीं पूछता।”

दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे।
‘बुरा मान गए क्या?’

‘नहीं। इसमें बुरा मानने की क्या बात है!” अमिताभ बोला। अनुराधा ने उसके मुख की ओर देखा-चेहरे से वह चिंतित नहीं दिख रहा था।

अमिताभ के मस्तिष्क से एक बहुत बड़ा बोझ हट गया। इतने से समय में वह बहुत कुछ सोच गया था। अनुराधा ने जैसे ही बहुत उदास होकर कहा था कि उसे कुछ कहना है, तभी से उसके मस्तिष्क में अनुराधा की मौसी की बात बार बार उभरकर आ रही थी।
अमिताभ ने अनुराधा की मौसी को एक ही बार देखा था, पर अनुराधा से सुना बहुत कुछ था। मौसी बहुत अमीर थी। उसकी कोयले की खानें थीं। उसके दोनों लड़के अमरीका में थे और बेटी किसी मंत्री के बेटे से ब्याही गई थी। पिछले दिनों मौसी ने अनुराधा के लिए बहुत सारे रिश्ते बताए थे। एक-से-एक बढ़कर लड़के-पढ़े-लिखे, अमीर माँ-बाप के सुंदर लड़के और अच्छी-से-अच्छी नौकरी पर लगे हुए। अमिताभ मन-ही-मन इस मौसी से चिढ़ गया था और डरने भी लगा था। उन्हीं दिनों उसने बहुत सारे स्वप्न भी देखे थे कि एक चुड़ैल अनुराधा को उससे छीनकर लिये जा रही है। वह चीख रहा है, हाथ-पैर पटक रहा है, पर अपने स्थान से हिल नहीं पाता। और उसे चुड़ैल की शक्ल हर बार मौसी से मिलती सी लगी थी।

अनुराधा ने अमिताभ की आशंकाओं का हमेशा मजाक उड़ाया था। उसका कहना था, मौसी अपने स्तर के रिश्ते बताती है। यह नहीं देखती कि अनुराधा के माँ-बाप की हैसियत क्या है। और फिर वह स्वयं वयस्क है। कोई बच्ची नहीं है कि मौसी जिससे चाहे उससे ब्याह दे।

चुपचाप चलते-चलते काफी समय हो चुका था। अमिताभ ने नजर उठाई, अनुराधा का मुख निर्विकार था। ऐसा नहीं लगता था कि निकट भविष्य में वह कुछ कहेगी। सुबह से जिस बात का घनत्व उसके मुख पर छाया था, कहकर उसका विवेचन हो गया था।
“वैसे, अब हम कहाँ तक जा रहे हैं?” मन के हल्केपन को जताने के लिए ” वह हँसकर बोला। अनुराधा ने रुककर उसे देखा, “कनॉट प्लेस चलें तो कैसा रहे? कुछ शॉपिंग
कर लेंगे और कहीं बैठकर कॉफी भी पी लेंगे।”
अमिताभ चुपचाप चलता रहा। मल्कागंज के स्टैंड से उन्होंने एक स्कूटर रिक्शा ले लिया।

कनॉट प्लेस के बरामदों में घूमते हुए अमिताभ सोच रहा था – अब वह अनुराधा के घर नहीं जाएगा। फिर वे कहाँ मिलेंगे? बाहर बहुत ज्यादा मिलना जुलना उसे पसंद नहीं था। पर यदि वे बाहर नहीं मिलेंगे तो कहाँ मिलेंगे? बिना मिले, रहने की बात सोच नहीं सकता। उसे लगा, कोई उसकी शक्ति को तौलना चाहता है।
वे हैंडलूम-हाउस के सामने से निकले तो अमिताभ रुक गया।
अनुराधा ने फिरकर प्रश्नावाचक दृष्टि से उसे देखा।
‘अनु!” अमिताभ को अपना स्वर काँपता लगा।
अनुराधा एकदम पास आ गई।
‘आज प्रेम में पहली बाधा आई है।” अमिताभ बोला, “यह हमारे प्रेम की” तीव्रता को तौलना चाहती है। मैं आज तुम्हें कुछ देना चाहता हूँ।
वह अनुराधा की बाँह पकड़कर उसे हैंडलूम-हाउस के भीतर ले गया। उसे स्वयं लगा, वह बहुत रोमांटिक हो रहा है, पर उसने स्वयं को रोका नहीं।

अनुराधा ने एक सादी सी, चौड़े लाल बॉर्डर वाली सफेद सूती साड़ी पसंद की। हैंडलूम-हाउस से निकलकर वे काफी देर तक शामियाना कॉफी हाउस में बैठे रहे।
अमिताभ लौटा तो उस पर काफी गहरा अवसाद घिर आया था। आज घर पर मिलने पर बंधन लगा है, कल किसी और बात से भी रोका जा सकता है। अब अनुराधा से मिले बिना रहना संभव नहीं था। पर उसने ऐसा क्यों होने दिया? वह इतना कमजोर ही क्यों बना? वह अपने आपको टटोल रहा था। जब विवाह की बात शुरू हुई थी, वह अनुराधा को जानता भी नहीं था। इस बातचीत के बीच में बहुत सारे रिश्तेदार थे।

पर अब उसे याद भी नहीं है, कब औपचारिक बातचीत रोमांस में बदल गई। यह नहीं लगता था कि अमिताभ कभी इस घर में अनुराधा को बड़े औपचारिक ढंग से देखने आया होगा या उसे उस रूप में बुलाया गया होगा। अमिताभ और अनुराधा एक-दूसरे की अपनी ही पसंद लगते थे।

वे दोनों साथ घूमने जाते रहे। कई पिक्चरें उन्होंने इकट्ठे देखीं। अमिताभ टिकटें खरीदकर पिक्चर हॉल से टेलीफोन कर देता था। यदि घर का कोई बड़ा भी फोन उठाता तो वह कह देता कि वह पिक्चर हॉल से बोल रहा है, टिकटें उसने खरीद ली हैं। वे अनुराधा को भेज दें। अनुराधा हर बार आती रही। कभी किसी ने आपत्ति की मुद्रा नहीं दिखाई। उन्होंने कई बार बाहर साथ-साथ डिनर खाया और फिर स्थिति यह हो गई कि अमिताभ शाम को दफ्तर से छूटते ही अनुराधा के घर चला जाता। शाम की चाय वहीं पीता। उसे बुलाने की आवश्यकता नहीं थी। न वह कहकर जाता। सबको पता था, वह शाम को आएगा। जिस दिन न जाता, उस दिन अवश्य यह पूछ हो जाती कि वह क्यों नहीं आया। अब जब वह अनुराधा के साथ इतना बँध चुका है, यह वर्जन उसे समझ नहीं आया।

अलग होते हुए अमिताभ के ध्यान में यह बात थी कि अगली बार मिलने का समय और स्थान अभी तय नहीं हुआ है। पर वह मौन रहा। अनुराधा ने मना किया है तो वही क्यों नहीं बताती, वह उसे कब और कहाँ मिलेगी। मिलने को उसी का मन नहीं चाहता, अनुराधा भी व्याकुलता से उसकी प्रतीक्षा करती है। फिर वही क्यों पहल नहीं करती?
पर अनुराधा ने इस विषय में कोई बात नहीं की। हैंडलूम-हाउस से निकलकर वह साड़ी को निहारने में लगी हुई थी। कई बार अनजाने ही उसने साड़ी के पैकेट को अपने गालों से लगाया था, वक्ष के साथ जोरों से भींच लिया था।

उसी मग्नता में अनुराधा चली थी और अगली भेंट का कुछ निश्चित नहीं हो पाया था।
अमिताभ के मस्तिष्क की नसें तड़कने लगी थीं और उसे अपना दिल डूबता सा लगा।
सवेरे उठा तो उदासी उसकी आत्मा के साथ चिपक गई थी। लगा, उसके शरीर में इंजेक्शन की सिरिंज डालकर उसकी सारी ऊर्जा निचोड़ ली गई है। बिस्तर से हिलने तक को मन नहीं चाहा पर दफ्तर तो जाना ही था। दफ्तर जाएगा, काम उलझा रहेगा तो अनुराधा को भूला रहेगा और तबीयत सँभली रहेगी। कमरे में पड़े-पड़े तो तबीयत और घबराएगी।
क्रमशः

साभार : ‘नरेंद्र कोहली की लोकप्रिय कहानियाँ’, प्रभात प्रकाशन

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