लिली मित्रा II
होरी की खुमारी मे मै डूब रही सखी,
बोल ना कैसे मनाऊँ अबके होरी?
रंग ले आऊँ जाय के हाट से,चल मोरे संग।
लाल रंग लगवाऊँ के? पीरा.. हरा रंग चटखीला..के गुलाबी नसीला?
ऐ सखी बोल ना,कुछ तो बोल?
प्रीत की ये पहरी होरी है रे! मन बौराया है,सुध-बुध हार बैठी हूँ।
सुन ना! लाल रंग जो उनसे लगवाऊँ तो दिखबे ना करी, उनके प्रीत का लाल रंग बहुत चटख है रे! देख कैसे लाज से गाल गुलाबी हुए जाए मोरे…बोलते हुए दोनो हाथों से चेहरा ढाप लिया बसंती ने।
उई माँ गाल का गुलाबी रंग तो,गुलाल के मात दे रहा रे!
चल तो चटखीला हरा ही लै लूँ,सइय्या से यही रंग लगवाऊँगी। पर सखि लागे है एहो रंग ना चढ़ी हम पर
,उनके प्रेम के सावन मे भींगो मोर मनवा बारहों मास हरा-भरा रहत है,अब तो जे होरी को हरो रंग भी आपन चटखपन ना दिखा पावेगा।
ए जमनिया बोल ना-पीरा ही लै लूँ फेर ?
अरि कुछ तो बोल!
अबके बंसत मोरे सजन मोहे बसंती बना गए,उनके धियान करत ही तन मन सब बसंती…रहे देती हूँ यो पीरा रंग तो फीका पड़ जाएवेगा।
सखी खींझकर बोली- तू हमका न तो बोलै देत है, न बतावै देत है, ऐसी बाबरी हुई है,खुद ही सब पूछै है,खुद ही बतलावै है। तू रंग न खरीद, अपने सजन के हर रंग मे तू रंगी है। मेरा बखत ना बरबाद कर ,मोहे जाने दे माई के साथ गुझिया बनवा वे का है हमे,बोल सखी भी भाग गई।
अरि सुन तो! अच्छा तू बतला दे। ऐसे मोहे बिपदा मे अकेली छोड़ के ना जा…
अरी ओ ! सुन.. येहो भाग गई अब का से कहूँ अपने जिया की? मै रंग देख मतवारी हो रही,हर रंग मोहे पिया के याद दिराए है,बस मन मे ही सपने संजोए हूँ। जो अबके होती संग तिहारे रंग से ना भागती,
तोहरे रंग मे रंग जाती।
तोहरी प्रेम की फुहार मा तुम संग लिपट भीग जाती।
तुम रंगरेज मोरे..
हर रंग मे रंग सतरंगी चुनरिया सी लहराती इतराती..बलखाती!
मोहे होरी के रंग अब ना भाए री!
बस पिया रंग रंगी मै तो.. बस उन्ही के रंग रंगी मैं तो!
होरी कैसे खेरूँ?
कैसे बताऊँ जिया की तड़प?
एक तो पिया परदेस..
ना रंग लगे ..
ना अंग लगे..
तू जा अपनी माई के पास रे! सच ही तो कह रही तू मैं तोहरा बखत बरबाद कर रही।
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