कविता काव्य कौमुदी

मैं आऊंगा

संजय स्वतंत्र II

मैं आऊंगा –
अधूरे ख्वाबों को
पूरा करने और
तुम्हारे चेहरे को
बना दूंगा ब्रह्मांड।
मन की थाल में
समेट लूंगा कोई
टूटता हुआ तारा
तुम्हारी कोई कामना
पूरी करने के लिए।

मैं आऊंगा-
मन की मुंडेर पर
बैठूंगा साथ-साथ
गुमसुम तुम्हारी निगाहों में
पलटूंगा अतीत के पन्ने
गढूंगा एक नया भविष्य।

मैं आऊंगा-
उलझनों को सुलझाने
और तुम्हारी लटों में
छुपमछुपाई खेल रहे
चांदी जैसे बालों से
वीणा के तार बनाऊंगा
रचूंगा तुम्हारे लिए
नव जीवन/ नव संगीत।

मैं फैल जाऊंगा
तुम्हारे हृदय में
चंदन वृक्ष की तरह,
बेदम होती तुम्हारी सांसों में
नित नया प्राण भरूंगा,
सुवासित करूंगा तुम्हें।

मैं आऊंगा-
और तुम्हारी पलकों पर
बैठ जाऊंगा,
सोख लूंगा तुम्हारे आंसू।
बांध कर एक दिन
ले जाऊंगा तुम्हारी
सारी उदास रातें।
लिख कर छोड़ जाऊंगा
तुम्हारे लिए कविताएं।

मैं आऊंगा-
किसी न किसी दिन
तुम्हारी रिक्तता में
पूर्णता भरने और
जीवन-मरण के चक्र से
मुक्त कर दूंगा।

मैं आऊंगा-
किसी मंदिर की सीढ़ियों पर
फिर मिलूंगा तुमसे,
गुलाब की पंखुड़ियों की तरह
बिखर जाऊंगा
पूजा की थाल में
या फिर तुम्हारे आंगन
तुलसी बन उग जाऊंगा,
खुद में मुझको भर लेना।

मैं आऊंगा-
वहां तक
जिसे लांघने की
इजाजत तुमने दी है।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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