कविता काव्य कौमुदी

नदियां बनाम बहनें

फोटो- गूगल से साभार

वीणा कुमारी ll 

जाड़े की ठिठुरन के बीच
जैसे ही धूप आँगन में पांव पसारती
अम्मा जल्दी जल्दी काम निपटा
बालकनी में बैठ जाती
सलाई और ऊन लेकर
हर बुनते फंदे के साथ बुनने लगती
नए नए सपने
हम चचेरी,मौसेरी बहनों को
आपस में बतियाते देख कहती
बहनों की जिंदगी तो नदियों से भी कठिन है
नदियां भी एक दिन सागर में मिल जाती है
अपने दुख सुख बांट लेती है
पर बहनें जो एक बार अपने घर की हुई
फिर न मिल पाती एक दूसरे से
मिलती भी है तो
दुख सुख बतियाने का समय न रहता
फिर कहती….
जी भर बतिया ले बिटिया तुम सब
फिर तो ऊन-सलाई के साथ ही
दुख सुख बतियावे पड़े है
यही रिश्तेदार बहन भाई सब हो जावे है
अनुभवी अम्मा की निस्तेज आँखें
तब डबडबा आती थीं
और मैं सोचती
कुछ रिश्ते ऐसे भी निभते हैं

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वीणा कुमारी

झुमरी तिलैया
झारखंड

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