लेखक परिचय/ कवि परिचय

साहित्यिक सृजन यात्रा : प्रताप नारायण सिंह

 अश्रुत पूर्वा II

उपन्यासकार:
प्रताप नारायण सिंह

प्रताप नारायण जी को साहित्य के प्रति अनुराग उनके पिताजी से ही मिला है। पिताजी गणित के प्रवक्ता थे किन्तु हिंदी साहित्य से उन्हें गहरा लगाव रहा। घर में सदैव साहित्यिक पुस्तकें पड़ी रहती थीं। पिताजी प्रायः जो कविताएँ उन्हें पसंद आती थीं, उनका बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण ढंग से पाठ करके सुनाया करते थे। 

हिंदी आरम्भ से ही आपको बहुत ही प्रिय रही। जब भी प्रताप नारायण जी नई कक्षा में जाते तो पहले आठ दस दिनों में ही हिंदी की पूरी पुस्तक पढ़ जाते थे। कहानियाँ और कविताएँ दोनों ही आपको रुचिकर लगती थीं। अपनी पसंद की कहानियों को तो साल में इतनी बार पढ़ लेते थे कि उनका एक बड़ा हिस्सा उनको अक्षरशः याद हो जाता था। पुस्तक की लगभग सभी कविताएँ कंठस्थ कर हो जातीं और अंताक्षरी में उनका प्रयोग करते थे । उनके बचपन में अंताक्षरी में सिनेमा के गानों का प्रयोग वर्जित था। मात्र कविताएँ ही सुनाई जाती थीं। 

हिंदी साहित्य का पठन प्रताप नारायण जी के लिए सदैव एक आनंद का विषय रहा।  किन्तु जैसे-जैसे ऊपर की कक्षाओं में जाने लगे ,वैसे-वैसे अन्य विषयों का दबाव बढ़ने लगा और हिंदी गौण होती गई। हालाँकि ऐसे में भी वे कुछ समय निकालकर विज्ञान और गणित के दबाव से मुक्त होने के लिए मनोरंजन के तौर पर हिंदी पढ़ लिया करते थे। इस बीच उन्होंने जीवन का पहला सृजन ग्यारहवीं कक्षा में अपनी स्कूल पत्रिका के लिए एक कहानी लिखकर किया। उसके बाद भी कभी कभार कुछ लिख लेते, किन्तु रचनाओं को कभी संकलित करके नहीं रखा। कवि या लेखक कहलाने की महत्वाकांक्षा मन में कभी उत्पन्न नहीं हुई। हाँ, पठन प्रताप नारायण जी के जीवन का हिस्सा सदैव बना रहा। कहीं कोई भी पुस्तक मिल जाती उसे पढ़ते अवश्य। किसी पुस्तक को खरीदने में व्यय हुआ धन उन्हे सदैव सार्थक लगता। साहित्य की दुनिया सदा ही उन्हे बहुत आकर्षित करती थी।

 वे बारहवीं के बाद इंस्टिट्यूट के दिनों में कभी कभार छिटपुट कविताएँ लिख लेते । तब उन्होंने एक डायरी बना ली थी जिसमें अपनी कविताओं को संकलित करते रहे । फिर जब उन्हें चार-छः महीने बाद पढ़ते, जो भी अच्छी नहीं लगतीं उन्हें फाड़कर फेंक देते । इस तरह बहुत सी कविताएँ नष्ट कर दीं। उनकी पहली संकलित कविता जो बची रह गयी वह यह है (इसमें छंदगत कई अशुद्धियाँ हैं किन्तु उन्होंने इसे कभी सुधारने का प्रयास नहीं किया) –   

कोई मधुर गीत मिल जाता
मैं भी दो पल गा लेता
मनमीत मुझे भी मिल जाता
प्यार मैं दो पल पा लेता

उम्र को दोपहरी में
लू उठती है यौवन की
झुलसाती है विरह अग्नि में
प्यास बढ़ा देती मन की

प्रेम की छाया मिल जाती
दो पल मैं भी सुस्ता लेता
कोई मधुर गीत मिल जाता
मैं भी दो पल गा लेता

याद किसी की आ जाती
पलकों पर सपने छा जाते
झोंका बहार का मिल जाता
सूखे पतझड़ फिर मुस्काते

प्रेम का कोई बादल यदि
जीवन रस बरसा देता
कोई मधुर गीत मिल जाता
मैं भी दो पल गा लेता

हर रात अँधेरी लगती है
तारा भी कोई पास नहीं
टूटे बोल लुढ़कते से
उन्माद नहीं, उत्साह नही

टूट गए इन साजों में
कोई जीवन जो ला देता
कोई मधुर गीत मिल जाता
मैं भी दो पल गा लेता

इंस्टिट्यूट से निकलने के बाद नौकरी के साथ कभी कभार कुछ लिखते रहते। इस दौरान एक कहानी “मरीचिका” लिखी जो कि प्राइवेट सेक्टर द्वारा कर्मचारियों के शोषण पर आधारित थी।

वर्ष १९९९ से २००२ तक का एक ऐसा समय आया जिसमें उन्हे जीवन के अत्यंत कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा। उस समय कुछ भी ठीक नहीं हो पा रहा था और मन में किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति स्थायी सी हो चली थी। अपनी उस स्थिति से उबरने के लिए प्रताप नारायण जी ने स्वयं को पुस्तकों में डुबो लिया। साहित्य की आनंदमयी दुनिया में विचरना सुखद लगने लगा था। वे  पुस्तकालय में घंटों बैठकर पढ़ते रहते और उसके बाद पुस्तकें घर भी ले आते, उन तीन वर्षों की अवधि में सैकड़ों पुस्तकें पढ़ी, जिनमें अनेक उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह और खंड काव्य सम्मिलित थे। बहुत से पात्रों और चरित्रों से साक्षात्कार हुआ। अनेक नई सोचों को जानने व समझने का अवसर मिला। छोटी मोटी रचनाएँ भी करते रहे  किन्तु उनसे संतुष्टि नहीं मिल पाती थी। उनकी इच्छा एक लम्बी रचना करने की थी। उन्हीं  दिनों उन्होनें एक उपन्यास पढ़ा ‘सीता: एक जीवन’, जिसे डॉ. युगेश्वर ने लिखा था। उस उपन्यास के मुख्य पात्र की पीड़ा उनकी मनोदशा के साथ एकाकार हुयी और अंतर्मन से काव्य की एक धारा बह निकली। उपन्यास समाप्त करते ही उन्होंने कुछ पद लिख डाले। 

प्रताप नारायण जी को प्रबंध काव्य बहुत रोचक लगते थे। उनका कथानक, गतिशीलता और भाव प्रवाह मन को मुग्ध करता था। जयद्रथ वध, रश्मिरथी, उर्वशी इत्यादि प्रबंध काव्यों ने मन पर एक गहरा प्रभाव छोड़ा था। मन में इच्छा जगी कि अपनी रचना को एक प्रबंध काव्य का रूप दें। जयद्रथ-वध पढ़ते समय हरिगीतिका छंद से परिचय हुआ था और उसका विन्यास अत्यंत प्रिय था। अतःअपने काव्य के लिए उन्होंने वही छंद चुना। हालाँकि बाद में उन्हें यह अहसास हुआ कि इस छंद का पूरे काव्य में निर्वाह करना एक कठिन कार्य है। क्योंकि इसमें  एक निश्चित विन्यास की प्रतिबद्धता के कारण जगण मात्रा वाले शब्दों का प्रयोग प्रवाह की सहजता को थोड़ा बाधित कर देता है और ऐसे में कई उपयुक्त शब्दों का प्रयोग करना संभव नहीं हो पाता है। बहरहाल, चूँकि वह छंद मन में बसा हुआ था अतःउन्होंने  उसी छंद में सृजन करना जारी रखा। अगले छः महीनो में लगभग दो सौ पद लिख डाले। किंतु जीवन की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की बाध्यता के कारण लेखनी को विराम देना पड़ा। एक बहुत ही लंबा विराम। अगले  छः साल तक अति व्यस्तता के कारण कुछ भी नहीं लिखा जा सका। पुस्तकों से दूरी भी बढ़ती गई, लिखना पढ़ना बिलकुल बंद हो गया और मन ने कुछ हद तक यह भी स्वीकार कर लिया था कि वे  शायद अपनी वह रचना कभी भी पूरा नहीं कर पाएंगे। 

सन २००८ से कुछ फुर्सत के पल पुनः मिलने लगे। तब तक इन्टरनेट का पदार्पण भी हो चुका था, अतः इंटरनेट पर उन्होंने थोड़ा सक्रिय होना आरम्भ किया। कुछ साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय लोगों  से परिचय हुआ और कुछ ई-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हुईं। उन्हीं दिनों ई-कविता का मंच मिला जिसे श्री अनूप भार्गव जी संचालित करते थे। उस मंच से अनेक श्रेष्ठ कविगण जुड़े थे। उनकी सृजन यात्रा में वह मंच एक संजीवनी साबित हुआ। उसके पहले वे कभी कभार कुछ लिख लेते थे किन्तु मंच से जुड़ने के बाद लेखन में निरंतरता आ गई। मंच पर कविता के ऊपर विचार विमर्श भी होता था, जिससे बहुत कुछ सीखने को मिलता था और साथ में लिखने का उत्साह भी बना रहता था। अब पुनःउनके अंदर खंड काव्य को पूरा करने की महत्वाकांक्षा उत्पन्न हो गयी।  किन्तु फिर भी वे उसे बहुत समय नहीं दे पाते थे । उसका कारण यह था कि लम्बे समय तक एक पात्र की मनःस्थिति और परिवेश को जीना संभव नहीं हो पाता था।  अपने कार्य सम्बन्धी दायित्वों को भी पूरा करना था जो कि अधिक महत्वपूर्ण थे।  बहरहाल,जब भी समय मिलता और सहज महसूस होता, थोड़ा-थोड़ा लिखते रहे  और सन् २०१६ में वह  खंड काव्य पूरा हो गया।  उस खंडकाव्य को हिन्दी संस्थान उत्तर प्रदेश ने खंडकाव्य विधा के सर्वोच्च सम्मान “जयशंकर प्रसाद पुरस्कार” प्रदान किया गया। 

पहली ही पुस्तक को एक आधिकारिक संस्था द्वारा राज्य स्तर का पुरस्कार प्रदान कर रेखांकित किए जाने से प्रताप जी का बहुत उत्साहवर्धन हुआ। साथ ही ‘सीता: एक नारी’ पूरा कर लेने के उपरांत  इस बात का आत्मविश्वास भी उत्पन्न हो गया कि वे लम्बी रचनाएँ कर सकते  हैं। इस बीच में कई कहानियाँ भी लिखी, जो अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुयीं। बाद में उनका संकलन “राम रचि राखा” के नाम से प्रकाशित हुआ।  “सीता एक नारी” के पूरा होने के तुरंत बाद ही उन्होनें अपने पहले उपन्यास “धनंजय” पर कार्य करना आरंभ कर दिया। किन्तु वह बहुत ही धीमी गति से आगे बढ़ रहा था| अगले तीन वर्षों में मात्र चार अध्याय ही लिख पाए । तभी कोरोना के कारण देश भर में लॉकडाउन लग गया। यह उनके लेखन के लिए सुनहरा अवसर था। वे दिन रात लिखने में जुट गए । अक्टूबर 2020 में धनंजय प्रकाशित हो गया। उपन्यास बहुत ही लोकप्रिय रहा। पाठकों की प्रतिक्रियाओं से  मन अभिभूत हो उठता। इस समय तक प्रताप जी के अंदर जिस तरह से पहले पढ़ने का नशा था लगभग ठीक उसी तरह से लिखने का भी हो गया। उसके बाद के अगले दो सालों में चार उपन्यास और लिखे – अरावली का मार्तण्ड, युग पुरुष-विक्रमादित्य, योगी का रामराज्य और जिहाद। सभी उपन्यासों को ‘डायमंड बुक्स’ ने प्रकाशित किया| उपन्यासों के आरम्भ होने के बाद काव्य सृजन लगभग बंद ही हो गया। हालाँकि इस बीच जो कविताएँ पहले लिखी थी उनका संकलन “बस इतना ही करना” प्रकाशित हुआ ।

अब तक प्रताप नारायण सिंह जी की कुल 8 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी आगामी पुस्तक है- “मैनेजमेंट गुरु कबीर”, जो कि संभवतः जून में पाठकों के लिए उपलब्ध हो जाएगी। यह एक वैचारिक और शिक्षा पर आधारित पुस्तक है।

प्रताप नारायण सिंह जी के तीनों उपन्यास/खंड-काव्य ऐतिहासिक/पौराणिक महानायकों के जीवन चरित्र पर आधारित हैं। महाराणा प्रताप, विक्रमादित्य,धनंजय,सीता इन तीनों ही महानायकों /नायिका से हम सभी परिचित हो सकते हैं किन्तु उपन्यासकार ने इन सभी उपन्यासों में जिन नए बिंदुओं, नए सरोकारों को प्रस्तुत किया है उनसे नायकों का पूरा चरित्र उभर कर आता है। कथा कई रसपूर्ण पहलुओं के साथ उस युग में प्रयुक्त युद्ध नीतियों की बारीकियों, शस्त्र ,कला,संगीत,संस्कृति एवं परिवेश से पाठकों का परिचय बहुत ही सहज रूप में कराती है। उपलब्ध  ऐतिहासिक सामग्रियों का एक शोधार्थी की भांति अध्ययन कर तथ्यों की प्रमाणिकता को तर्कपूर्ण ढंग से सिद्ध कर कथानक गढ़ा गया है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों को अलौकिक मानदंडों के स्थान पर एक आम इंसान की मानसिकता से जोड़ वर्तमान परिपेक्ष्य में भी प्रासंगिक बनाया गया है। अपनी लेखनी के माध्यम से पाठक को चिंतन की एक नवीन दिशा प्रदान करने का जो सार्थक प्रयास प्रताप नारायण जी कर रहें हैं वो सराहनीय है। साहित्य सृजन की उनकी ये यात्रा अनवरत प्रसिद्धि एवं विस्तार पाए अनंत शुभकामनाएं ।  

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ashrutpurva

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