अश्रुत पूर्वा II
गीतकार, कवि-शायर और फिल्म निर्देशक। संगीत की भी गहरी समझ। कितने ही आयाम हैं गुलजार के व्यक्तित्व और कृतित्व में। उनके लिखे जाने कितने गीत आप रेडियो पर सुन चुके। उनके निर्देशन में बनीं कितनी बेहतरीन फिल्में आप देखचुके हैं। मगर उनसे कभी दिल नहीं भरा। जाड़ों की नर्म धूप हो और आंगन में लेट कर या बालकनी में बैठ कर बस सुनते रहें। जैसे ‘मेरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे…।’ विमल राय की फिल्म बंदिनी के लिए गुलजार ने यह गीत लिखा था और आज भी इसे सुना जाता है।
क्या ही बेहतरीन शख्सियत हैं गुलजार। वे अपनी रचनाओं में इतनी गहरी भावना और इतनी मिठास डाल देते हैं कि वह बरसों-बरस जेहन में रहती है। किसने सोचा था अरोड़ा सिख परिवार का यह लड़का संपूर्ण सिंह गुलजार के नाम से एक दिन शोहरत की बुलंदियों को छू लेगा। गुलजार को स्कूल के दिनों में ही संगीत और शायरी का चस्का था। वे अकसर संगीत कार्यक्रमों में जाया करते थे। उनको धीरे धीरे संगीत की समृद्ध विरासत हासिल हुई। इसी विरासत ने उनकी परख को नया विस्तार दिया।
पाकिस्तान में जन्मे गुलजार का परिवार देश बंटवारे के बाद अमृतसर आ गया। मगर संपूर्ण सिंह नाम का यह लड़का अपना भविष्य बनाने मुंबई निकल गया। तब उसकी आंखों में कई सपने थे। वहीं वे वर्ली में कार गैरेज में मैकेनिक काम करने लगे। मगर किताबों के शौकीन गुलजार अपना काम करते हए पढ़ते भी थे। पास से ही किराए पर वे किताबें खरीद कर लाते। वक्त निकाल कर पढ़ते रहते।
एक दिन गैरेज में अपनी कार ठीक कराने उस दौर के विख्यात फिल्म निर्देशक विमल राय आए। उन्होंने वहां किताबों के साथ गुलजार को देखा तो आश्चर्य हुआ। कौन पढ़ता है ये किताबें, तो गुलजार ने कहा-मैं पढ़ता हूं। इस पर उन्होंने गुलजार को अपने दफ्तर आने को कहा। विमल दा से उस एक मुलाकात के बाद गुलजार फिर गैरेज नहीं लौटे। इसके बाद तो वे उनके सहायक तो बने ही गीतों के जादूगर भी बन गए।
उनकी लेखन यात्रा पर नजर डालें तो आपको आश्चर्य होगा। जाने कितने ही गीत उन्होंने लिखे। और ज्यादातर श्रोताओं की जुबान पर चढ़ गए। उन्हें अपने लिखे गीतों को लिए ग्यारह बार फिल्म फेयर अवार्ड मिला। फिल्म स्लमडॉग मिलियनायर के चर्चित गीत ‘जय हो’ के लिए उनको आस्कर अवार्ड से सम्मानित किया गया। पद्मभूषण से सम्मानित गुलजार को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भी मिल चुका है।
गुलजार के निर्देशन में बनीं सभी फिल्मों को उल्लेखनीय सफलता मिलीं। अचानक, परिचय, कोशिश, खुशबू आंधी, मौसम और किनारा से लेकर नमकीन, अंगूर, इजाजत, लेकिन और माचिस जैसी फिल्मों को कौन भूल सकता है। गुलजार साहब ने 1971 में फिल्म ‘मेरे अपने’ से फिल्म निर्देशन की शुरुआत की और एक लंबी और शानदार यात्रा तय की। जीवन के उनासीवें साल में भी उनकी रचनात्मक सक्रियता नई पीढ़ी के लिए मिसाल है। वे साहित्य के मर्मज्ञ हैं। संगीत कला के पारखी हैं। गीत रचते समय वे शब्दों के जादूगर बन जाते हैं। उन्होंने अपनी रचनाशीलता से सिनेजगत को गुलजार किया है।