अश्रुत पूर्वा II
नई दिल्ली। हिंदी साहित्य आलोचना की जब भी बात होगी तो रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और राम विलास शर्मा के साथ नामवर सिंह का भी जिक्र होगा। पिछले दिनों उनके जन्मदिन पर उनके शिष्यों और कई लेखकों ने याद किया। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक और प्रखर वक्ता नामवर जी का जन्म 28 जुलाई 1926 को हुआ। उन्होंने हिंदी साहित्य में एमए और पीएचडी करने के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। फिर उन्होंने सागर और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया।
नामवर जी ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय वे संबे समय तक अध्यापन किया। पुस्तक कविता के नए प्रतिमान पर उन्हें 1971 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें कई पुरस्कार मिले। मगर उनके लेखन के आगे सभी पुरस्कार जैसे स्वयं पुरस्कार हुए।
नामवर सिंह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केंद्र में इमेरिट्स प्रोफेसर रहे। कुछ समय राजाराम मोहन राय प्रतिष्ठान के अध्यक्ष रहे। वे महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में कुलाधिपति भी रहे। मगर उनका कद पद और पुरस्कारों से नहीं, हिंदी साहित्य में उनके योगदान से बड़ा है। नामवर सिंह शीर्षस्थ समालोचक और निबंधकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रिय शिष्य रहे। अत्यधिक अध्ययनशील और विचारक प्रकृति के नामवर जी आधुनिक अर्थ में विशुद्ध आलोचना के प्रतिष्ठापक तथा प्रगतिशील आलोचना के प्रमुख हस्ताक्षर थे।
नामवर सिंह ने जनयुग और आलोचना जैसी पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे एक समय में राजकमल प्रकाशन के साहित्यिक सलाहकार भी रहे। कोई दो राय नहीं कि वे हिंदी आलोचना के शलाका पुरुष थे। साहित्य अकादेमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने कहा था कि नामवर सिंह की आलोचना जीवंत आलोचना है। भले ही लोग उनसे सहमत हुए या असहमत, लेकिन उनकी उपेक्षा कभी नहीं हुई। हिंदी की प्रतिष्ठित आलोचक निर्मला जैन ने कहा है कि आज जब वे नहीं हैं तो उनकी कही गई एक-एक बात याद आती है।
इसी तरह लेखक और कवि लीलाधर मंडलोई ने नामवर जी के लिए कहा था कि वे आधुनिकता में पारंपरिक हैं और परंपरा में आधुनिक। उन्होंने पत्रकारिता, अनुवाद और लोकशिक्षण में महत्त्वपूर्ण कार्य किया, जिसका मूल्यांकन होना बाकी है। हिंदी का कोई भी अध्यापक या विद्यार्थी ऐसा नहीं है जो उनके लिखे को न जानता हो। उनके शब्दों से साक्षात्कार न किया हो। ऐसा कोई लेखक नहीं रहा जो अपनी पुस्तक के लिए उनसे आशीष न चाहता रहा हो। वैसे भी नामवर जी का लेखन बरगद के बड़े पेड़ की तरह है, जहां से उन्हें देखने के लिए हमें हर बार एक नई दृष्टि चाहिए। नामवर सिंह यूं ही नामवर नहीं हुए।
नामवर जी का लेखन बरगद के बड़े पेड़ की तरह है, जहां से उन्हें देखने के लिए हमें हर बार एक नई दृष्टि चाहिए।