अश्रुत पूर्वा II
हिंदी सिनेमा में अगर मानवीय संवेदनाओं को सबसे अधिक किसी गीतकार ने सहेजा है और रचा तो वे हैं शैलेंद्र। उनको आप आधुनिक युग का कबीर कह सकते हैं जो आजादी से पहले और आजादी के बाद भी सामाजिक विसंगतियों, वर्गभेद और उंच-नीच पर कड़ा प्रहार करते रहे। वे बिना लाग-लपेट के और बेबाक रचते हैं-दिल की बात सुने दिल वाला, सीधी सी बात न मिर्च मसाला।
उनके गीतों में स्त्री मन की एक नई उड़ान है। फिल्म ‘गाइड’ का गीत हमेशा याद रहेगा श्रोताओं को-
कांटे से खींच के ये आंचल,
तोड़ के बंधन बांधी पायल,
कोई न रोको दिल की उड़ान को,
दिल वे चला…, आज फिर जीने की तमनन्ना है,
आज फिर मरने का इरादा है…।
कभी-कभी शैलेंद्र स्त्री मन की गिरह खोलने बैठ जाते हैं-अजीब दास्ता है ये, कहां शुरू कहां खतम, ये मंजिलें हैं कौन सी, न वो समझ सके न हम। इसी तरह ‘रात और दिन’ का यह गीत हर स्त्री सुन कर गुनगुना उठती है-दिल की गिरह खोल दो, चुप न बैठो कोई गीत गाओ , महफिल में अब कौन है अजनबी, तुम मेरे पास आओ।
यही नहीं प्रेमी के निश्छल मन की जीवटता को भी उन्होंने अभिव्यक्ति दी। फिल्म ‘यहूदी’ का ये गीत किसे याद न होगा- ये मेरा दीवानापन है, या मोहब्बत का कसूर, तू न पहचाने तो है यह तेरी नजरों का कसूर।
एक खुशहाल परिवार में जन्मे शैलेंद्र का जीवन बेहद चुनौतियों भरा रहा। वे पढ़ना चाहते थे, मगर घर की माली हालत के कारण वे उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर पाए। पुस्तकों में रचे बसे रहने वाले शैलेंद्र किसी विद्वान से कम नहीं थे। रोजी-रोटी के लिए रेलवे में नौकरी जरूर की मगर मन उस नौकरी में रमा नहीं। वह स्वतंत्रता आदोलन का दौर था। उन दिनों शैलेंद्र कविताएं लिखते थे। और खूब लिखते थे। उस ममय कविताओं के माध्यम से जन-जन को जागरूक कर रहे थे। मशहूर कविताओं में छपी उनकी कविताएं लोगों तक पहुंचती थीं।
शैलेंद्र के बारे में इतना कुछ लिखा गया है कि नया कुछ बचा नहीं। मगर दो घटनाओं से हम साबित कर सकते हैं एक कवि इतना संवेदनशील होता है कि कोई भी उस पर भरोसा कर सकता है। पहली घटना उस दौर की है जब वे मथुरा में रह रहे थे। हॉकी खेलने में उनकी खासी रुचि थी। कहते हैं एक दिन उन पर जाति को लेकर एक ऐसी टिप्पणी कर दी कि वे कभी हॉकी खेलने घर से बाहर गए ही नहीं। उन्होंने खुद पर भरोसा किया और जीवन में आगे निकल गए।
दूसरी घटना तब की है जब वे जीवन में एक साथी की कमी महसूस कर रहे थे। उन्होंने शकुंतला नामक एक युवती से शादी की। इस विवाह पर सवाल उठे। लोगों ने कहा कि शैलेंद्र एक गरीब आदमी है। मगर शकुंतला के पिता ने शैलेंद्र की काबिलियत और उनके अच्छे व्यवहार पर भरोसा किया। हालांकि आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण दांपत्य जीवन निभाने में उनके सामने कई चुनौतियां सामने आर्इ।
यह राज कपूर साहब ही थे जिन्होंने पहली बार उस समय शैलेंद्र की मदद की जब उनको इसकी बहुत जरूरत थी। बदले में अपनी जिद छोड़ कर फिल्म ‘बरसात’ के लिए उन्होंने गीत लिखे। यही वह फिल्म है जो शैलेंद्र के करियर के लिए और इस गीतकार को बड़ी पहचान देने के लिए मील का पत्थर साबित हुई। फिर तो राज कपूर के साथ उनकी टीम में जो जोड़ी बनी, उससे कई गीतों का जन्म हुआ। फिल्म ‘आवारा’ के गीत तो दुनिया के कई देशों में सराहे गए। रूस और चीन के श्रोता भी झूम उठे-अवारा हूं या गर्दिश में भी आसमान का तारा हूं…।
शैलेंद्र के गीतों में प्रेम है तो विरह भी। उनके गीतों में गहरा जीवन दर्शन है तो जीवन के प्रति विरक्ति भी- ऐ मेरे दिल कहीं और चल, गम की दुनिया से दिल भर गया…। इसी तरह फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में गीत, जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां… यादगार बन गया। वहीं ‘तीसरी कसम’ का गीत सुनिए-सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है…। जीवन का कितना बड़ा सच लिख गए शैलेंद्र। यही नहीं उन्होंने जीवन जीने का अर्थ भी समझाया-
किसी की मुस्कुराहटों पे हो के निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है…। शैलेंद्र सचमुच निश्छल थे। उनका यह गीत शायद अपने ऊपर ही लिखा उन्होंने-सब कुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी, सच है दुनिया वालों के हम हैं अनाड़ी।
फिल्म के कथानक का सार समझ कर सार्थक और सामाजिक संदेश देने वाले शैलेंद्र हिंदी सिनेमा के अन्यतम गीतकार हैं। अपने दौर से सवाल पूछने वाले ऐसे गायक अब नहीं। इसलिए वे कभी-कभी आधुनिक दौर के कबीर लगते हैं। वे गीतकार से अधिक मूलत कवि रहे हैं। मानवीय संवेदनाओं के संरक्षक के रूप अनंत काल तक वे जीवित रहेंगे। 23 अगस्त, 1923 को जन्मे शैलेंद्र का 14 दिसंबर 1966 को निधन हो गया। जन्मशती पर उनका नमन। उनका पुण्य स्मरण।