हेमलता म्हस्के II
नई दिल्ली। आज से 133 साल पहले 28 नवंबर को महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन हुआ था। इस दिन ज्योतिबा को याद करना जरूरी इसलिए है कि उन्होंने महिला शिक्षा और अछूतों के उद्धार के लिए जितना काम किया महाराष्ट्र में उतना कभी किसी मराठी ने नहीं किया था। आज वे पूरे देश के लिए आदर्श हैं। वे भारत के गौरव हैं। महात्मा फुले अपने निधन के पहले ही महात्मा कहे जाने लगे थे। उन्होंने दलितों के लिए, विधवाओं के लिए, अनाथों के लिए लड़कियों के लिए और मजदूरों के लिए अनूठा कार्य किया। उसी का नतीजा है कि आज लड़कियां पढ़ने लगी हैं उनके लिए स्कूल कॉलेज और विश्वविद्यालय बन गए हैं। नहीं तो आज से डेढ़ सौ साल पहले देश में लड़कियों को पढ़ाना पाप समझा जाता था। उन्हें सिर्फ शादी करने और बच्चे पैदा करने तक सीमित रखा जाता था।
महात्मा फुले ने लड़कियों के लिए देश में सबसे पहले स्कूल खोला। स्कूल खोलने के पहले उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ा लिखा कर शिक्षक बनाया। महात्मा फुले के जीवन में एक बार बहुत असमंजस की स्थिति आई। जब सावित्रीबाई से कोई संतान नहीं होने पर उनके पिता गोविंद राव दूसरी शादी करने के लिए ज्योति राव पर दबाव डालने लगे। लेकिन उन्होंने पिता की अवज्ञा कर दी। उन्होंने कहा मैं किसी भी हालत में दूसरी शादी नहीं करूंगा। उन्होंने बाद में एक गर्भवती विधवा को अपने घर में शरण दी। उनका संरक्षण किया और उस विधवा से जन्मे बच्चे को गोद लिया।
महात्मा फुले के पूर्वज पुणे के आसपास के एक गांव में खेती-बाड़ी करते थे। बाद में उनके दादा पुणे आ गए। पुणे में उन्हें बहुत कोशिश के बाद एक जगह माली का काम मिला। लेकिन अकेले उनकी कमाई से परिवार का खर्चा नहीं चलता था तो उन्होंने अपने बेटों को भी फूलों के माला और गजरे बनाने के काम में लगा दिया था। इसलिए उनको लोग फुले कहने लगे। महात्मा फुले के पिता का नाम गोविंद राव था और मां चिमनाबाई थी। चिमनाबाई का निधन ज्योति राव फुले के जन्म के एक साल बाद ही हो गया था। उसके बाद ज्योतिबा के पिता ने दूसरी शादी नहीं की बल्कि एक दाई रख ली जिन्होंने ज्योति राव का पालन पोषण किया।
ज्योतिबा फुले बचपन से ही बुद्धिमान थे। उनको पढ़ने में बहुत दिलचस्पी थी। उन दिनों पुणे में एक ही स्कूल था जिसकी स्थापना तत्कालीन कलेक्टर ने की थी। वहां पुणे के अमीर घरों के बच्चे पढ़ते थे। इसी स्कूल में उनका दाखिला हुआ। लेकिन बाद में जब यह अफवाह फैली कि इस स्कूल में बच्चों को ईसाई बनाया जाता है तो उनके पिता ने इसे सही मान कर ज्योतिबा की पढ़ाई छुड़वा दी और उन्हें भी फूलों के काम में लगा दिया।
फूलों का काम करते हुए ज्योतिबा का पढ़ाई से मन नहीं हटा। बाद में एक अंग्रेज ने जब उनके पिता को समझाया तो वे ज्योतिबा को फिर से स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए राजी हो गए। ज्योतिबा ने खूब मेहनत की और मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी की। घर के लोग चाहते थे कि ज्योतिबा कोई सरकारी नौकरी करे। लेकिन तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को देख कर वे हैरान थे। ज्योतिबा महान संतों की जीवनियां पढ़ते थे। पढ़-लिख कर उन्हें यह समझ आ गया कि भगवान के सामने ऊंच-नीच और गरीब-अमीर का कोई भेद नहीं है। यह सब बातें मनुष्य निर्मित थीं। लेकिन समाज में धर्म और जाति का भेदभाव था। सत्य और दया के लिए कोई जगह नहीं थी। लोग एक दूसरे को लूटते थे।
एक बार ज्योतिबा अपने किसी दोस्त की शादी में गए थे वहां पुरोहित ने उन्हें विवाह समारोह में शामिल होने से रोक दिया। ज्योतिबा इस अपमान को नहीं भूल सके और इस अपमान की वजह से उन्होंने तय कर लिया था कि उन्हें अब समाज में बदलाव के लिए काम करना है। उन्हें दलितों के कल्याण के लिए और मानवता के विकास के लिए काम करना है। स्त्रियों के विकास के लिए काम करना है। उनके समय विधवा हो जाने वाली महिलाओं को देखना भी अशुभ माना जाता था।
ज्योतिबा को महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव ने पूरी तरह से झकझोरा था। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई के साथ लड़कियों की शिक्षा के लिए जो पहल की वह बेमिसाल है। उन्होंने ‘सत्य शोधक समाज’ का गठन किया। ‘दीनबंधु’ नाम से अखबार निकालते थे। आखिरी समय दाएं हाथ में मुश्किलें आई तो उन्होंने बहुत सालों तक बाएं हाथ से लिखा, लेकिन लोगों को जगाने के लिए लिखने से नहीं रुके।
ज्योतिबा की पुण्यतिथि पर उनको असीम श्रद्धांजलि। खुशी की बात है कि पुणे में उनकी कर्मभूमि को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित करने की शुरुआत हो गई है।