कथा आयाम कहानी

बूमरैंग

अपराजिता अनामिका II

रसोई से आती आवाजों ने निशा की नींद मे खलल डाल दी थी । अपना गाऊन लापरवाही से बाँधती वो किचन के दरवाजे पर आ खड़ी हुई । उसकी तरफ पीठ किये मैं गैस जलाने की तैयारी मे था ।

” आज बहुत जल्दी जग गयें आप …! ” उसकी उनींदी आवाज सुनकर मैंने बगैर पीछे मुड़े हीं  जबाब दिया  ” ऐसा नहीं , आज तुम जल्दी जग गयी हो । अभी तो मात्र साढ़े छः बजे हैं…”

” रात को सोईं हीं कब ? ” बीच मे ही बात काटती हुई निशा ठुनकती सी बोली और सामने रखे चेयर पर बैठ गयी ।

‘ मैं भी कब सोया भला ।’ दिल ने हल्की सी सरगोशी की मगर प्रत्यक्ष मे कुछ कहा नहीं । गैस पर चढ़ी हुई पतीली मे पानी डाला तो सन्न की आवाज के साथ भाप उड़ी …

फ्रिज से दूध निकालने को पलटा तो निशा पर नजर पड़ी जो ऊंघती उबासी लेती दोनों हाथ उपर किये अंगड़ाई ले रही थी । बेतरतीबी से लपेटे हुए सुर्ख लाल रंग की नाइट गाऊन…आँखे के नीचे फैला हुआ काजल…चेहरे पर झूलती लटें …

खिड़की से छन कर आती सुबह की किरणें जहाँ उसके चेहरे का नूर दोगुना कर रहें थें वहीं ठंढ़ी हवाएं उसके घुंघराली लटों को छेड़ती हुई उसकी मासूमियत मे चार चांद लगा रहे थें । इस उम्र मे भी निशा का आकर्षण लेशमात्र कम न हुआ था । मेरे चेहरे पर एक पल को गर्व के भाव छितराए अपनी पत्नी को देखकर मगर दूसरे ही पल काफूर हो गये । मैंने तठस्थता दिखाते हुए कहा

” आज कल मार्च इंडिंग चल रहा न …बहुत प्रेशर है काम का ,थक जाता हूँ ।”

” इतना भी मत थका करो कि…” निशा की आँखों के डोरे गहराने लगे थें ..शायद नींद पूरी न होने की वजह से ..

” तुम लोगों के लिए ही तो करता हूँ …ताकि तुम्हारी जरुरतों की पूर्ति मे कोई परेशानी न हो ..वरना अकेले का पेट तो कैसे भी भर जाए ।” मैंने जानबूझकर कर टालने की गरज से कहा और फ्रीज से दूध निकालने लगा ।

” जरुरतें सिर्फ पेट भरने तक ही नही होतीं साहब …” जाने कब निशा पीछे आ खड़ी हुई और अपनी बाँहों का घेरा मेरे गले मे डाल कर लिपट  गयी…उसकी गर्म साँसें मैं अपनी कनपटियों पर महसूस कर रहा था  ।

तभी सूं सां की आवाज करता गैस पर रखा चाय का पानी खौलने लगा …धीरे से उसके बाँहों की

गिरफ्त से निकल कर मैं खौलते पानी मे चायपत्ती डालने का उपक्रम करने लगा । नजर पतीले पर ही टिकी थी जहाँ लगातार गहराता स्याह रंग मन के अंदर दबे गुबार का प्रतिनिधित्व करते से लगें ।अजीब सी बेचैनी होने लगी थी …जल्दी से शक्कर डाल कर दूध मिलाते हुए मानो मैंने खुद को स्याह से उबारना चाहा । पीठ पर झुकी हुई निशा को मेरे चेहरे का पल प्रति पल बदलता रंग दिख तो नहीं रहा था मगर शायद उसने मेरी बेरुखी भांप ली थी ।

झटके से गैस बंद करती हुई वो बिलकुल सामने आकर खड़ी हो गयी । उसके चेहरे पर शरारत झलक रही थी जिस से आँखों की सुर्खी और बढ़ गयी…बड़ी अदा से मुस्कुराती हुई उसने अपने हाथों से मेरी हथेलियों का थामा।

अचानक हुई इस हरकत से मै बेजार सा उसके बदन की दहक से पिघलता सा महसूस करने लगा  जो पल पल मुझे अपने आगोश मे लिए जा रही थी …एक अजीब सी खुमारी से घिरता हुआ मैं कब उसे अपनी बाँहों मे भींच बैठा ये ख्याल न रहा …महज एक पतली सी बेल्ट जिसकी ढ़ीली पकड़ से बँधी नाइटी रेशम सी फिसलती हुई खुलती चली गयी …गर्म साँसे और सुलगते होंठों को अब बखूबी महसूस कर रहे थें हम एक दूसरे के पूरे अस्तित्व पर …अधिकार जताता हुआ खुला आमंत्रण …एक तूफान…जो खुद मे समेटे लिए जाने को आतुर …

लेकिन अचानक ही जैसे स्वादिष्ट खीर के निवाले मे कंकड़ आ गया हो … मेरे जेहन मे पिछले रात की बहस तैर गई जिसने रात भर करवटों मे जगाए रखा था मुझे …और भी ढ़ेरों घटनाएं आँखों मे घूमने लगीं जिनकी वजह से मै कुछ महीनों से असहज होता रहा था ।  एकदम से कड़वा कसैला हो गया मन …आज अन्य दिनों की तरह इस आमंत्रण ने मुझे बहाव मे लेकर बहने के बजाए  ला पटका था कुछ कड़वी यादों के तपते रेत और बुरे अनुभवों के नुकीले कंकड़ भरे किनारे पर …

“शायद कोई है बाहर ..” कहता हुआ मैं निशा की गिरफ्त से छूटता लम्बे कदमों से किचन से बाहर निकल आया । निशा हतप्रभ सी खुद को समेटती बाथरूम की ओर बढ़ गयी । उसे किचन से बाहर जाते देख मैंने जल्दी से अपनी चाय कप मे उड़ेली और बाहर लॉन मे आकर बैठ गया ।

‘ ये क्या हो रहा है मुझे …क्यों ऐसा रुखा व्यवहार कर रहा हूँ निशा के साथ …क्या बदल गया हूँ मैं ?’ दिल की कसमसाहट उभरी ।

‘ मैं क्यों बदलूं भला ? बदल तो निशा गयी है । ये अभी इतने बरसों तक कैसी छुई मुई सी थी …अचानक दो -तीन सालों मे ये परिवर्तन? जिसके मुँह से कभी दो शब्द न निकलते थें वही अब हर बात पर बिना बहस शांत नही होती … पति पत्नी के नीजि संबंधो मे लगभग 18 साल तक जिसने कभी अंधेरे मे भी शर्म की चादर से बाहर न झांका हो  वो अब इस कदर मुखर प्रणय…’

” ये लिस्ट पकड़िए और याद से सामान लेते आइयेगा । ” निशा की आवाज से ध्यान टूटा ।

“कभी भूलता हूँ जो …” मैं सामान्य दिखने की कोशिश मे जबरन मुस्कुराया ।

“हाँ आखिर दुनियावी जरुरतों की पूर्ति हीं तो आपका ध्येय है ।” तंज कसती शुष्क आवाज मुझे छेदती चली गयी । मैं कुछ बोलता तब तक वो पांव पटकती अंदर चली गयी । 

एक बेहद जरूरी मीटिंग के लिए मुझे रायपुर निकलना था । लगभग तीन चार दिनों का टूअर था  इसलिए मैं इस मुद्दे को तूल न देकर अंदर आया और अपनी पैकिंग मे लग गया ।

जाते वक्त भी निशा के चेहरे पर बेरुखी साफ झलक रही थी ।  गेट पर हाथ हिलाती , तना हुआ चेहरा लिए वो एक ड्यूटी निभा रही थी मानों…

एयरपोर्ट की औपचारिक कार्रवाई के बाद दो घंटे के बोझिल हवाई सफर के लिए खुद को तैयार कर रहा था । फाईल खोलकर मीटिंग की रुपरेखा और प्रजेंटेशन पर सोचने की कोशिश करता रहा मगर पल भर को भी दिमाग कंसंट्रेट नही हो पा रहा था । थककर फाइल बंद की और आँखें मूंदकर खुद को रिलैक्स करने की कोशिश करने लगा ।

  ” योर कॉफी सर ।” एयरहोस्टेस की आवाज पर आँखे खुलीं तो नजर सामने की सीट पर बैठे जोड़े पर चली गयी …नयी नयी शादी हुई लग रही थी …पति न जाने क्या कहता कि पत्नी का चेहरा गुलनार हुआ जाता था …शर्माई हुई लाज से दोहरी होती वो झूठी नाराजगी जताती आँखे दिखाती और फिर सर झुका लेती । अचानक ही निशा का चेहरा कौंध गया मन मे …

” हमने हमारी बिटिया की परवरिश बेटों जैसी हीं की है …कभी कुछ गलती करे तो दिल पर मत लीजिएगा दामाद जी …ये हमरे परिवार कि बड़ी बेटी है ..थोड़ा अधिक लाड़ मे पली है …”  सासूमाँ और श्वसुर जी भरे गले से बोल रहे थें विदाई के समय …

” सुनो निशा , माना की तुमने उच्च शिक्षा प्राप्त की है लेकिन हमारे परिवार मे बहुएं नौकरी नहीं करतीं…वचन दो कि कभी तुम इस मुद्दे पर बात भी नही करोगी । “

सुहागरात को मैंने मुँह दिखाई कि रस्म के ठीक बाद कहा था निशा से । उसकी बड़ी बड़ी आँखो मे तब भी लाली उतर आई थी लेकिन उसने सर झुका कर सहमती मे गर्दन हिला दी थी ।

धीरे धीरे गुजरते वक्त के साथ  गृहस्थी से जूझते/रमते हम कुछ सालों तक भूल ही गये कि किसकी शैक्षणिक योग्यता कितनी है …जुड़वाँ बच्चों की परवरिश मे न जाने कितनी बार हालात ऐसे भी बनें जब मैं अपने काम के दबाव और गृहस्थी की पेचिदगियों के कारण उस पर अपना गुस्सा उतारता ..लेकिन उसने कभी पलट कर जबाब नही दिया …खामोशी से बच्चों को लेकर कमरे मे बंद हो जाती ताकि मेरी बड़बड़ाहट से बच्चों की पढ़ाई पर असर न पड़े । हफ्तों चुप रहती ..एक औपचारिकता की तरह लगी जुटी रहती सभी कामों में लेकिन चेहरे पर फैली  बेबसी , कसमसाहट जिसे मै देखकर भी अनदेखा कर जाता था ।

हालांकि उसके समर्पण मे कभी भी कमी नही रही चाहे घर गृहस्थी या बच्चों की कैसी भी परेशानी या मानसिक तनाव मे हो । शायद उसने एक बात नोटिस कर ली थी कि डाइनिंग टेबल और बिस्तर पर मेरी असंतुष्टि घर का माहौल बिगाड़ने मे प्रमुख भूमिका निभाते हैं । लेकिन मुझे उसका मशीनी अंदाज खिजा जाया करता ..कभी कभी वो दबे घुटे शब्दों मे अपना विरोध रख देती

“मुझसे रति बनने की अपेक्षा मत ही रखें क्योंकि मेरा कोई खास इंट्रेस्ट नही इस मे ।”

उसकी अपेक्षा रहती कि मैं उसकी तकलीफों मे उसके पिता या बड़े भाइ जैसे किरदार निभाता हुआ उसका सर अपनी गोद मे रखकर सहलाऊं , बातें करुं ,परेशानियों का हल सुझाऊं या हौसला दूं ..लेकिन उसके करीब लेटते ही मेरे अंदर का पुरुष जग उठता और फिर उसकी तकलीफ या परेशानी पर हावी हो जातीं मेरी आदम भूख ..उसने कई बार ये शिकायत की भी मुझसे और मै झल्ला कर चीख उठता

“ये सब फिल्मी तमाशे मुझे नही आतें और तुम भी मुझसे ये उम्मीद मत रखा करो …जिस तरह तुम्हें मेरी इच्छा मे इंट्रेस्ट नही वैसे ही मुझे तुम्हारी इस पागलपंती मे कोई रुचि नहीं।”

फिर हफ्तों खामोशी पसरी रहती ..यंत्रवत सभी अपनी अपनी  दिनचर्या मे लगे रहतें …

लगातार प्रमोशन और काम के दबाव मे मैंने कभी ध्यान ही  नही दिया कि समय किस तरह फिसलता जा रहा और जब दोनों बेटे बारहवीं की परिक्षा डिस्टिंक्शन लेकर उतीर्ण हो गये तब पता चला कि लगभग सत्रह साल का सफर तय कर चुके हैं हम हमारे गृहस्थ जीवन का…

तालियों की गड़गड़ाहट और बधाइयों के सिलसिले ने सारा श्रेय निशा को दिया और खुद बच्चों ने भी हर बार इस पर मुहर लगाएं …तब पता नहीं क्यों सब जानते हुए भी उसके उच्च शिक्षिता होने का पहली बार भान हुआ मुझे …

अगले आठ महीने भी खूब दौड़भाग वाले बने रहे । एक ने मेडिकल तो दूसरे ने आईआईटी की प्रवेश परिक्षा पास कर ली थी ..दोनों के एडमिशन और हॉस्टल की व्यवस्था मे खूब परेशान रहें हमदोंनो …एक बात जो तब नोटिस नही की थी मगर इन दिनों बखूबी देख रहा था … हॉस्टल की व्यवस्था के समय निशा बहुत चौकन्नी थी …पूरी व्यवस्था पर उसने खूब चिंतन मनन किया था दोनों बेटों के साथ । पूर्ण संतुष्टि के बाद उन्हें छोड़कर लौटते हुए बोली थी

“मेरा काम लगभग खत्म है बच्चों… अब तुम्हारी बारी है ..साबित करो खुद को ।”

और बच्चों ने गले लग कर फुसफुसाते हुए कहा था “मम्मा अब आप भी जी लो अपनी जिंदगी ।”

मैंने तब ठहाके लगाए थे इस बात पर

” अपनी जिंदगी ? यही तो जी रहीं थीं अब तक ! पहले तुम्हारी मम्मा ने तुमलोगों का जीना हराम कर रखा था टोकाटाकी करके कि ऐसा नही, वैसा नही …अब मेरी शामत …क्योंकि इन्हें तो तानाशाही की आदत है अब अकेला बचा मैं घर मे …शामत आनी ही है मेरी …” और वाकई स्थिति जटिल होने लग गयी , दो सालों मे ही …

लगातार सीटबेल्ट बाँधने की उद्घोषणा ने मेरे  विचारो पर अंकुश लगाया …लगभग बीस वर्षों की यात्रा पर था मै इन दो घंटों मे …लेकिन समस्या का हल या यूँ कहूं की समस्या की मूल वजह तक समझ से बाहर थी । इस तिलस्मी गुत्थी का एक सिरा तक हाथ न लगा ।

तीन दिन दम मारने की भी फुर्सत नही मिली । एक दिन दोपहर को जरा सा समय मिलने पर फोन लगाया तो निशा ने व्यस्त हूँ का मैसेज भेज कर फोन काट दिया । मन की उलझन और खीज बढ़ती जा रही थी । आखिर क्यों इस तरह बदल गया है निशा का रवैया ..यही सवाल मथता रहा ।

लौटते वक्त ट्रेन की टिकट ली थी क्योंकि कुछ अन्य औफिसीयल काम भी निपटाने थें । रायपुर से निकलने के बाद बीच के कुछ स्टेशनों पर एक दो पार्टियों से मिलना था कंपनी के नये प्रोजेक्ट के लिए…वे भी साथ ही चलने वाले थें । मुझे ट्रेन की यात्रा बहुत पसंद तो नहीं थी लेकिन फिलहाल कोई  औप्शन नही था । पिछली बार दो घंटे की हवाई यात्रा इस बार लगभग सोलह घंटे की लंबी यात्रा मे तब्दील हो गयी । सेकेंड क्लास एसी बोगी मे निचली बर्थ पर अपना सूटकेस रख कर मैं जूते खोलने के लिए झुका ही था कि सर पर कोई चीज टकराई । मेरे देखने से पहले ही आवाज आई

“ओह्ह् सौरी ..रियली सौरी …अचानक ही हाथ से फिसल गया ये …।” सर उठाकर देखा तो सामने एक सभ्रांत सज्जन क्षमाप्राथी बने खड़े थें । गोल्डन कमानी वाले चश्मे को नाक पर टिकाए वे अपने हैंडबैग के अचानक फिसल कर मुझसे टकरा जाने पर शर्मिंदा थें । नजरें मिली और लगभग दो चार सेकेंड बाद ही माहौल बदल गया ।

” अरे शर्मा तू ? भाड़ मे गयी सौरी हुंह । पता होता कि ये तू है तो बड़ा वाला सूटकेस ही पटकता तेरे  ऊपर ।”

” ओये खुराना तू ? ह़क है तेरा ..आजा ला पटक दे सूटकेस ।” मैं अपने पुराने मित्र को देखकर खुशी से उछल पड़ा और हम गले लग कर इतने जोश मे झप्पियां लेने लगे कि ये तक भूल गएं कि आस पास के लोग इस भरत मिलाप के मजे ले रहें हैं ।

” गजब करामात है ऊपरवाले की भी …कब से सोच सोच कर कुढ़ रहा था कि इतना लंबा सफर कैसे कटेगा । भगवान से देखा नही गया और तू मिल गया । लगभग दस साल बाद मिल रहे हैं हम ..” मैं वाकई बहुत खुश था ।

” हाँ , अभी पिछले साल ही यहाँ शिफ्ट किया हूँ ।” खुराना चहका ।

” मतलब फाइनली देश लौट आए ?”

” हाँ , तुम्हारी भाभी मीता को परदेश मे मरने से डर लग रहा था ..हाहाहा ।”  खुराना जरा भी नहीं बदला था ।

” हाँ भई तुम ठहरे इतने बड़े मनोवैज्ञानिक …तुम्हें सब पता लग जाता होगा कि किसके मन मे क्या चल रहा ।” पता नहीं क्यों आवाज बुझ सी गयी मेरी । शायद निशा से जुड़े सवाल और हालात ने मन की बोझिलता को आवाज पर हावी कर दिया था …

” मज़ा आ गया …बहुत स्वादिष्ट कोफ्ते थें …मगर निशा भाभी के हाथों के कोफ्तें जितने नहीं …अह्ह्आ क्या लाजबाब स्वाद रहता था उनके बनाए खाने मे …अब भी याद है मुझे ।” परम तृप्ति का एहसास दिलाती उसकी डकारों के बीच बीच मे ये भाषण अनवरत था ।

“हाँ , लेकिन याद है कि शादी के वक्त कैसी फूहड़ थी वो रसोई के मामलों मे ..वो तो नीता भाभीजी ने उसे सिखाया और …”

” तेरी आदत नहीं गयी शर्मा …हमेशा ऐसे ही बोलता है । अरे भई , ये भी तो बोल सकता है कि कितनी लगन और दिल लगा कर उन्होंने मेहनत की और हर वो व्यंजन बनाने मे निपुणता हासिल कि जो तुम्हारे पसंद की थीं … और तू  उनकी तारीफ मे दो शब्द बोलने की जगह झट से कभी नमक कम है तो कभी मिर्चीं अधिक कह कर डाइनिंग टेबल पर भी माहौल खराब कर दिया करता था । बिचारी का इत्ता सा मुँह रह जाता था ….” खुराना मेरी बात काटता बीच मे ही बोला ।

” हाँ शायद उसी बात की भड़ास अब पूरी कर रही …” मै भिनभिनाया ।

” भड़ास ? क्या मतलब ? और ऐसे हताश क्यों लग रहा तू यार ।” उसने मीठा खाते हुए मुझ पर अपनी पैनी दृष्टि जमा दी ।

“कुछ खास नहीं ।” मेरी समझ मे नही आ रहा था कि क्या और कैसे कहूँ । चेहरे पर फैली मायूसी और तनाव उसकी नजरों से छिप नही सका । वो अपनी बर्थ से उठकर मेरी बर्थ पर आ बैठा ।

” कुछ तो जरूर है…देख तू न मुझे बहला मत ..वैसे भी तुझे अच्छी तरह जानता हूँ कि मन की बात छिपाना आता नही तुझे । अगर मै गलत नहीं तो तेरे और निशा भाभी के बीच सब कुछ ठीक नही चल रहा …” उसने कंधे थपथपाते हुए कहा ।

” ठीक है या गलत ..यही पेंच तो सुलझा नही पा रहा मैं …”

” अंताक्षरी मत खेल । कुछ बताएगा भी …शायद मै समझ सकूं ।” खुराना ने हल्के से पीठ पर धौल जमाई ।

खुराना से दोस्ती बहुत पुरानी और गहरी थी । एक तरह से मैं उस पर पूरा भरोसा कर सकता था । दूसरे एक मनोवैज्ञानिक होने के कारण शायद वो मेरी परेशानी का हर पहलू ज्यादा अच्छी तरह विश्लेषित कर सकता था । कुछ पल के मौन के बाद मैंने पिछले आठ सालों की गाथा सुना दी । घर- गृहस्थी , बच्चों की सफलता और अपनी विजय गाथा सबकुछ …मगर असल मुद्दे पर गाड़ी अब भी अटकी थी कि कहाँ से शुरू करुं ..

” ये तो सामान्य जीवन की बातें थीं …तू वो बता जिसने तेरे पूरे वजूद को अपने प्रभाव मे ले रखा है यारां ।” सुपारी और सौंफ को हथेलियों मे मसलते हुए खुराना की एक्स-रे नजर घँसी थी मुझपर ।

” कुछ खास नहीं ..बस अचानक ही निशा बहुत मुखर हो गयी है । हर बात पर बहस , हर चीज मे नुक्स …यहाँ तक कि रिश्तेदारों के घर आने की बात सुनकर भड़कना तक …”

” क्या बोल रहा यार ? निशा भाभी तो साक्षात अन्नपूर्णा हैं । सभी का प्यार से आवभगत करती हैं वे तो …”

” ये सब सपना हो गया यार । अभी पिछले महीने बड़े भाई साहब दो दिन की छुट्टियों मे यहां आना चाहते थें । साथ ही मेरे पहचान के आँखों के डॉक्टर से मिलने का भी प्रोग्राम था मगर निशा ने दो टूक जबाब दे दिया कि वो उन्हीं दिनों बच्चों को स्कूल के कल्चरल प्रोग्राम के लिए लेकर बाहर जाने वाली है और …”

” एक मिनट , क्या कहा ? कल्चरल प्रोग्राम , बच्चे ? मतलब भाभी ने स्कूल ज्वाइन कर लिया है क्या ?” खुराना बीच मे आश्चर्य मिश्रित आवाज मे पूछ बैठा ।

” स्कूल नही …उसने खुद का डाँस क्लास खोला है …” न चाहते हुए भी तल्ख हो गया मेरा स्वर

” वाह ! ये तो बढ़िया है । तेरी बात भी रह गयी और उन्हे भी उनके पसंद का टाइमपास मिल गया क्यों कि वे अन्य औरतों की तरह फालतू की गॉसिप या गहने तोड़ो जोड़ो जैसी फिजूल की कवायद मे कभी नही दिखीं ।” खुराना आश्वास्त होकर खुशी से चहका ।

” ख़ाक बढ़िया है । यहीं से तो बवंडर बन गयी जिंदगी …” मैं अचानक ही फट पड़ा । दो बरसों का दबा गुबार बलबलाने लगा ।

” बच्चों के जाने के बाद अकेली होती निशा ने शाम के समय खुद को भरतनाट्यम के प्रैक्टिस के बहाने व्यस्त कर लिया था । एक तरह से डाँस उसकी प्रैक्टिस और मनोरंजन के साथ फिटनेस बनाए रखने का कारण भी था । एकाध महीने बाद ही आस पड़ोस के छोटे बच्चे और उनके पैरेंट्स के रिक्वेस्ट शुरु हो गयें कि ‘आप ट्यूशन दो ‘। मैंने भी हरी झंडी दिखा दी कि अब अधिक जिम्मेदारी नहीं है और घर मे रहकर उसका कुछ समय वो अपने हिसाब से गुजार रही है तो कोई दिक्कत नही ।

धीरे -धीरे उसका मिज़ाज बदलना शुरू हो गया । सबसे पहले उसका ड्रेस सेंस बदला । हर वक्त साड़ी या सूट पहनने वाली निशा अब फैशनेबल लौंग गाऊन ,जींस पहनना शुरू कर दी । पहले पहल तो अटपटा सा लगा मगर मेंटेंन फिजिक और उन कपड़ों मे निखरती खूबसूरती देखकर मैं हामी भरता गया …” मैंने एक पल रुक कर खुराना की ओर देखा जिसकी आँखें अजीब से अंदाज मे सिकुड़ी हुई सामने की ओर टिकी थी । मेरे चुप होने पर उसने गर्दन हिला कर आगे बताने को कहा ।

” हर हफ्ते के आखिरी दिन मे निशा खास डिश बनाया करती थी …लेकिन छः महीने बीतते न बीतते ये लिस्ट छोटी हो गयी । अधिकतर समय फोन पर बतियाती रहती या फिर कभी पार्लर या कभी किटी …दो चार स्वयंसेवी संस्थाओं से भी जुड़ गयी थी । मैं हर बात को हल्के मे ले रहा था क्योंकि थोड़ी तरजीह से निशा न सिर्फ बेहद खुश रहा करती बल्कि मुझे भी एक अलग ही निशा मिलती थी …बिस्तर पर ।

शायद उसने बीस सालों के बाद आजादी और अपनी इच्छाओं को जीना शुरू किया था इस खुशी मे मुझे सपोर्ट करने लगी थी । लेकिन एक चीज जो अब निशा के व्यवहार मे स्पष्ट दिख रहा था वो थी उसकी तुनकमिजाजी । हर बात मे वो खुद को , अपनी क्षमताओं को अधिक जताना या मुझे कमतर साबित करना नही भूलती थी । कभी खाने मे कुछ कमी बताया तो ‘ खुद बना लिया करो ‘ का जबाब पलट देती । कभी सफाई या किसी चीज को अव्यवस्थित देख कर टोका तो सीधा कह देती ‘अब मुझसे अधिक मेहनत नही होती ‘ …”

गला खुश्क हो आया था मेरा । इसलिए रुक कर दो घूँट पानी पिया और खुद को तैयार करने लगा था आगे की बात के लिए …

” लगभग एक साल बीता होगा बच्चों को घर से गये और निशा के कायाकल्प को …एक दिन किसी बात पर मैंने गुस्से मे कुछ बोल दिया था …आपे से बाहर हो कर चीखीं थी निशा ‘ अब बच्चे नही हैं घर मे कि जिनकी वजह से मैं आपकी हर ऊलजलूल बर्दाश्त करूं …यदि सम्मान चाहिए तो मान देना सीख लीजिए और खबरदार कि फिर कभी मुझ पर गलत आरोप लगाया ‘

और उसके बाद तो नियम सा हो गया कि हर एक बात पर वो चार बात जरूर पलट देती । मैंने बेवजह के बहस से बचने के लिए खुद पर ही कंट्रोल करना शुरू कर दिया ।

देर रात तक कानों पर हेडफोन चढ़ाए गाने सुनना या नॉवेल पढ़ना, आए दिन सुबह देर से जगना उसकी आदत हो गयी । नतीजा मै सुबह खुद अपनी चाय बनाने लगा । कभी टोका तो साफ बोल देती ‘ जरा सी चाय बना ली तो कौन सा पहाड़ टूट गया ..यहाँ दूसरे मर्दों को देखो खाना तक बनाते हैं ‘ ..मतलब मेरी हर बात का जबाब था उसके पास…”

” एक मिनट , निशा भाभी शादी के पहले भी ऐसी ही छुईमुई थीं ? मतलब चुप , खामोश , मशीनी ..?” खुराना अब भी बहुत गंभीर मुद्रा मे था ।

” छुई मुई ? तोपचंद थी वो कॉलेज मे ।” मै फिर चिढ़े स्वर मे बोला ।

“सुन यार , तू न अपनी खिसियाहट छोड़ कर सीधा जबाब दे ।” खुराना पहली बार थोड़ा गुस्से मे दिखा ।

” फिजिक्स मे गोल्ड मेडलिस्ट थी …वाद विवाद , कल्चरल प्रोग्राम मे कॉलेज की प्रतिनिधि थी । नेतागिरी अलग …तभी तो श्वसुर जी ने कहा था कि बेटे जैसी परवरिश की है …” मेरी खीज चरम पर थी ।

“हम्म्…मतलब झांसी की रानी वापस लौट आईं हैं । “

“मतलब क्या है तेरा ?”

“देख शर्मा , बुरा मत मानना ..तूने शादी के बाद भाभी की हर इच्छा को एक सीरे से नकारा …कभी परिवार तो कभी समाज के नाम पर … जब भी उन्हें मानसिक संबल की जरूरत हुई उन्होंने खुद को अकेला पाया । इस वजह से उनके अवचेतन मे बस एक ही चीज बैठती चली गयी …बच्चे और उनका भविष्य …जिसके लिए अपनी फितरती अंदाज और नैसर्गिकता को हर दिन दफन करती रहीं खुद मे । लेकिन अब प्राथमिकताएं बदल गयीं हैं । ” खुराना निश्वास लेता हुआ बोला ।

” चलो मैंने ये सब मान लिया लेकिन इन दो सालों मे फीजिकल रिलेशनशिप को लेकर उसका मुखर  संवाद या सिर्फ अपनी इच्छा रहने पर ही सपोर्ट ..” आखिर मैंने अपनी दुखती रग सामने रख ही दी ।

खुराना ने चौंक कर मेरी तरफ देखा …कुछ देर के लिए सन्नाटा खिंच गया हमारे बीच ।

” बूमरैंग का नाम सुना है ?” खुराना ने चश्मे को उतार कर सीधे मेरी आँखों मे झांका ।

” अह हाँ … नहीं शायद ” मैं हकलाया ।

” ऐसा हथियार जो प्रतिद्वंदी पर वार करने के बाद द्वंदी के वापस दोगुने वेग से लौटता है …लेकिन यदि द्वंदी सिद्धहस्त न हो तो ….” खुराना मेरे कंधों को दबाता उठ खड़ा हुआ ।

उसकी आँखों के भाव , निशा का पिछले दो सालों से बदलता व्यवहार , और मेरी खुद की  “बूमरैंग” ….सारी गुत्थियां सुलझ कर और भी बेतरह उलझती दिख रहीं थीं मुझे …

अपराजिता अनामिका के सद्य प्रकाशित कहानी संग्रह ‘नमकीन चेहरे वाली औरत’ से साभार। लेखिका की अनुमति से। 

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