कविता काव्य कौमुदी

प्रेम है…

डाॅ. कविता भट्ट II

मुस्काते हुए धीमे से बोला चाँद-
अरे झील! तुम बहुत सुंदर हो।
मैं तुमसे अथाह प्यार करता हूँ,
तुम्हें देखना चाहता हूँ जीभर।
झील ने मुस्काते हुए उत्तर दिया-
मुझे निहारना तो सामान्य बात है;
सुनो! विशेष तो मुझमें उतरना है।
चाँद उतर गया, गहरी झील में।
वो बोली उतरना सामान्य बात है-
नितांत भिन्न तो मुझमें डूबना है।
चाँद डूब गया, उस गहरी झील में।
अब झील मंद मुस्काते हुए बोली-
मुझमें डूबने का नहीं बड़ा महत्त्व,
किंतु अति विशिष्ट है, डूबे रहना।
चाँद पूरा डूब गया मुदित झील में।
झील ने आँखें मटकाते हुए कहा-
सुनो चाँद! उबरना तो बहुत दूर;
यह अब कभी सोचना भी मत।
चाँद अब पूरा झील में खो चुका
प्रेम है…उतरना…डूबना…डूबे रहना…

साभार गूगल

2 -और भी सुकुमार
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जब वो हँसता है ना;
तो लगता है जैसे –
असंख्य गुलाबी फूल
भोर की लालिमा में
स्नान कर; हो गए हों-
और भी सुकुमार!
जैसे रजनीगंधा ने
बिखेरी हो सुगन्ध
आँचल की अपने!
जैसे मोती- भरे सीप
भर लाई षोडशी लहर
किनारे पर उड़ेल गई!
या प्रेयसी ने पसारी हों
अपनी प्रतीक्षारत बाहें!
चुप से रहने वाले उस
गम्भीर प्रेमी के लिए
जिसे मुक्त पवन भी
न कर सकी हो स्पर्श!

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डॉ कविता भट्ट

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