विनीत मोहन_फ़िक्र सागरी II
जाने ये कैसा जमाने का असर लगता है
आज इंसान को इंसान से डर लगता है।
मेरी फितरत ही नहीं शोर शराबा करना
दर्द होता है मगर जख्म जिधर लगता है।
सारी दुनिया में रहे आज तलक हम रुसवा
उसके दर जाना कयामत का सफर लगता है।
बात ही बात में पत्थर जो उठा लेता हो
वो खतावार मुझे काँच का घर लगता है।
मुझमें ये ताब कहाँ उसके मुकाबिल ठहरूँ
चाक सीने में निगाहों का जो शर लगता है।
कारवां याद का तो साथ चला था लेकिन
जिस्म बेजान मुझे खुश्क शजर लगता है।
फ़िक्र के साथ नहीं कोई भी रंजिश उसकी
पास होकर वो मुझे दूर मगर लगता है।