काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

जाने ये कैसा जमाने का असर लगता है

विनीत मोहन_फ़िक्र सागरी II

जाने ये कैसा जमाने का असर लगता है
आज इंसान को इंसान से डर लगता है।

मेरी फितरत ही नहीं शोर शराबा करना
दर्द होता है मगर जख्म जिधर लगता है।

सारी दुनिया में रहे आज तलक हम रुसवा
उसके दर जाना कयामत का सफर लगता है।

बात ही बात में पत्थर जो उठा लेता हो
वो खतावार मुझे काँच का घर लगता है।

मुझमें ये ताब कहाँ उसके मुकाबिल ठहरूँ
चाक सीने में निगाहों का जो शर लगता है।

कारवां याद का तो साथ चला था लेकिन
जिस्म बेजान मुझे खुश्क शजर लगता है।

फ़िक्र के साथ नहीं कोई भी रंजिश उसकी
पास होकर वो मुझे दूर मगर लगता है।

About the author

विनीतमोहन औदिच्य

श्री विनीत मोहन औदिच्य - १० फरवरी, १९६१ को उत्तरप्रदेश के करहल में जन्मे आप , संप्रति उच्च शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश शासन के अंतर्गत शासकीय महाविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। एक सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार और सिद्धहस्त हिन्दी कवि के रूप में उनकी प्रतिभवान लेखनी हिंदी की विभिन्न साहित्यिक विधाओं में मानव जीवन के हर एक पहलू को स्पर्श करती है। उनके प्रकाशित 5 एकल संग्रहों व 9 साझा संग्रहों में 'खुशबु ए सुख़न', 'काव्य प्रवाह', 'कारवां ए ग़ज़ल', 'भाव स्रोतस्विनी' एवं 'अंदाज़ ए सुख़न' सम्मलित हैं। अंग्रेजी के सोनेट कवियों को हिंदी में अनूदित करने की उनकी अभिरुचि को 'प्रतीची से प्राची पर्यंत' में एवं नोबेल सम्मान विजेता पाब्लो नेरुदा के हंड्रेड लव सोनेट्स का हिंदी अनुवाद 'ओ, प्रिया! में पूर्णता प्राप्त हुई है।

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