आलेख कथा आयाम

दूसरों की मदद करने वाले, जब खुद हो जाते हैं मोहताज

संजय स्वतंत्र II

पिछले दिनों दिल्ली में हुई घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया। खबर जमनापार के पॉश इलाके की थी, जहां बुजुर्ग दंपति के शव का पता तीन दिन बाद चला। उसी घर में दूसरे भाई रहते हैं। मगर न उन्होंने खबर ली और न अमेरिका में रह रहे बेटे ने। दोनों पति-पत्नी अपनी-अपनी स्वास्थ्य समस्याओं से परेशान। स्वाभिमान की वजह से उन्होंने किसी की मदद नहीं मांगी। बाहर से खाना मंगवा कर समय गुजारते रहे। और एक दिन चल बसे। भूख लगी है यह कहने की ताकत तक न बची थी एक दिन।

… तो यह है हमारे समाज में बुजुर्गों की हालत। ये दंपति तो समर्थ थे, अच्छी खासी पेंशन थी। फिर भी कोई पूछने वाला नहीं। जरा उनकी सोचिए जिनके पास जीने के लिए आर्थिक साधन नहीं। इलाज के लिए रुपए नहीं। नाती-पोते के हाथ में धरने के लिए पैसे नहीं। उनका क्या हाल होगा। अपने ही घर में किसी कोने में मन मसोस कर रहते इन बुजुर्गों की कोई सुध नहीं लेता। पड़ोसी न मित्र, न सोसाइटी। सरकार तो कतई नहीं। घर के लोग यही चाहते कि बोझ बन गया बूढ़ा अब इस दुनिया से विदा ले। यह उस देश का हाल है जहां चिकित्सा सुविधाएं बेहतर होने से बुजुर्गों की आबादी बढ़ रही है। अगले दस साल में भारत में बुजुर्गों की संख्या 13 फीसद से अधिक होगी। उस समय उपेक्षा, अकेलापन और आर्थिक तंगी इन बुजुर्गो को सचमुच बेहाल कर देगी।

लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में बुजुर्गों के लिए क्या कोई जगह नहीं बची। राज्य सरकारें एक-दो हजार रुपए पेंशन देकर जिस तरह पल्ला झाड़ती हैं उससे आश्चर्य होता है। क्या किसी ने सोचा कि एक दो हजार रुपए में कोई बुजुर्ग महीने भर कैसे गुजारा करेगा? कम से कम उसे न्यूनतम दस-पंद्रह हजार रुपए तो चाहिए ही। ध्यान रखिए ये वही बुजुर्ग हैं, जिन्होंने देश की भावी पीढ़ी तैयार की। उनका हाल अब कोई पूछने वाला नहीं।

एक परिचित कुछ महीने पहले निजी कंपनी से रिटायर हो गए। सरकारी सेवा में नहीं थे सो पेंशन निर्धारित हुई मात्र चार हजार रुपए। ग्रेचुअटी से छह महीने निकल गए। मगर अब आगे क्या? एफडी से भी ज्यादा आय नहीं। पहले तो बच्चों ने उपेक्षा की, फिर पत्नी ने। टाइम पर मिलने वाली चाय देर से मिलने लगी। दोपहर और रात के भोजन के लिए इंतजार करना पड़ता। कभी-कभी वे रात को भूखे भी सो जाते। क्योंकि खाना देर से बनता। यह जानते हुए भी कि उन्हें समय पर खाने की आदत है। मनपसंद खाना मिले यह तो सोच भी नहीं सकते अब।

  • सच तो यही है कि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में बुजुर्गों के लिए कोई जगह नहीं। राज्य सरकारें एक-दो हजार रुपए पेंशन देकर जिस तरह पल्ला झाड़ती हैं उससे आश्चर्य होता है। क्या किसी ने सोचा कि इतनी कम पेंशन में कोई बुजुर्ग महीने भर कैसे गुजारा करेगा? ध्यान रखिए ये वही बुजुर्ग हैं, जिन्होंने देश की भावी पीढ़ी तैयार की। उनका हाल अब कोई पूछने वाला नहीं।

कुछ दिनों पहले आई हेल्प एज इंडिया की एक रिपोर्ट ने चिंता और बढ़ा दी है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के 47 फीसद बुजुर्ग अपने परिवार पर निर्भर हैं। इनमें पचास फीसद तो महिलाएं हैं। चालीस फीसद बुजुर्गों ने कहा है कि वे आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं करते। इसकी दो वजह बताई गई है। एक तो उनकी पेंशन पर्याप्त नहीं है और दूसरा उनका अपना खर्च इतना है कि बैंक एफडी से मिलने वाले ब्याज अथवा बचत से वह पूरा नहीं होता। रिपोर्ट में बताया गया है कि 71 फीसद बुजुर्ग काम नहीं कर रहे हैं। यानी देश में बुजुर्गो के लिए आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य कोई बहुत अच्छा नहीं है। हाल के बरसों में परिवार पर निर्भर बुजुर्ग महिलाओं और पुरुषों की उपेक्षा काफी बढ़ी है। यह एक गंभीर समस्या है।

अधिकांश बुजुर्ग रिटायर होते ही परिवार के लिए बोझ बन जाते हैं। वे उस समय घर के सदस्यों को और खटकने लगते हैं जब यह पता चलता है कि सरकार उन्हें बमुश्किल चार-पांच हजार रुपए पेंशन दे रही है। इतने रुपए में तो घर का पूरा राशन भी नहीं आता। फिर सब्जी-दूध-डबल रोटी को तो छोड़ दीजिए। बिजली और रसोई गैस के बिल कैसे चुकाए जाएंगे। दवाइयों और इलाज के खर्च के पैसे कहां आएंगे। मुझे नहीं लगता कि इस पहलू से सत्तर साल में किसी ने भी सोचा है।

बुजुर्गो के लिए इतना दोहरा पैमाना किसी देश में नहीं होगा, जितना कि हमारे यहां है। इस देश के कई राज्यों में सरकारी या निजी सेवा के कर्मचारियों को अमूमन 58 साल की उम्र में रिटायर कर दिया जाता है। और इसी देश में कुछ क्षेत्रों में कर्मियों को 60 साल तो कहीं 62 साल, तो कहीं 65 साल में सेवानिवृत्ति दी जाती है। सेवानिवृत्ति के इतने अलग-अलग मापदंड किसी देश में नहीं होंगे। राजनीति में ये हाल कि 75 साल तक कोई रिटायर होने को तैयार नहीं।

भला हो उस राष्ट्रीय पार्टी का जिसने राजनीति करने की एक उम्र सीमा तो तय कर दी। जब हम समानता की बात करते हैं तो काम से निवृत्त होने की सबके लिए एक निश्चित सीमा होनी चाहिए। आज देखिए 80-80 साल के नेता पार्टी के प्रमुख हैं और उस पद से हटने को तैयार नहीं। ऐसे नेताओं को तो सत्तर आते आते पद छोड़ देना चाहिए ताकि युवाओं को अवसर मिले। वहीं सभी सरकारी और निजी सेवाओं में सबको साठ में रिटायर कीजिए। जहां तक बौद्धिक कार्य की बात है तो उन सभी सेवाओं में अधिकतम 62 साल तय कर दीजिए।

सभी के लिए एक निश्चित सीमा पर सेवानिवृत्ति और न्यूनतम पेंशन का निर्धारण क्या नहीं होना चाहिए। यह एक बड़ा सवाल है। जिसका जवाब समय से पहले घर बैठा दिए गए लोग चाहते हैं। जरा सोचिए जीवन भर परिवार की मदद करने वाले हाथ को दूसरे के आगे पसारने के लिए क्यों मजबूर कर दिया जाता है? इस पर एक पहल की जरूरत है। सरकार को, सामाजिक संस्थाओं को और नीति निर्धारकों को इस पर मंथन करना चाहिए। अगर ऐसा न हुआ तो अगले दस साल में हम बड़ी समस्या से रूबरू होंगे।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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