मनस्वी अपर्णा II
२२१ १२२२ २२१ १२२२
इक आंच में उल्फत की दो जिस्म पिघलते हैं
हम शक्ल हैं शोलों के बुझते हैं न जलते हैं //१//
सोहबत में तेरी हर पल हर रोज ये होता है
क्या खूब मेरे दिल के अरमान निकलते हैं //२//
फिर वक़्त का कुछ हमको अहसास नहीं रहता
कुर्बत में तुम्हारी पल तेजी से फिसलते हैं //३//
होता है ये अक्सर जब तुम सामने आते हो
सीने में उठे अरमां मुश्किल से संभलते हैं //४//
कैसे मैं बताऊं वो लुत्फे पसे मंजर
जज्बात मेरे मौसम के रंग में ढलते हैं //५//
दिन ढल के उतर आती है शाम की रंगीनी
करवट तेरे पहलू में हम जब भी बदलते हैं //६//
इस दिल को तमन्ना बस तेरी है मेरे हमदम
अब तो न किसी सूरत जज्बात बहलते हैं //७//
कदमों में सिमट जाती हैं दूरियां मीलों की
हम जानिबे मंजिÞल जब भी साथ में चलते हैं //८//
पैगाम तेरा जब भी मिलता है मुझे दिलबर
इस दिल में हजारों गुल इक साथ में खिलते हैं //९//