काव्य कौमुदी ग़ज़ल/हज़ल

जज्बात मेरे मौसम के रंग में ढलते हैं

मनस्वी अपर्णा II

२२१   १२२२  २२१   १२२२
इक आंच में उल्फत की दो जिस्म पिघलते हैं
हम शक्ल हैं शोलों के बुझते हैं न जलते हैं //१//

सोहबत में तेरी हर पल हर रोज ये होता है
क्या खूब मेरे दिल के अरमान निकलते हैं //२//

फिर वक़्त का कुछ हमको अहसास नहीं रहता
कुर्बत में तुम्हारी पल तेजी से फिसलते हैं //३//

होता है ये अक्सर जब तुम सामने आते हो
सीने में उठे अरमां मुश्किल से संभलते हैं //४//

कैसे मैं बताऊं वो लुत्फे पसे मंजर
जज्बात मेरे मौसम के रंग में ढलते हैं //५//

दिन ढल के उतर आती है शाम की रंगीनी
करवट तेरे पहलू में हम जब भी बदलते हैं //६//

इस दिल को तमन्ना बस तेरी है मेरे हमदम
अब तो न किसी सूरत जज्बात बहलते हैं //७//

कदमों में सिमट जाती हैं दूरियां मीलों की
हम जानिबे मंजिÞल जब भी साथ में चलते हैं //८//

पैगाम तेरा जब भी मिलता है मुझे दिलबर
इस दिल में हजारों गुल इक साथ में खिलते हैं //९//

About the author

मनस्वी अपर्णा

मनस्वी अपर्णा ने हिंदी गजल लेखन में हाल के बरसों में अपनी एक खास पहचान बनाई है। वे अपनी रचनाओं से गंभीर बातें भी बड़ी सहजता से कह देती हैं। उनकी शायरी में रूमानियत चांदनी की तरह मन के दरीचे पर उतर आती है। चांद की रोशनी में नहाई उनकी ग़ज़लें नीली स्याही में डुबकी ल्गाती है और कलम का मुंह चूम लेती हैं। वे क्या खूब लिखती हैं-
जैसे कि गुमशुदा मेरा आराम हो गया
ये जिस्म हाय दर्द का गोदाम हो गया..

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