कथा आयाम कहानी

छोटी सी है दुनिया पहचाने रास्ते हैं…

संजय स्वतंत्र II

आज लास्ट कोच में बैठे हुए कुछ पुरानी यादें बेचैन कर रही हैं। कह रही हैं मेरी खामोशियों को यूं मौत न दो।… मैं कोच की अंतिम सीट पर हूं। पलकों के नीचे कई चित्र तैर रहे हैं। इनसान दुनिया से चला जाता है, मगर उसकी स्मृतियां रह जाती हैं। यह बहती रहती है मन की गंगोत्री से। एकदम अविरल। हर पल छीजती रहती है जिंदगी को।  धीरे-धीरे। कोच के दरवाजे बंद हो गए हैं। मेट्रो मेरे गंतव्य राजीव चौक की ओर चल पड़ी है। उद्घोषणा हो रही है…अगला स्टेशन मॉडल टाउन है।  

इधर मेरी आंखों के आगे किसी फिल्म की तरह पूरी रील घूम रही है। …. मैं इस वक्त गंगा नदी के तट पर बैठा हूं। सामने नदी की लहरों की तरह स्मृतियां मचल रही हैं। एक मल्लाह नौका लेकर मेरी आंखों के सामने से गुजर गया है अभी-अभी। सोच रहा हूं कि जीवन के इस पार से उस पार इस मल्लाह की तरह ईश्वर मुझे एक दिन ले जाएंगे। लेकिन अभी समय है। कुछ ठहर जा ऐ जिंदगी। मगर जिंदगी कहां थमती है? वह चलती जाती है नदी की तरह। कोच में उद्घोषणा हो रही है, अगला स्टेशन मॉडल टाउन है…दरवाजे बायीं ओर खुलेंगे।

… जैसे जिंदगी कभी थमती नहीं, वैसे मेरे पांवों के नीचे से नदी बह रही है। थमना उसका काम नहीं। उसे तो चलते जाना है इसी जिंदगी की तरह। अच्छा नहीं लग रहा इसलिए गंगा मैया को हाथ जोड़ कर प्रणाम कर रहा हूं और श्रद्धा सुमन अर्पित तकर रहा हूं। नदी के पानी में अपना चेहरा देख रहा हूं। बचपन का चेहरा दिख रहा है। आंखों के आगे मोहन बाबू का चेहरा घूम गया है। कौन मोहन बाबू? जानते हैं आप? …एक ऐसा गृहस्थ जो अमूमन हर भारतीय परिवार में होते हैं और जो परिवार की देखभाल में पूरा जीवन गला देते हैं। उन्हीं का तर्पण करने तो आया हूं गंगा किनारे। मगर लगता है मैंने खुद को श्रद्धांजलि दे दी है। गंगा नदी मेरे बिल्कुल पास से बह रही रही है। चंद फूल उसकी आंचल में फिर से डाल दिए हैं मैंने। मइया एक दिन मुझे भी ले जाना अपनी लहरों में।

मॉडन टाउन स्टेशन पर मेट्रो पहुंच गई है। कोच के दरवाजे खुल गए हैं। कुछ यात्री अगल-बगल में बैठ गए हैं। यह जीवन भी रेलगाड़ी की ही तरह है न। जाने कितने लोग जीवन में आते हैं। फिर साथ छोड़ जाते हैं एक-एक कर। कोच के दरवाजे बंद हो गए हैं। मेट्रो फिर चल पड़ी है अपनी मंजिल की ओर।

आंखें बंद किए सोच रहा हूं … तो मोहन बाबू चले गए हमेशा के लिए। और अपने पीछे छोड़ गए हैं भरा-पूरा एक परिवार। वे छोड़ गए हैं न जाने कितनी मीठी यादें। ऐसे लोग अक्सर याद आते हैं जो यादों की सौगात दे जाते हैं। स्नेहिल, विनम्र और मधुरभाषी। छल-कपट और नफरत से कोसो दूर मोहन बाबू। मुंह में पान दबाए साइकिल चलाते हुए चले जा रहे हैं। गुनगुना रहे हैं कोई पुराना गीत-छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, तुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल…।

अगला स्टेशन गुरुतेग बहादुर नगर है। दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। इस उद्घोषणा ने मेरी स्मृति यात्रा में खलल जरूर डाली है मगर मैं आपसे उसी गंगा तट से रू-ब-रू हूं जो पटना शहर के किनारे लबालब बह रही है। …. मेट्रो फिर चल पड़ी है और मेरी स्मृति यात्रा भी बढ़ चली है।  यों मोहन बाबू कई बार मिले बचपन से लेकर अब तक। पान की दुकान देखी नहीं कि घंटी बजाते हुए अपनी साइकिल वहीं खड़ी कर दी। यह हमेशा होता। गुमटी पर बरसों से बैठे पानवाले को जैसे मोहन बाबू को ही इंतजार होता।  उन्हें देखते ही मगही पान के पत्ते निकाल लेता।  तब तक मोहन बाबू उसके पास रखे अखबार की सुर्खियों पर बारीक नजर दौड़ाने लगते। वे कम पढ़े लिखे थे मगर उस दौर में भी खुद को अपडेट रखते। वे घर के बच्चों को पढ़ते हुए देखना चाहते। उन्हें आगे बढ़ने की नसीहत प्यार से देते।  

मेट्रो जीटीबीनगर स्टेशन से चल पड़ी है। कोच में शीतलता छाई है। … देख रहा हूं कि मोहन बाबू पान की एक गिलौरी मुंह में दाब चुके हैं और दो गिलौरियां पान वाले ने अलग से बांध कर दे दी है। उसने एक आरेंज लेमनचूस मेरी ओर बढ़ा दिया है। … तो ताउम्र यह पान वाला नहीं छूटा। एक बार सुबह पान पर कत्था लगवाते समय उनको एक ताड़ी वाला जाता दिख गया। कंधे पर धरी बहंगी के दोनों ओर लचकती बड़ी-बड़ी लबनी से ताड़ी छलक कर बाहर आने को आतुर हो रही थी। मोहनबाबू ने दूर से उसे आवाज लगाई- का हो… मिट्ठा ताड़ी ह का…। दिल्ली से अलइ ह बेटा।  पुराना जानकार था यह ताड़ीवाला। उसने लबनियां सड़क के किनारे रख दीं और कहीं से दोने का जुगाड़ करने में लग गया।  याद है मुझे वैसी मीठी ताड़ी मैंने आज तक नहीं पी।

इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय स्टेशन की तरफ मेट्रो बढ़ रही है। स्टेशन पर  दरवाजे खुल गए हैं। कालेज के विद्यार्थी दिख रहे हैं कोच में। मेट्रो फिर चल पड़ी है। अगला स्टेशन सिविल लाइंस है और मेरी स्मृतियों की यात्रा में मेरा गंतव्य पटना एअरपोर्ट है। बादलों के ऊपर से उड़ते हुए मैंने एक हजार किलोमीटर की यात्रा सवा घंटे में पूरी कर ली है। मौसी के घर पहुंचा हूं अभी। मोहन बाबू तो जा चुके हैं। वे अब तस्वीर में मुस्कुरा रहे हैं उस महबूब के लिए जिसे वे प्यार करते थे। जिससे शादी की और एक के बाद कई बच्चे पैदा किए। यही ‘प्यार’ था उनका। जिसे शादी से पहले देख कर ससुराल जाने वाली सड़क पर साइकिल की घंटी बजाते हुए निकल जाते ये सोच कर कि शायद वो दिख जाए। होठों पर यही गीत- छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, तुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल…।

  • मेरे सामने इस समय गंगा बह रही है। घाट के किनारे कोई गीत बज रहा है- गंगा मइया में जब तक के पानी रहे, मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे…जिंदगानी रहे, मइया… ओ गंगा मइया। कितनी प्यारी भावना है किसी सुहागन की। शायद हर सुहागन की। हर प्रेमिका की भी। मगर साजन की उमर गंगा जितनी तो नहीं हो सकती, मगर लंबी और स्वस्थ हो यही तो कामना होती है उनकी। तो मोहन बाबू भी अस्सी पार कर के गए।  महबूब की दुआएं रही होंगी।

… घर के दुआरे पर मौसी खड़ी हैं। मोहनबाबू की महबूब। मुझे देख कर रो पड़ी हैं। मैं उनके पैर छू रहा हूं। वहीं सीढ़ियों पर हम बैठ गए हैं। एक बच्ची आकर पानी की बोतल दे गई है। हम वहीं बैठे बातें कर रहे हैं। कंधे पर हाथ धर कर सांत्वना दी है उनको। उनकी आंखें नम हैं तो मेरी भी। मोहन बाबू को गए दस दिन हो गए हए हैं। दो दिन बाद तेरहवीं हैं। बीते दिनों में उन्होंने खुद को बहुत संभाला है। मगर देख रहा हूं कि हाथ और पैर के नाखून पर उन्होंने लाल नेल पालिश लगवाई है। माथे पर बिंदी भी है। मैने पूछा, मौसी ये सब क्या है? तो वे बोलीं, कहां गलथिन हैं (वे कहां गए हैं)। बच्चों के चेहरे में आंखों में देखि ला उनका। कहां ला मातम हम मनाईं…।  सचमुच जो प्रेम करते हैं वे कहीं नहीं जाते, आसपास ही रहते हैं। देह नहीं रहती मगर रूह तो रहती है दिल में। बच्चे रहेंगे। उनका किया कोई काम रहेगा। जो उन्हें मजबूत रखेगा पहले की तरह।

…सिविल लाइंस स्टेशन पर मेट्रो पहुंच गई है। प्लेटफार्म पर ठंडा सन्नाटा है। जैसे इस वक्त मेरे दिल में है। मैं स्मृति यात्रा से बार बार लौट आता हूं। मेट्रो चल पड़ी है। और मेरी स्मृति यात्रा भी। … उधर मौसी के कुम्हलाए चेहरे को देखता हूं तो एक क्षण के लिए दिल उदास होता है। तब तक उनकी बहू चाय रख गई है। मातम के लिए लोगों का आना जाना जारी है।  मेरा ध्यान सिर्फ मौसी के चेहरे पर है। वे कह रही हैं, उ त चल गलथुन। पर लइकन सब हई न…।  मैं फिर उनके सामने वो गीत धीमे से गुनगुना रहा हूं- छोटी सी ये दुनिया पहचाने रास्ते हैं, तुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल…। मौसी दुख की इस घड़ी में भी हौले से मुस्कुरा देती हैं। मेरे सिर पर हाथ फेर रही हैं।

मेट्रो कश्मीरी गेट पहुंच रही है। दरवाजे दायीं ओर खुलने की उद्घोषणा हो रही है। काफी लोग यहां उतरेंगे। कई यात्री सवार होंगे यहां से। … कोच के दरवाजे खुल गए। प्लेटफार्म पर भीड़ है। कुछ ही क्षणों में मेट्रो फिर चल पड़ी है। मैं भी चल पड़ा हूं अपनी स्मृति यात्रा पर। … मौसी कह रही हैं तेरहवीं में आएला हव तोरा के…। चुपचाप दिल्ली मत निकल जइहें। मैं सिर झुका कर हामी भरता हूं। फिर उनका चेहरा देखता हूं। मौसी के गोरे चेहरे पर छोटी सी लाल बिंदी मुझे उगते सूरज की तरह दिख रही है। इसी में झिलमिलाते होंगे मोहन बाबू। लोग चले जाते हैं, मगर अपने हों या पराये, स्मृति पटल पर बने रहते हैं।

… मेट्रो चांदनी चौक स्टेशन की ओर बढ़ चली है। इधर कुछ कारज के लिए मैं गंगा तट पर पहुंच गया हूं। मुझे याद आ रहे हैं मोहन बाबू। जब सत्तर के दशक में अपने कारोबार के सिलसिले में वे इसी चांदनी चौक में आए थे, जिसके नीचे सुरंग में ये मेट्रो भागी चली चली जा रही है। सचमुच यादों की सुरंग बहुत गहरी होती है। यहां भी वे कोई पान की दुकान ढूंढ़ ही लेते। अलबत्ता मगही पान का पत्ता नसीब न होता। मेरे सामने इस समय गंगा बह रही है। घाट के किनारे कोई गीत बज रहा है- गंगा मइया में जब तक के पानी रहे, मेरे सजना तेरी जिंदगानी रहे…जिंदगानी रहे, मइया… ओ गंगा मइया। कितनी प्यारी भावना है किसी सुहागन की। शायद हर सुहागन की। हर प्रेमिका की भी। और गंगा किनारे डूबते सुर्ख सूूरज को लाल बिदी बना कर अपने माथे पर सजा लेती है। मगर साजन की उमर गंगा जितनी तो नहीं हो सकती, फिर भी लंबी और स्वस्थ हो यह कामना जरूर होती है उनकी। तो मोहन बाबू भी अस्सी पार कर के गए।  महबूब की दुआएं रही होंगी।

… मेरे हाथों में गुलाब के फूल हैं। उन्हें मैं गंगा जी को अर्पित कर रहा हूं और गुहार कर रहा हूं कि मोहन बाबू की स्मृतियों को मरने मत देना मां। उनकी महबूब की पलकों में पानी बन कर उनकी यादों को झिलमिलाती रहना मां। मेट्रो चांदनी चौक पार कर गई है।  …. मैं गंगा के एकदम नजदीक एक बड़े पत्थर पर बैठा हूं। जल को बार-बार स्पर्श कर अपने भीतर पावनता भर रहा हूं। लहरों की ऊर्जा खुद में भर रहा हूं। चलते रहने की सीख ले रहा हूं। मेट्रो चावड़ी बाजार और नई दिल्ली को पार कर राजीव चौक की ओर तेजी से बढ़ रही है। उद्घोषणा हो रही है- दरवाजे दायीं ओर खुलेंगे। मैं सीट से उठ गया हूं। अन्य यात्री भी दरवाजे के पास खड़े हो गए हैं।

मेट्रो प्लेटफार्म पर लग गई है। दरवाजे खुल गए हैं। यात्री उतर रहे हैं। मैं भी कोच से बाहर आ गया हूं। जाने कितने यात्री। सबकी मंजिल अलग-अलग। आधुनिक संचार से छोटी हो गई यह दुनिया भी कितनी अजीब है। जब मोबाइल और टेलीविजन नहीं था तब लोग खूब मिलते-जुलते थे।  तब ये गीत भी था-छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कहीं तो मिलोगे, कभी तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल…। आज लोगों की चाल बदल गई है, हाल कोई किसी से पूछता नहीं। अब आपकी हथेली में पूरी दुनिया है। इसे बचा कर रखिए। संवाद कीजिए। हाल पूछिए। किसने रोका है? ये दुनिया अब छोटी हो गई है। रास्ते भी पहचाने हैं। आप कहीं भी मिलेंगे, कभी भी मिल्ेंगे, आपका हाल अवश्य पूछेंगे। आप भी पूछिएगा।

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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