राजगोपाल सिंह वर्मा II
विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, मतों और जातियों के मतावलंबी जैसे सिख, पारसी या ईसाई यहाँ पर न्यूनतम संख्या में और अप्रभावी स्थिति में थे. इतिहास में दर्ज है कि अभी तक हिन्दू-मुस्लिम लोग आपस में लड़ा करते थे, एक दूसरे के प्रति संशय रखते थे। पर आक्रांता की कारगुजारियों ने उन्हें अपने विवाद भुलाकर एक होने का अवसर प्रदान कर दिया।
जब से ईस्ट इंडिया कंपनी ने चोर दरवाजे से आकर पहले यहाँ की व्यवस्था को सँभाला था तब से धीरे-धीरे इन विपरीत ध्रुव वाले समाज के लोगों में जो सौहार्द बढ़़ना शुरू हुआ तो वह लम्बे समय तक उसी रूप में कायम रहा. अगर इसे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का एक ऐसा प्रभाव कहा जाए जिसकी परिकल्पना उन्होंने भी नहीं की होगी तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
यह ऐसा समय था जब लोग यह मानने लगे कि हिंदू और मुस्लिम इस देश की संस्कृति के दो ऐसे समुदाय हैं जो न जाने कब से यहाँ रहते आए और बने रहेंगे. अभी जो सुगबुगाहट मेरठ की छावनी से शुरू हुई वह आसपास के सभी इलाकों में फैलकर एक अच्छी-खासी बग़ावत का रूप ले चुकी थी. ऐसा इसीलिए हुआ कि उन दोनों समुदायों के लोग अब ‘बांटो और राज करो’ की नीति को थोड़ा समझने लगे थे. वह यह जानने लगे थे कि एक दूसरे का पूरक बने बिना, उनकी भावनाओं का सम्मान किए बगैर वह सह-अस्तित्व में नहीं रह पाएंगे. अगर ऐसा न हुआ तो उस स्थिति में जो लाभ मिलेगा वह ऐसे पक्ष को मिलेगा जो एक विदेशी आक्रांता था और जो यहाँ पर रचने-बसने के लिए नहीं बल्कि उनकी प्राकृतिक संपदा का दोहन करने और यहाँ के वैभव को लूटने के सीमित उद्देश्य के लिए ही आया था.
भारत में प्रभुत्व जमाने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पहली लड़ाई सन 1757 में बंगाल के नव़ाब सिराजुदौला की सेना से प्लासी में लड़ी थी जहाँ अपनी बेहतर और धूर्त रणनीति से उसकी जीत हुई।
असलियत यह भी थी कि भारत में प्रभुत्व जमाने के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पहली लड़ाई सन 1757 में बंगाल के नव़ाब सिराजुदौला की सेना से प्लासी में लड़ी थी जहाँ अपनी बेहतर और धूर्त रणनीति से उसकी जीत हुई. बंगाल पर कब्जा करने के बाद कम्पनी ने दूसरी लड़ाई 1818 में महाराष्ट्र के कोरेगाँव में लड़ी. यही वह लड़ाई थी, जिसने मराठा साम्राज्य को ध्वस्त किया और भारत में वास्तविक रूप में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना की कार्यवाही संपन्न की. दुखद यह भी रहा कि भारत को जिन लोगों की मदद से जीता गया, वे भारतीय थे. वे कौन भारतीय थे, जो विदेशियों की सेना में शामिल हुए? ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना में भर्ती होने वाले लोग भारत के वः लोग थे, जिन्हें हम अस्पृश्य मान कर स्वयं से दूर रखते हैं, वे अछूत थे. एक अवधारणा यह है कि जिन्होंने प्लासी की लड़ाई में भाग लिया, वे दुसाध थे और जिन्होंने कोरेगाँव की लड़ाई लड़ी थी, वे महार थे. यह दोनों ही जातियाँ भारतीय समाज में अछूत कही जाती हैं. इस प्रकार एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि पहली और दूसरी दोनों लड़ाईयों में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाले लोग अछूत जातियों के थे. इस तथ्य को मारक्वेस ने पील कमीशन को भेजी गयी अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया था. सन 1857 के विद्रोह को कुचलने में भी बम्बई और मद्रास की जिस सेना ने मदद की थी, उनमें भी, महार और परिया अछूत जातियों के लोग ही अधिकांश संख्या में थे. इस प्रकार इन तथाकथित अस्पृश्य जातियों ने न केवल भारत में अंग्रेजी राज कायम करने में मदद की, बल्कि उसे सुरक्षित भी बनाये रखा. इस स्थिति के लिए दोनों समुदायों की परिस्थियाँ जिम्मेदार थीं. ईस्ट इंडिया कंपनी को ऐसे लड़ाके चाहिएँ थे, जो उनके ही तथाकथित उच्च वर्ग के विरुद्ध मैदान में खड़े हो सकें. इस अस्पर्श्य वर्ग को इन युद्धों में, उनकी विजयों में अपना गौरव प्राप्त करने की सँभावनाएँ दिखती थीं.
एक अवधारणा यह है कि जिन्होंने प्लासी की लड़ाई में भाग लिया, वे दुसाध थे और जिन्होंने कोरेगाँव की लड़ाई लड़ी थी, वे महार थे. यह दोनों ही जातियाँ भारतीय समाज में अछूत कही जाती हैं. इस प्रकार एक ऐतिहासिक तथ्य यह है कि पहली और दूसरी दोनों लड़ाईयों में अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वाले लोग अछूत जातियों के थे.
पर, ब्रिटिश सरकार ने भारतीय समाज के इस गैर बराबरी के समुदाय के लोगों की इन सेवाओं के बदले उनके साथ क्या व्यवहार किया? सन 1890 में उसने भारतीय सेना में अछूतों की भर्ती पर रोक लगा दी. उसने नये सिद्धान्त के तहत सेना में भर्ती के लिये लड़ाकू और गैर-लड़ाकू दो श्रेणियाँ बनायीं और अछूतों को ‘गैर-लड़ाकू’ श्रेणी में रखकर उनकी सेना की सक्रिय कमाँडों में भर्ती प्रतिबंधित कर दी. क्या यह उचित था कि जो लोग बिना किसी लोग या लालच के केवल इस कारण कि वह अपने शासकों के प्रति प्रतिबद्ध थे, भारत को जीतने और लोकसंघर्ष को दबाने में अंग्रेजों की तरफ से बहादुरी से लड़े, गैर-लड़ाकू श्रेणी में रखे गये. अगर ऐसा था तो उन्हें सन 1890 से पहले तक भी ब्रिटिश सेना की सेवा में नहीं लिया जाना था परन्तु बाद में इसका एक कारण अवश्य था. वह था सेना के गठन का नया सिद्धान्त, जो जिसके तहत सेना में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ लोगों को लिया जाता था. उसमें जाति और धर्म की कोई समस्या नहीं थी. नये सिद्धान्त में सेना में भर्ती के लिये आदमी की जाति ही उसकी शारीरिक और बौद्धिक योग्यता का मुख्य आधार बन गयी थी. अब एक दल या कम्पनी का गठन पूरी तरह एक ही वर्ग से किया जाने लगा. इस आधार पर सिख, डोगरा, गोरखा और राजपूत रेजिमेंट बनायी गयीं. नये सिद्धान्त में ये जातियाँ और सामाजिक वर्ग लड़ाकू श्रेणी में रखे गए थे.
पुराने सिद्धांत के तहत सेना में सवर्ण हिन्दुओं की भर्ती बहुत कम होती थी, इसलिये अछूतों को भर्ती किया जाता था. किन्तु संघर्ष के बाद जब नया सिद्धांत बना तो भारतीय शासकों की जाति निस्तेज हो गयी और हिन्दुओं ने ब्रिटिश सेना में घुसना शुरु किया- उस ब्रिटिश सेना में, जो पहले से ही अछूतों से भरी हुई थी. तब दो वर्गों- सवर्णों और अछूतों के सापेक्ष स्तर में समायोजन करने की समस्या पैदा हुई और अंग्रेजों ने, जो न्याय और सुविधा के बीच संघर्ष के मामले में हमेशा सुविधा को प्राथमिकता देते रहे थे, समस्या का समाधान अछूतों को गैर-लड़ाकू वर्ग घोषित कर सेना से, बाहर निकालने का फैसला लेकर किया. इस निर्णय ने अछूतों के जीवन को तबाह कर दिया. सेना में नौकरी अछूतों के सामाजिक स्तर में बदलाव का प्रतीक थी. वह उनमें स्वाभिमान का भाव पैदा करती थी पर, अब अंग्रेजों ने उन्हें ऊपर से उठाकर नीचे फेंक दिया था।
सन 1857 के संघर्ष ने अंग्रेजों को हर प्रकार के समाज सुधार के भी विरुद्ध कर दिया था. अंग्रेज आगे कोई खतरा लेना नहीं चाहते थे, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से यह खतरा बहुत बड़ा था. विद्रोह ने उन्हें इतना आतंकित कर दिया था कि उन्हें लगने लगा था कि वे समाज सुधार की अपनी नीतियों के क्रियान्वयन के कारण भारत को खो देंगे.
कहते हैं कि सन 1857 के संघर्ष ने अंग्रेजों को हर प्रकार के समाज सुधार के भी विरुद्ध कर दिया था. अंग्रेज आगे कोई खतरा लेना नहीं चाहते थे, क्योंकि उनके दृष्टिकोण से यह खतरा बहुत बड़ा था. विद्रोह ने उन्हें इतना आतंकित कर दिया था कि उन्हें लगने लगा था कि वे समाज सुधार की अपनी नीतियों के क्रियान्वयन कारण भारत को खो देंगे. इसलिये भारत पर अपने कब्जे के हित में उन्होंने समाज सुधार की किसी भी बेहतर योजना को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था. वह यथासंभव यहाँ के केवल व्यापारिक दोहन के पक्ष पर ध्यान केंद्रित करने लगे. अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं, कुरीतियों का निदान करने और सकारात्मक चीजों पर उनका ध्यान काफी कम हो चला था.
सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम ने ही अंग्रेजों को यह सोचने पर मज़बूर किया था कि अगर हिन्दू और मुस्लिमों के मध्य व्यापक नफरत के बीज नही बोये गये तो उनका यहाँ आगे राज करना मुश्किल हो जाएगा. यह और बात रही कि वह स्वतंत्रता संग्राम सफल नही हो सका क्योंकि उसे सबल नेतृत्व नही मिल पाया. दूसरी बात कई रियासत के राजाओं ने अंग्रेजों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मदद की ।