अश्रुतपूर्वा II
सपनों के पार अगर लेखक जाता है तो फिल्मकार उन सपनों को पर्दे पर उतार देता है। वरिष्ठ पत्रकार और सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक श्रीश चंद्र मिश्र कहते हैं कि फिल्मों का आकर्षण इतना व्यापक है कि शायद ही कोई ऐसा होगा जो उसके असर से बच पाया। भारत में क्रिकेट अगर धर्म है, तो फिल्म आराधना। फिल्मों ने लोगों पर ही नहीं, समाज पर भी गहरा असर डाला। यह असर जीवन-शैली, मान्यताओं, सामाजिक स्थितियों पर भी दिखता है। मिश्र कहते हैं कि यह अहम सवाल हमेशा उठा है कि फिल्मों की असल भूमिका क्या है?
क्या मनोरंजन परोसने के अलावा समाज को कोई नई दिशा देने की जिम्मेदारी फिल्मों को निभानी चाहिए? निश्चित रूप से कोरोड़ों लोगों तक पैठ बनाने वाला यह माध्यम अपने सामाजिक दायित्व से कैसे बच सकता है? कोई दो राय नहीं कि समाज के हर चरित्र और देश तथा राजनीति के हर दौर को हिंदी सिनेमा ने समेटा है। लोक रंग हो या लोक उत्सव ये सभी रुपहले पर्दे पर दर्शकों के दिखते रहे हैं।
श्रीश चंद मिश्र ऐसे पत्रकार रहे हैं जिन्होंने न केवल खेलों पर बल्कि फिल्मों पर भी निरंतर चार दशकों से भी ज्यादा समय तक लिखा। कई विषयों पर पकड़ इतनी कि वे एक समय में कई लेखकों के लिए ‘गूगल’ ही बन गए थे। कोई भी विषय ऐसा नहीं जो उनसे अछूता रह गया हो। हाल में आई उनकी किताब ‘सपनों के आर-पार’ ने सभी का ध्यान खींचा है। दिल्ली के संधीश पब्लिकेशन से प्रकाशित कोई सवा तीन सौ पेज की यह किताब सिनेमा के कई पहलुओं को समेटती है। सिनेमा के अंदाज, बदलती धारा और उसके कई-कई रंग इसमें आप देख सकते हैं।
किताब ऐसे समय पर आई है जबकि दिवाली है। एक एक अध्याय इस पर भी लेखक ने लिखा है। वे लिखते हैं कि फिल्मों में दिवाली का आम तौर पर अंधेरा पक्ष ही उभारा गया। यह चलन 60-70 साल पुराना है। ऐसी भी फिल्में कम रही जिसमें किसी परिवार को हंसी-खुशी दिवाली मनाते दिखाया गया हो। लेखक ने लिखा है कि साथ ही यह गजब विरोधाभास है कि दिवाली पर रोती-रुलाती फिल्में बनाने वाले दिवाली पर अपनी फिल्म रिलीज करना सबसे ज्यादा शुभ मानते हैं।
इसके अलावा सिनेमा में गीतों का जादू, समाज से सिनेमा का नाता भी आप तलाश सकते हैं। साथ ही इस किताब में कई फिल्मी हस्तियों को याद किया गया है। राजेश खन्ना, फारूख शेख, यश चोपड़ा, रवींद्र जैन और सदाशिव अमरापुरकर पर लिख कर एक तरह से लेखक ने उन्हें श्रद्धांजलि दी है। सिनेमा जगत की किताब हो और वहां के किस्से और मिर्च-मसाला न हो, यह भला कैसे संभव है। इस किताब में सलमान का अभिनेत्रियों से नाता, सितारों की दोस्ती-दुश्मनी, किस्मत का फिल्मी कनेक्शन, हिट और फ्लाप का मायाजाल और राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की प्रासंगकिता से लेकर फिल्मी सितारों का राजनीति से नाता जैसे विषय पर लेखक ने बखूबी अपनी कलम चलाई है।
किताब ऐसे समय पर आई है जबकि दिवाली है। एक एक अध्याय इस पर भी लेखक ने लिखा है। वे लिखते हैं कि फिल्मों में दिवाली का आम तौर पर अंधेरा पक्ष ही उभारा गया। यह चलन 60-70 साल पुराना है। ऐसी भी फिल्में कम रही जिसमें किसी परिवार को हंसी-खुशी दिवाली मनाते दिखाया गया हो।
लेखक ने लिखा है कि साथ ही यह गजब विरोधाभास है कि दिवाली पर रोती-रुलाती फिल्में बनाने वाले दिवाली पर अपनी फिल्म रिलीज करना सबसे ज्यादा शुभ मानते हैं। पिछले कई सालों में यह होड़ कुछ ज्यादा ही दिखी। अब यह दिवाली मोह दूसरे त्योहारों और राष्ट्रीय पर्व तक फैल चुका है।
लेखक पत्रकार प्रताप सिंह लिखते हैं कि श्रीश चंद मिश्र की अनुपस्थिति में आई सपनों के आर-पार में उनका वही जादू और ताप कायम है। निश्चित रूप से सिने प्रेमियों के लिए यह पुस्तक एक अमनोल उपहार है। यह किताब सिनेमा जगत के हर कोने तक ले जाती है।