कविता काव्य कौमुदी

जब मन ठहर जाता है हथेलियों के मध्य

प्रतिमा मौर्य ‘प्रीत’ II

मेरी हथेली की पुकार को महसूस कर
तुम्हारी हथेली जब आ मिली
मेरी हथेली से,
तभी मैंने जाना
बगैर किसी वर्ण-लिपि के
कैसे सरताज बना बैठा है प्रेम
सभी भाषाओं का ।


उस जोगी ने
बड़े ध्यान से निरखी हमारी हथेलियां
फिर संजीदगी से कहा-
ये…यहां हैं अमंगल रेखाएं?
उस जोगी से हाथ छुड़ा
झट थाम लिया हमने
एक-दूसरे की हथेलियों को
और मन ही मन बुदबुदाएं हम
दीन-दुनिया की परवाह में
प्रेम को अमंगल न बताया करो जोगी।


स्मृति पटल पर कैद है हमारी
हथेलियों की अनगिनत आकृतियां
और उन आकृतियों पर उभरे हैं
एक-दूजे के स्नेहिल चुम्बन।


तुम्हारे साथ चलते हुए जाना मैंने
प्रेम होंठों पर
मुस्कुराहट आंखों में
और मन आकर ठहर जाता है
हमारी हथेलियों के मध्य।

हथेलियों पर
चेहरे को टिकाए सोचती हूं
इस नाजुक से मन की देह पर
कितने बंधन हैं मेरी जां
इक प्रेम के सिवा
इसकी उन्मुक्तता और कहां।

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ashrutpurva

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