प्रो रमाकांत पांडेय II
भवभूति के मालतीमाधव में भी प्रेम का निरूपण हुआ है। प्रेम की अन्तरंगता और उसकी सर्व व्यापकता से भवभूति भलीभाँति परिचित हैं। वे प्रेमी के अन्तर्मन के जटिलतम भावभूमि का उद्घाटन करते हैं। इसके लिये वे दुर्लभ विम्बों की झडी लगा देते हैं –
लीनेव प्रतिविम्बितेव लिखितेवोत्कीर्णरूपेव सा
प्रत्युप्तेव च वज्रलेपघटितेवान्तर्निखातेव च।
सा नश्चेतसि कीलितेव विशिखैश्चेतोभुवः पञ्चभि-
श्चिन्तासन्ततितन्तुजालनिविदस्यूतेव लग्ना प्रिया ॥[i]
भवभूति प्रेम की अभिव्यक्ति के लिये सूक्ष्म से सूक्ष्म मनोवृत्तियों का विश्लेषण करते हैं । उनके अनुसार प्रेम बाह्य उपाधियों पर आश्रित नहीं होता । पदार्थों को कोई आन्तरिक हेतु ही एक दूसरे से जोडता है- व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः, न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतयः संश्रयन्ते। निष्कारण होने वाले पक्षपात की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। स्नेहात्मक तन्तु एक प्राणी को दूसरे से जोडता है । प्रेमी अपने प्रियजन को यत्र तत्र सर्वत्र देखता है[ii]। अत्यधिक बढा हुआ मनोराग प्रेमी को विह्वल कर देता है, वह विकल हो जाता है, और उसे अपना कोई रक्षक दिखाई नहीं पडता[iii]।
भवभूति प्रेम और विरह की मनोवैज्ञानिक उपस्थापना करते हैं । उनका उत्तररामचरित तथा मालतीमाधव प्रेम की विभिन्न भावभूमियों के वर्णन में उनकी सूक्ष्मेक्षिका को प्रमाणित करते हैं।
महाभारत वैष्णव भक्ति का अपूर्व निदर्शन है। पारिवारिक विद्रोह, भोग की लालसा और छल की प्रचण्ड आँधी में वहाँ सारी मर्यादायें भंग हो जाती है। अन्ततः वहाँ भक्ति समन्वित शान्त रस ही प्रतिफलित होता है।
शारीरिक आकर्षण या काम के पारस्परिक विनिमय को प्रेम समझने की भूल नहीं करनी चाहिये । संस्कृत का कवि धर्ममूलक काम का ही समर्थन करता है । शारीरिक सौष्ठव को निहार कर भडकी काम की ज्वाला संस्कृत साहित्य में प्रेम पद वाच्य नहीं है । किसी भी तरुण और तरुणी को विवाह से पूर्व प्रेम या एकान्त वास की अनुमति नही है । तरुण और तरुणी के मध्य प्रणयप्रवृत्ति स्वकृत भी हो सकती है अथवा बान्धवकृत भी । अर्थात् कोई युवक या युवती स्वयं एक दूसरे से परिणय कर सकते हैं या उनके माता- पिता, बन्धु, बान्धव भी उनका परिणय करा सकते हैं किन्तु प्रणय के उन्माद में उन्हें मर्यादा के उल्लंघन की अनुमति नही है । संस्कृत साहित्य किसी भी युवक या युवती को एक दूसरे के शारीरिक सौष्ठव को निहार कर काम के आवेश में आकर एक दूसरे को अपना लेने की अनुमति नही देता । काम क्षणिक है, यौवन भी क्षणिक है जबकि दाम्पत्य जन्म –जन्मान्तरों का बन्धन है। कामावेश में लिया गया विवाह निर्णय कथमपि स्थायी नही हो सकता । दाम्पत्य जीवन के स्थायित्व के लिये भावनात्मक सौन्दर्य और आत्मिक चिन्तन आवश्यक हैं।
कण्व के आश्रम में पली – बढी, प्रकृति की सस्यश्यामला क्रोड में मृग के छौनों के साथ खेलने वाली, लता – पादपों से सहोदर स्नेहषिक्त व्यवहार करने वाली अनिन्द्य सुन्दरी शकुन्तला को कालिदास अत्यधिक प्रेम से पालते और दुलारते हैं ।उसे विदा करते हुये वृक्ष और लतायें आभूषणों से उसे सजा देते हैं, कण्व के रूप में कालिदास खूब बिलखते हैं, पुत्री का कितना बडा ऋण उन पर है यह सोच कर ही उनका कलेजा फटने लगता है । वह कह उठते हैं
शममेष्यति मम शोकः कथं नु वत्से त्वया रचितपूर्वम्।
उटजद्वारविरूढं नीवारबलिं विलोकयतः ॥[iv]
वत्से ! तुम्हारे द्वारा पहले डाले गये और अब कुटी के द्वार पर उगे हुये नीवार बलि को देखते हुये मेरा शोक कैसे शान्त होगा ।
यह कण्व की नहीं, प्रत्येक भारतीय पिता की पुत्री के प्रति अनृणता का स्वर है, करुण –परिदेवन है किन्तु भारतीय पिता पुत्री को पलकों में बिठा कर भी, उसे ऐसे अपराध का करने की अनुमति नहीं देता। वासना की घिनौनी वात्या में फँस कर जिस पुत्री ने आश्रम की मर्यादाओं को तोडा हो, शरीर के आकर्षण से बढी कामुकता को शान्त करने के लिये तपोवन की मर्यादाओं को तार – तार कर दिया हो , उसे प्रायश्चित्त करना ही होगा । जो कालिदास अव्याज मनोहरगात्री उस शकुन्तला को तपःक्षम बनाने के कण्व के प्रयास को नीलोत्पलके पत्ते की धार से शमी लता (खेजडी) के पेड को काटने की उपमा देने से नहीं चूके वही कालिदास अभिज्ञानशाकुन्तल के पंचम अंक में गौतमी शार्ङ्गरव और शारद्वत के मुख से उसे वास्तविकता का बोध भी करा देते हैं, उसके अपराध के लिये उसे डाटते फ़टकारते हैं , उसके किये के फल के परिणाम को भोगने के लिये भी कहते हैं। शारीरिक आकर्षण प्रेम का नहीं , वासना का मूल है । वासना इन्द्रिय – विषय है जब कि प्रेम पवित्र अनुभूति है ।काम के आवेश में किसी सुन्दरी को पाने के लिये मुधुरता से सनी विषौषधि देने वाले लम्पट का लक्ष्य प्रेम कथमपि नहीं हो सकता । वह उसे भोगने के बाद भूल ही जाता है, इसलिये कालिदास शिक्षा देते हैं –
अतः विचार्य कर्तव्यं विशेषात् सङ्गतं रहः।[v]
बाणभट्ट अपनी महाश्वेता को इतने प्रेम से पालते हैं कि उसे वीणा की तरह इस गोद से उस गोद तक ले जाते हैं । पितृत्व की सघन छाया में उसे भूमि पर पैर रखने की आवश्यकता ही नहीं पडी – “ साऽहं पितृभवने बाल्यतया कलमधुरप्रलापिनी वीणेव गन्धर्वाणाम् अङ्काद् अङ्कं सञ्चरन्ती “[vi] कह कर महाश्वेता शैशव में पिता के घर में प्राप्त वात्सल्य को कभी नहीं भूलती । वह अपने यौवनागम का भी चित्र खीचती है – क्रमेण च कृतं मे वपुषि वसन्त इव मधुमासेन, मधुमास इव नवपल्लवेन, नव पल्लव इव कुसुमेन, कुसुम इव मधुकरेण , मधुकरेण इव मदेन नवयौवनेन पदम्[vii]।
इस नव यौवन के आगमन ने ही उसे पुण्डरीक की ओर आकृष्ट किया । यह ऐसी अवस्था है जहाँ युवक या युवती न तो अपने शारीरिक परिवर्तन को बहुत समझता तथा भावना की जिज्ञासु प्रवृत्तियों मे कहीं भटक जाता है । महाश्वेता और पुण्डरीक सहसा एक –दूसरे के प्रति इतने आकृष्ट होते हैं कि वासना उन्हें जलाने लगती है । एक –दूसरे के बिना दोनो का जीना दूभर हो जाता है । पुण्डरीक का मित्र कपिंजल उसे बहुत समझाता है – सखे ! पुण्डरीक ! नैतदनुरूपं भवतः , क्षुद्रजन क्षुण्ण एव मार्गः । धैर्यधना हि साधवः । किं यः कश्चित् प्राकृत इव विकलीभवन्तमात्मानं न रुणत्सि । क्व ते तद्धैर्यम्? क्वासौ इन्द्रिय जयः ? क्व तद्वशित्वं चेतसः । क्व सा प्रशान्तता। ……. सर्वथा निष्फला प्रज्ञा । निर्गुणो धर्मशास्त्राभ्यासो, निरर्थकः संस्कारो, निरुपकारको गुरूपदेशविवेको, निष्प्रयोजना प्रबुद्धता …………..।[viii]
किन्तु काम के प्रचण्ड तरंगों में फँसा पुण्डरीक कपिंजल की एक भी नहीं सुनता , काम उसे विवेकहीन कर देता है, महाश्वेता के बिना उसे सब कुछ् शून्य लगता है। वह काम के परवश होकर अपने प्राण तक निछावर कर देता है। यही दशा महाश्वेता की भी होती है । वह जब तक पुण्डरीक के पास पहुँचती है, वह अपने को समाप्त कर चुका था, चन्द्रमा उसके शरीर को लेकर जा रहा था । महाश्वेता सती होने कौद्यत होती है तो चन्द्र उसे इस काम से रोकता है और कहता है कि तुम दोनो का मिलन होगा, इसलिये अपना अन्त मत करो । महाश्वेता उसकी प्रतीक्षा में तपस्या करने लगती है । इस विप्रलम्भ की अवधि इतनी विस्तृत है कि विप्रलम्भ शृंगार को भी अतिक्रान्त कर जाता है और इसे परिभाषित करने के लिये आचार्य करुण विप्रलम्भ की परिकल्पना करते हैं ।
प्रेम तपे बिन पवित्र नहीं होता । विप्रलम्भ का परिताप दोनो प्रेमियों को वास्तविक सौन्दर्य बोध कराता है, उन्हें जीवन की वास्तविकता से परिचित कराता है । प्रेम विनिमय नहीं आत्मा का स्वरूप है, वह आनन्दमात्रस्वरूप है । संयोग और वियोग , दोनो ही अवस्थाओं में प्रेम अविचल रहता है। पुनर्मिलन की आकांक्षा, विप्रयोग में प्रियतमा के दर्शन की लालसा आदि अनेक मनोभाव प्रेमी युगल को ढाढस देते चलते हैं । कभी एकत्र प्रेयसी का सादृश्य न मिलने पर प्रेमी हाथ मलता और पछताता रहता है –
श्यामाष्वङ्गं चकितहरिणीप्रेक्षणे दृष्टिपातं
वक्त्रच्छायां शशिनि शिखिनां बर्हभारेषु केशान् ।
उत्पश्यामि प्रतनुषु नदीवीचिषु भ्रूविलासान्
हन्तैकस्मिन् क्वचिदपि न ते चण्डि सादृश्यमस्ति ॥[ix]
यक्ष प्रियंगु लताओं में प्रिया के शरीर का, डरी हुई हरिणी की चितवन में उसके चितवन का , चाँद में उसके मुख का, मयूरपुच्छ के गुच्छों में उसके केशों का, नदी की पतली लहरों में उसकी भौहों के विलास का सादृश्य देखता है किन्तु एकत्र उसे अपनी प्रियतमा का सादृश्य कहीं नहीं मिलता । कालिदास विरह की अवस्था को प्रेमियों के लिये उत्कृष्ट मानते हैं –
स्नेहानाहुः किमपि विरहे ध्वंसिनस्ते त्वभोगाद्
इष्टे वस्तुन्युपचितरसाः प्रेमराशीभवन्ति ॥[x]
[i] मालतीमाधव , पृ. २०६
[ii] पश्यामि तामित इतः पुरतश्च …..मालतीमाधव, पृ. ८०
[iii] मनोरागस्तीव्रं विषमिव ….. मालतीमाधव, पृ. ९८
[iv] अभिज्ञानशाकुन्तल, ४.२१॥
[v] अभिज्ञानशाकुन्तल
[vi] कादम्बरी, पृ. ४१४
[vii] कादम्बरी, पृ. ४१४
[viii] कादम्बरी, पृ. ४३८
[ix] मेघदूत, उत्तर -४४
[x] मेघदूत, उत्तर. ५२
क्रमशः….