मिलोर फर्नान्देस।। अनुवाद: डाॅ गरिमा श्रीवास्तव ।।
[ मिलोर फर्नान्देस का जन्म सन् 1923 में रियो द जेनेरियो में हुआ और मृत्यु 2012 में । वे अपने समय के महत्वपूर्ण ब्राजीली पत्रकार, कार्टूनिस्ट और पटकथा लेखक थे। उन्होंने व्यंग्य समाचार पत्र ‘ओ पस्कुइम’ की शुरुआत की, जिसमें वे निरंतर व्यंग्य प्रधान लघुकथाएँ लिखते रहे। इसके अतिरिक्त
शेक्सपियर के ब्राज़ीली अनुवाद के लिए भी उन्हें जाना जाता है। प्रस्तुत है उनकी कहानी ]
आधुनिक सभ्य मनुष्य के लिए अपना घर एकमात्र व्यक्तिगत एवं एकांत स्थान नहीं रह गया है, जहाँ वह अपने मन के गहन दुख और वेदना को छिपा सके घर में स्नानागार ही एकमात्र जगह है जिसे निजी किला या स्ट्रांग रूम कहा जा सके। समस्याओं से परिपूरित इस धरती पर, इस बेचैन समय और विशृंखलित समाज में, जहाँ पारिवारिक संबंध टूट रहे हैं, नीतिभ्रष्ट हो रहे हैं वैसे में घर का स्नानागार ही एकमात्र शांतिदायक जगह है जो इन बुराईयों के प्रभाव से मुक्त है। एकमात्र यही जगह है जो घर में रहने वालों के मन में शांति की आशा का संचार करती है। घर की इसी निर्जन जगह पर बैठकर मनुष्य आत्म विश्लेषण की चरम अवस्था पर पहुँचने की कोशिश करता है, जीवन में खोने और पाने का समीकरण ठीक करता है।
कभी छोटे-बड़े शहरों में निजी या सार्वजनिक उद्यान दिखाई पड़ते थे, जहाँ कोई भी व्यक्ति सहज ही आराम से, गंभीर आध्यात्मिक चिंतन या ध्यान में आराम से बैठ सकता था। शहरों में अब पारिवारिक बगीचे दिखाई नहीं पड़ते, क्योंकि यहाँ के रहवासी अब फ्लैटों में रहते जहाँ बगीचे के चिन्ह के रूप में एक-दो गमलों में लगे पेड़-पौधे दिखते हैं। इन गमलों में लगे पेड़ लोगों की नज़र से बचने के लिए हमें ओट नहीं दे पाते, न ही अनवीन्हे अपरिचित मनुष्य को हमारी ओर जबरदस्ती बढ़ने के मार्ग में बाधक ही बन जाते हैं। रोमन युग की तरह हमारे शहरों में बड़े-बड़े चौराहे अब नहीं है, न ही उपस्थित है उस समय का एकाकीपन।
सभी चौराहे आजकल व्यवस्थित और जनाकीर्ण हैं, अब न तो कोई गुफा बची है
जहाँ साधु-संत एकांत में बैठकर अपने अर्जित ज्ञान को और परिष्कृत परिमार्जित कर सके।
ऐसा नहीं है कि मनुष्य ने सिर्फ हताश होकर शहर के उद्यान छोड़ दिए, बल्कि अब उसने समझ लिया है कि अपने घर के भीतर ही एक ऐसा पवित्र स्थान है जहाँ चाहे कुछ क्षणों के लिए ही सही, यह अपनी मानसिक शांति पा सकता, वह है स्नानागार। जबतक परिवार का कोई अन्य सदस्य दरवाजे पर धक्का न दे (परिवार की परिभाषा के अनुसार परिवार का मालिक, पत्नी, पुत्र-पुत्री एवं एकाध निकट या दूर के संबंधी और उनके साथ जुड़ी हुई उनकी जैविक और नैतिक आवश्यकतायें दरवाज़े पर धक्का न दें तब तक अपने एकांत में छिपकर चुपचाप आत्मविश्लेषण में कोई घंटों खो सकता है। जीवन में खाने-पाने का हिसाब करने के साथ जीवन के उचित-अनुचित का निर्धारण भी कर सकता है। यहीं पर उसको आत्मदर्शन होता है, तब सब कुछ हो उठता है पवित्र, कोई भी उससे प्रश्न नहीं करता, वह किसी से विचलित नहीं होता, कोई किसी को उसकी इच्छा के विपरीत चल नहीं पाता, कोई उसके ऊपर ज्ञान की बौछार नहीं कर पाता, उसे किसी को आलोचना का सामना नहीं करना पड़ता।
इसी स्नानागार में अधेड़ गृहस्वामी खल्बाट हो रही होती खोपड़ी, बचे हुए पके केशों की तरफ देखता, अकेला बिना किसी गवाह की उपस्थिति या पत्नी के अतीत के अकर्मण्य, असफल जीवन के बारे में सोचता है, व्यावहारिक जीवन में पर्याप्त सफल होते हुए भी, देखता है वृद्धावस्था के आगमन की घोषणा करने वाले उम्र के पकेपन के निशानों की। यहां पर शांति से निरीक्षण किया जा सकता है अपने शरीर के बाहरी गठन का नजदीक से बाएँ दायें से देखने पर कैसा लगता है, मोटापा कितना बढ़ा या घटा है वगैरह। अपनी वर्तमान छवि देखकर अतीत के सुंदर शरीर की स्मृति में मन निष्प्रभ हो जाता है। यहीं आकर वह स्वयं से प्रतिज्ञा करता है कि अबसे जीवन में कोई काल्पनिक आशा नहीं करूंगा जब सारी धरती पर अस्थिरता होती 1 है, सिर्फ इसी जगह वह स्थिरता की गहन आशा कर सकता है।
इसी स्नानागार में परिवार का 20 वर्षीय पुत्र अपनी बाँह की मांसपेशियों के निरीक्षण से आत्मगौरव का अनुमय करता है। निर्णय करता है कि छाती की चौड़ाई बढ़ाने के लिए कसरत करना शुरू करेगा, यहाँ पर आईने के सामने खड़े होकर होठ के कोने से मुस्कुराने का अभ्यास करता है, कैसे अपनी मुख मुद्रा को गंभीर बनाएगा, तय करता है कि कैसे उन वयस्क औरतों की तरफ देखेगा जिनमें अब भी वोचन के अवशेष है जो अब भी उसे कुछ देने की स्थिति में हैं।
इसी स्नानागार में घर की 17 वर्षीया लड़की चचेरे भाई की भेजी गुप्त चिट्टियाँ पढ़ने जाती है, हृदय के इस आदान-प्रदान की घटना का मान परिवार में किसी तक नहीं है। यद्यपि वह यही चिट्ठी अन्य जगहों पर पढ़ चुकी है, लेकिन यहाँ पर,यानी स्नानागार में,इस तरह की चिट्टी का पर्याप्त रसास्वादन करने के लिए जिस एकांत और माहौल की आवश्यकता होती है, वह ठीक-ठीक यहीं मिल पाता है। यहीं पर चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते गुप्त भाव से बोल उठा जा सकता है- उफ्फ! आह! इस स्नानागार में वह लड़की खूब बारीकी से अपनी देह के अंग विशेष का-जिसकी तरफ देखकर एक राह चलते मजदूर ने कुछ कहा था, यद्यपि उस समय उसके मन में घृणा मिश्रित क्रोध का भाव कौंधा था-परीक्षण कर सकती है। घर की मालकिन पुत्र-पुत्री की माँ जो उम्र के बोझ से दब गई है इसी जगह पर गुप्त भाव से परिवार के मालिक पुत्र-पुत्री अथवा अपने भाई-बहनों के परकीय प्रेम का आविष्कार करती है (भूलवश या यूँही) तब यहीं आकर अश्रुपात करती है। यहाँ कोई उसे देख नहीं पाता, लेकिन कटु अनुभवों की स्मृति उसकी दोनों आँखों से आँसू बनकर गिरती है, बाद में स्वयं को शांत और प्रकृतिस्थ करके मन के दुख को चेहरे से धोकर मुस्कुराती हुई परिवार के उन अनजान रहस्यमय सदस्यों के साथ घुलने-मिलने के लिए बाहर आ जाती है।
एक बात है कि घर का ऐसा कोई सदस्य नहीं जिसने स्नानागार के आइने के सामने खड़े होकर चेहरे की भाव-भंगिमा न बनाई हो, ऐसा कोई नहीं मिलेगा, जिसके शरीर पर ठंडा पानी पड़ने की घड़ी में किसी असाधारण चिंता का उदय न हुआ हो। अकेले में स्नानागार में ही बैठकर आत्मालोचन का अवसर मिलता है। हमारा शरीर हमारे हृदय की गुप्त आकांक्षाओं के लिए नहीं बना होता, इसलिए यहाँ पर विफल स्वप्नों के पीछे दौड़ने के लिए नग्नता की ज़रूरत पड़ती है। स्नानागार में हम प्रवेश करते हैं सारी मलिनता लेकर और बाहर आते हैं निर्मल शुद्ध और सुखी । यहाँ हम खुद को जितना हो सके शुद्ध कर लेते हैं, आधुनिक मनुष्य को उसके खोए हुए एकाकीपन का एक छोटा अंश लौटा सकता है-केवल स्नानागार। ईश्वर की अशेष कृपा है कि लेह कुरगुजेर या निएमिएर जैसे वास्तुकारों ने आधुनिक मनुष्य जाति की इच्छा को ध्यान में रखते हुए कभी-कभी हमारी एकांतिक आवश्यकता की उपेक्षा न करके स्नानागार को पारदर्शी कांच का नहीं बनाया। इस नाट्यशाला में हमीं अभिनेता और अभिनेत्री हैं और हम ही दर्शक भी। इस मंदिर में आत्मप्रेम और विनय के देवता की पूजा एक साथ होती है। वास्तव में स्नानागार ही, आधुनिक समाज की सबसे रोशन जगह है, यही है इस समाज का चरम प्रतिबिंब है।