अनुवाद गद्यानुवाद

सीतायन उपन्यास-अंश २

डाॅ एस ए सूर्यनारायण वर्मा II

जिस प्रकार ‘रामायण’ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के दिव्य चरित्र का वर्णन कई महत्वपूर्ण कथा-प्रसंगों के माध्यम से किया गया। है, उसी प्रकार परम साध्वी सीता के चरित्र को केन्द्र में रखकर “सीतायन” उपन्यास में सीता के चरित्र की गरिमा को निरूपित किया गया है। इसमें महर्षि जनक की पुत्री, भूसुता, वीर्यशुल्का, अयोनिजा, दशरथ की बहू और श्रीराम की धर्म पत्नी के रूप में कारणजन्मा की मौलिकता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए उपन्यासकार श्री बसवपुन्नय्या ने सीता के चरित्र को विकास के कई नये आयाम दिये। राष्ट्र धर्म और मानव धर्म के प्रश्न के नेपथ्य में दशरथ पुत्र श्रीराम ने अपनी धर्म पत्नी को जो दण्ड दिये, उनकी समीक्षा की गई है। इस रचना में शंबूक-वध के मार्मिक प्रसंग की योजना कर तत्युगीन समाज में प्रचलित मान्यताओं की, तटस्थ ढंग से समीक्षा करने में उपन्यासकार को सफलता मिली है। श्री वेलुवोलु बसवपुन्नय्या जी ने रम्य व रसयुक्त कथा-प्रसंगों के साथ सीतायन की कथा को आगे बढ़ाया। डॉ. एस. ए.सूर्यनारायण वर्मा जी ने इस रचना के हिन्दी रूपांतर को अत्यंत सहज शैली में प्रस्तुत किया है। ~मूल भाषा-आंध्र

[प्रसंग -राम वनवास]

किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा

मगर इतने में कोई परिवर्तन! हृदय को कंपानेवाली अनुभूति गहरे अंधकार के व्याप्त होने का भ्रम चकाचौंध करने वाली भांति । इन सबके कारण किसी अदृश्य शक्ति का संचार होने की भावना उसमें उदित हुई। ऐसा लगा कि कैकेयी इस भाव-भँवर में फँस गयी। ऐसा लगा कि कोई अदृश्य शक्ति उस पर हावी हो गयी। लाल नेत्रों से उसका चेहरा विचित्र रूप से चमका अकस्मात् कैकेयी चौंक उठी। फिर सहज रूप में आयी। न जाने क्यों, मधुर रहनेवाली कैकेयी का मन अकस्मात् विष की ज्वालाएँ बिखेरने लगा। अनुराग से रंजित उसके नेत्रों में क्रोध की लाल ज्वालाएँ घुस गयी । इन भावनाओं ने कैकेयी को अधीर बनाया कि “क्या राम राजा बनेगा ? भरत सेवक बनेगा ? कौसल्या राजमाता बनेगी, मैं सेवक की माता बनूँ?” इन वाक्यों से मंथरा की चाल चली। उसके विषैले मन से ज्वालाएँ फूट निकल कैकेयी को धीरे से सहलाया।

मंथरा ने आगे कहा, “माता कैकेयी! सच हमेशा कठोर होता है। यद्यपि यह बात मन के लिए कड़वी है, फिर बताए बिना रहा नहीं जाता। भरत को राजा बनाओ। राम को वनवास के लिए भेजो राम के वनवास से भरत के अधिकार में कोई बाधा नहीं रहेगी।” यह सुनते हो कैकेयी कोपगृह में घुस गयी।

कैकेयी को देखने आए दशरथ का, कलाविहीन कोपगृह ने स्वागत किया। कोपगृह में स्थित कैकेयी को देखकर दशरथ का हृदय पिघल गया। अपनी प्रिय पत्नी का मनुहार करते हुए उसे समझाने का उस महारथी दशरथ ने विफल प्रयत्न किया जैसे ही दशरथ ने देवासुर युद्ध में कैकेयी को जो दो वर दिये उनके अनुसार भरत के राज्याभिषेक और राम के वनगमन के वर माँगे, तुरंत दशरथ मूर्छित हो गए। तुरंत कैकेयी ने राम को बुलवाया, तो राम तेजी से पहुँचा और उसके चरण स्पर्श किये।

उसने राम से कहा कि यह तुम्हारे पिता की आज्ञा है कि भरत को राज्याभिषिक्त करना और तुम्हारा वनवास जाना है। राम ने समझा कि यद्यपि कैकेयी की इच्छा में स्वार्थ दिखाई पड़ा, फिर भी उसके पीछे कोई अपूर्व छिपा हुआ अर्थ है। पितृवाक्य के पालक राम ने कैकेयी को नमस्कार किया और चौदह वर्ष वनवास के लिए जाने को उन्मुख हुआ। अयोध्या में रहकर जननी-जनक की सेवा में निमग्न होने का यद्यपि राम ने संदेश दिया, फिर भी जब लक्ष्मण ने उनकी बात नहीं मानी, तब राम ने उसे अपने साथ वन में आने की बात स्वीकार की। मत्तगज सदृश पिताजी दशरथ की दीनस्थिति व पूर्णचन्द्र को तरह छाया देनेवाली माताओं की शोकस्थिति को देखकर राम का हृदय व्यथित हुआ।

सीता का दुख

राम जब सीता के मंदिर में प्रविष्ट हुए, तो व्याकुल राम को देखकर सीता दुखी हुई। वह अपने आप से पूछने लगी कि विकसित कमल के समान निरंतर प्रकाशमान राम के पद्मनेत्रों में ये दुखाश्रु क्यों है?

” राम को देखकर सीता के मन में शत-सहस्र शंकाएँ उत्पन्न हुई, छत्र-चामर आदि सकल राजचिह्न क्यों मंद पड़ गए? मेघगंभीर स्वर क्यों फीका हो गया ? वेदमंत्रों से युक्त स्वागत कार्यक्रम आज क्यों नहीं है? शस्त्र समन्वित अंगरक्षकों का दल आज साथ क्यों वंदिमागध, विंजामर, सकल परिवार, शोर-शराबा आज क्यों नहीं दिखे, फिर सीता ने राम से पूछा “मेघों के पीछे छिपे चंद्र की तरह आप उदास क्यों? जो मस्तक राज्याभिषेक के लिए तैयार है, वह धुंधला क्यों दिखाई दे रहा है? फिर उसने पूछा कि “सास-ससुर, बंधु-मित्र व सारा परिवार कुशल तो है ?”

राम का चेहरा लज्जा से लाल हो गया। मन दुर्बल हो गया। सीता को गले से लगाकर, शय्या पर आसान होकर राम ने आह भरी सीता ने उसका चेहरा पोंछकर, पीठ को सहलाकर, मुस्कुराहट के साथ उसकी थकान को दूर करने का प्रयास किया प्यार से ठोड़ी को राम के सोने पर रखकर, नासिका से रगड़ते हुए, तिरछी नजर से राम की ओर देखा।

श्री राम का दुख

राम ने मंद्र स्वर में यों कहा, “मेरे पिताजी वात्सल्य भरे हैं। दिया हुआ वचन न टालनेवाले महान चक्रवर्ती है। अपने बेटों को प्राणों से भी अधिक प्रेम करने की शक्ति उनमें है। इस सबसे बढ़कर पिताजी मुझपर अव्याज अनुराग और अपार वात्सल्य दिखाते हैं। उनकी इच्छा है कि सर्वजन रक्षक के रूप में प्रजारंजक शासक के रूप में मैं नाम पाऊँ। पर इस संसार का यह क्रम ही है कि हम एक प्रकार सोचते हैं और ईश्वर दूसरे प्रकार से सोचते हैं। निरंतर सत्यधर्म बद्ध मेरे प्रिय जनक ने देवासुर युद्ध में उनकी सहायता करने वाली कैकेयी को दो वर प्रदान किए। मेरी माता कैकेयी ने आज दो वर माँगे। भरत का राज्याभिषेक और राम का वनगमन ही उनकी दो इच्छाएँ है। पितृवाक्य का पालन करना क्षत्रियों का कर्तव्य है न ? इसलिए पिता की आज्ञा व माता की इच्छा के अनुसार एक योग्य पुत्र के समान मैं वनवास के लिए निकल रहा हूँ। जिन काननों में मुनि जन विचरण करते हैं, वहाँ छत्र व चामर और वंदि-मागध आदि न होने चाहिए। इसीलिए जैसे ही मेरी प्रिय माता ने अपनी इच्छा व्यक्त की, वैसे ही मैंने राजाओं को शोभा देनेवाले अलंकरण आदि का विसर्जन किया। वनवास के लिए तैयार हुआ। लक्ष्मण भी मेरे साथ आ रहा है। तुम यहीं रहो और मेरे अभाव को पूरा कर, मेरी माताओं व मेरे पिताजी को सँभालो। नित्यप्रति पूजाकार्यक्रम कर, मेरे माता-पिता का कुशल क्षेम देखा करो किसी को अप्रियता न हो, ऐसी धर्मपरायणता से व्यवहार कर रघुवंश की कीर्ति-प्रतिष्ठता को बनाये रखो।” यों राम ने सीता को संदेश दिया।

अंतरार्थ  

राम के वनवास की बात सुनकर सीता क्षण भर के लिए हतप्रभ हुई। उसने मन ही मन सोचा, “जिस राम के प्रति बचपन से अनर्विचनीय प्रेम व्यक्त किया, उसी राम को कैकेयी ने हठात् क्यों वनवास भेजने की विपरीत इच्छा की, इसका अंतरार्थ क्या है इसका कारण सीता ढूँढने लगी। बीती हुई घटनाएँ उसके मनोफ़लक पर चमकी। सागर में गर्भ में, स्वर्ण-पेटिका में रावण को उसका मिलना, भूगर्भ में जनकसुता के रूप में में निकलना, वीर्यशुल्का, अयोनिजा व कारणजन्मा के रूप में प्रसिद्ध होना, शिवधनु भंग के समय रावण को एक ही दृष्टि से एक ही हँसी से निर्वीर्य करना, शिव धनुष को तोड़ना, वैभव के साथ सीता का विवाह संपन्न होना, भला करने आए परशुराम के पुण्यलोकों पर वैष्णवचाप का प्रयोग करना आदि दुश्शकुनों और कैकेयी की इच्छाओं के पीछे छिपे अंतरार्थ पर उनके मन ने अपने आप से कई प्रश्न पूछे। अनुभव ने उसे थपथपाकर बताया कि सज्जनों को, जो दुश्शकुन होते हैं, वे मानव समुदाय के अभ्युदय का मार्ग खोलेंगे। 

सीता का संवाद

सीता ने निर्णय लिया कि किसी भी स्थिति में वनवास-काल में अपने पति से दूर हो कर, उसे खुद पिंजड़े में पंछी के समान अयोध्या में नहीं रहना चाहिए। अपने में आवृत धुंधले विचारों को बंदकर उसने राम से प्रार्थना की। उसने पति को सांत्वना दी कि अप्रत्याशित परिणाम पर दुःखी न हों। उसने राम से प्रार्थना की कि ‘जो कुछ हुआ, हमारी भलाई के लिए ही हुआ’, ऐसा समझकर क्षण के लिए भी वह अयोध्या में रह नहीं सकती। उसने राम को चेताया कि आपका यह आदेश ठीक नहीं है कि मैं अयोध्या में ही रहूँ, यह उचित नहीं है। वह रोती हुई बोली कि इस बात को मैं स्वीकार नहीं कर सकती कि मैं यहाँ और आप वहाँ रहें। उसने कहा कि यद्यपि भूमि व आकाश दूर रहते हुए भी मिले दिखते हैं, पत्नी का पति से दूर रहना उचित नहीं है। उसने यह स्पष्ट कह दिया कि पति से दूर पत्नी और पत्नी से दूर पति के लिए पुण्यलोक में स्थान नहीं है। उसने यह भी कहा कि चाहे पत्नी के कितने ही बंधु रहें, पर हर समय और हर स्थिति में वे पति के बराबर नहीं होते। पति के बिना पत्नी प्राणरहित शरीर जैसी है। वृक्ष की छाया में थकान मिटाने की तरह पति की आड़ में ही पत्नी सुरक्षित रह सकती है। उसने यह कहकर क्रोध भी व्यक्त किया कि उसे पत्नी के रूप में न देखकर, एक साधारण स्त्री के समान देखना, उसकी उपेक्षा करना ही है। पति से बिछुड़ी स्त्री, जनता के बीच प्रविष्ट साँप की तरह है, जिसे पत्थरों और ढेलों से मारने की तरह, वचन रूपी भालों से पीड़ित करते हैं, यही तो दुनिया की रीति है। जैसे सोने के आभूषणों को पेटिका में रखते हैं, वैसे ही सदा पत्नी की रक्षा करना पति का कर्तव्य है। धनुर्विद्या पारंगत क्षत्रिय शूरों के लिए पत्नी का निरादर करना उचित नहीं है। पुरुषत्व को महत्व देकर स्त्री की उपेक्षा करना आप जैसे लोकोत्तर पुरुषों के लिए उचित नहीं है। प्रकृति में स्त्री व पुरुष समान हैं, दोनों के प्राण होते हैं, दोनों एक जैसे जीवन बीतते हैं और कष्ट व सुख दोनों के लिए समान हैं।”

‘जब दुर्गम वन में पुरुष विचरण कर सकता है, तो स्त्री के विचरण करने में कौन-सा हर्ज़ है। स्त्री कोमल व सुंदरी है, ऐसा सब सोचते हैं, पर वह मंगलसूत्र बाँधनेवाले पति के लिए ही है। समय आने पर स्त्री भी पुरुष के समान आगे बढ़ती है। स्त्री सुख या दुख में पति से हाथ बंटाती है। किसी भी स्त्री में यह भावना नहीं होती कि कष्टों में मैं पति से दूर रहूँ और सुखों में निकट। शंकर जी के आधे भाग में पार्वती है। भूमि, आकाश या अंत:पुर में सिंह, बाघ व हाथियों से युक्त जंगल में, बेला, जुही, गुलाब व चंपे के पौधों से युक्त फुलवारियों में भी, सर्वत्र पत्नी के लिए पति ही दैव है। तत्वों के सार से शरीर को गढ़नेवाले मेरे पिताजी जनक ने एक ही संदेश दिया। “वृक्ष की छाया में जैसे यात्री विश्राम लेता है, वैसे ही कार्यदीक्षा में दक्ष और नित्यकार्यकलापों की व्यस्तता में पति को आराम देने की जिम्मेदारी पत्नी की ही है।” मेरे पिता ने यह सिखाया कि “हर समय, हर स्थिति में पति के चरणों का अनुगमन करना ही सती का धर्म है।” मेरे अयोध्यागमन के पूर्व पत्नी के कर्तव्य के बारे में सिखानेवाले मेरे पिताजी सर्वधर्मविद हैं। यहाँ-वहाँ का भेद न दिखाकर आँखों की रक्षा करने वाली पलकों के समान पति की देखभाल करना ही तुम्हारी जिम्मेदारी है। चाहे आप हिंस्र जंतुओं के बीच जंगल में रहें, या सारी दासियों के बीच महल में रहें, आपके बिना क्या मैं रह सकूँगी ? आपकी यादों में क्या मुझे नींद आएगी ?”

सीता की इच्छा

“खुली प्रकृति से शोभायमान जंगल में न आने की बात आप मुझसे न कहें। अबोध जंतुओं के बीच आनंद व उत्साह के साथ मुझे आप अपने साथ बिताने दें। मुझे उस प्रकृति के विमल प्रांगण में रहने दें। अनुराग के बिना स्वादिष्ट पकवानों को खाने की अपेक्षा, प्रेम से साथ रहकर कंद-मूलों से पेट भरने दें। हे राम! आप के लिए पितृवाक्य का पालन जितना प्रमुख है, पत्नी की सुरक्षा भी उतना ही प्रमुख है। आप तो भक्तवत्सल, प्रजारक्षक, भ्रातृ प्रेमी, सेवक व बंधुमित्र हितैषी हैं। आप ने अग्नि को साक्षीभूत करके मेरे गले में मंगल सूत्र बाँधा है। अतः मुझे दूर न करें। पति से पत्नी अलग नहीं रह सकती।” इस प्रकार कहती हुई सीता की आँखों की कोरों से आँसुओं की धारा अनवरत बरसने लगी। सीता के आँसुओं को प्यार से पोंछते हुए राम ने कहा, “हे सीते। तुम कष्टों को न सह सकती हो। रेशमी वस्त्र पहननेवाली तम, कोमल पाँवोंवाली हो। कठिन पत्थरों से युक्त तथा काँटों से भरे घने जंगल में क्या तुम ठहर सकोगी ? सास व ससुर की सेवा करती हुई, देवरों की देखभाल करती हुई, अयोध्या में रहो। अंतःपुर में रहनेवाली नारी हो। वहीं रहना तुम्हारे लिए श्रेय की बात है।’

सीता का क्रोध

तब तक प्रेम से युक्त स्वर में सीता ने राम से प्रार्थना की। पर राम के अनुरोध से दुःखी होकर क्रोध भरे स्वर में बोली “चाहे अंत:पुर में हो या कानन में, पत्नी के बिना पति का रहना क्या शास्त्रविरुद्ध नहीं है ? “नातिचरामि” कहते हुए जिस पति ने सात कदम साथ चलकर पत्नी के गले में मंगल सूत्र बाँधा, मन, वचन और कर्म से पत्नी के साथ रहने का जिसने दैव को साक्षी बनाकर प्रतिज्ञा की, वह पति श्रेष्ठ पत्नी को छोड़कर सुदूर जंगल में जाए, तो क्या यह धर्म की बात है? इस प्रकार कहकर उसने फिर साथ आने की अनुमति माँगी। राम ने जब उसकी विनती अनुसुनी कर दी, तो सीता और भी क्रुद्ध हो गयी। नागिन के समान फुफकारने लगी। आग की तरह शरीर लाली में भर गया। जैसे तेज पवन के झोंके से वृक्ष पूरी तरह कंपित होता है, वैसे ही सीता का शरीर काँपने लगा। कमल जैसे नेत्र आँसुओं की वर्षा करने लगे। चाहे पति का मन व्यथित क्यों न हो, कानन में जाने का ही निर्णय कर उसने निंदा भरे शब्दों में यों कहा “राज्यलक्ष्मी से वियुक्त राजपुत्र के लिए क्या गृहलक्ष्मी की आवश्यकता नहीं है? क्या आप इतने अविवेकी हैं कि युवावस्था में इच्छाओं से भरे शरीर से युक्त स्त्री को अकेले छोड़ देंगे? क्या आप इतने शक्तिहीन हैं कि कानन में पत्नी की रक्षा नहीं कर सकेंगे? हे राम। शक्तिसंपन्न अपने पुराने इक्ष्वाकुओं का स्मरण करें।

सारे विश्व को हठ के साथ जीतकर अपना सर्वस्व उसी विश्व को दान करने वाले महोन्नत दिलीप चक्रवर्ती को देखिए। असंख्य कठिनाइयों के बावजूद अपना हठ न छोड़कर, स्वर्ग से पृथ्वी तक गंगा को ले आकर, अपने पूर्वजों को सद्गति दिलानेवाले भगीरथ की याद करें।

शापवश यद्यपि चांडाल बना, फिर भी विरुद्ध परिस्थितियों में भी स्वर्ग की साधना का यत्न कर विजय प्राप्त करने वाले त्रिशंकु को देखें। महान यज्ञ संपन्न कर भूमि में अनंत ख्याति प्राप्त करने वाले रघु महाराज को देखें। सुरासुर संग्राम में पति के साथ रहकर प्राणों का दाँव लगाकर संग्राम के लिए सन्नद्ध अपनी प्यारी माता कैकेयी को देखें। प्रयत्न करने पर किसी भी पुरुष के लिए असाध्य काम कोई नहीं होता। हम दोनों का संबंध अग्नि व वायु का जैसा है। मैं आपका अर्द्ध भाग हूँ। आवश्यकता पड़ने पर आपके लिए मंत्री हूँ, शयन में भोगिनी हूँ, सारे उपचारों में दासी हूँ, आपका कुशल चाहनेवाली आपकी सहधर्मचारिणी हूँ। मैं आपके मन का मन हूँ, सुंदरता में सुंदरता हूँ कठोर पाषाण न बनें। मुझे आप छोड़कर चले न जाएँ।”

स्त्री की शक्ति

आदिशक्ति सर्वसमन्वित शक्ति है। सारी शक्तियों का दान करने वाली शक्ति है। यों शक्ति का दान करना ही शक्तिसमन्वित स्त्री का गुण है। शक्ति लेने की बात न जानने वाली है स्त्री। अपनी शक्ति को प्रदान करनेवाली स्त्री के लिए बंधन और पुरुषों के लिए स्वातंत्र्य ? बाल्यदशा में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटों की सेवा में स्त्री अपना सर्वस्व लगा देती है। साहस व आत्म त्याग में स्त्री की शक्ति से बढ़कर कोई दूसरी शक्ति इस संसार में नहीं है। मायके, पले हुए परिसरों, माता-पिता, भाई-बहन और बंधु मित्रों को छोड़कर अकस्मात् ऐसे व्यक्ति के साथ, जिसने उसके गले में मंगल-सूत्र बाँधा, चली जाती है, जिसके बारे में वह पहले से कुछ नहीं जानती। आशाओं और अधूरी इच्छाओं के साथ नये संसार में प्रवेश कर जीवन को बिताने का साहस और तेज, स्त्री को छोड़कर और किसमें है? सब कुछ छोड़कर तुम पर विश्वास करके मैं यहाँ आयी। अपने साथ तुम मुझे जंगल में ले जाओ। मुझे बंधुगणों, अन्तःपुर, दास-दासियों की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। हे सीताराम ! सीता को छोड़कर खाली राम मत बनो। जंगल में वटवृक्ष की तरह तुम्हें छाया प्रदान करूँगी। कारावास जैसे वन में मैं तुम्हारा साथ दूँगी। सती अनसूया की तरह मैं अपनी सेवाएँ प्रदान करूँगी। हे रघुराम! तुम जिस कानन में रहोगे, वही मेरे लिए नंदनवन के समान है। सारे वृक्षों व लताओं से युक्त पृथ्वीपथ ही मेरे लिए हंसतूलिकातल्प है। दुर्गम वन में वर्षों की झड़ी मेरे लिए कमल ऊपर विद्यमान पानी की बूँदों जैसी हैं। वहाँ की तेज हवाएँ ही मेरे लिए पंखे हैं। सिंहों, शार्दूलों, हाथियों व मृगों से युक्त कानन ही मेरे लिए दास-दासी जन परिवारयुक्त अन्तःपुर है। तुम्हारी छाया में सब कुछ मेरे लिए मधुर ही है। एक सामान्य मानव की तरह मत सोचो। असामान्य मानव की तरह सोचो।

राम के पाषण सदृश हृदय में कोई परिवर्तन न देखकर सीता ने और अधिक कठोर स्वर में कहा, “हे राम! क्या चौदह वर्षों के वनवास के भय से आपका शरीर निस्तेज हो गया? नसें सुस्त पड़ गयीं? अपनी पकड़ खोकर सिकुड़ गई? क्या आप यही सोचने लगे कि पत्नी की आवश्यकता ही नहीं?” हृदय सागर की लहरों की तरह कल्लोलित हुआ, तो थोड़ी देर बाद जोश जब कम हुआ। जोर से बिलखते हुए दुखी होकर उसने राम को आलिंगन में ऐसा लिया जैसे माता की गोद में बच्चा जाए और वृक्ष से लता लिपट जाए । 

श्रीराम की स्वीकृति

सीता के ताप से राम ऐसा पिघल गया जैसे आँच से मोमबत्ती पिघल जाए। ज़मीन से फूटी जल धारा के समान उसका हृदय पिघल गया। प्रेम, अनुराग व वात्सल्य के साथ सीता के सिर पर हाथ फेरकर श्रीराम ने उसे अपनी छाती से लगाकर लाड़ से समझाया, “हे सीते! मैं तेरा मन जानता हूँ। तू तो, हर समय, हर स्थिति में मेरे साथ रहना

ही जीवन है, ऐसा माननेवाली धर्म पत्नी है। तू तो अन्तःपुर में असंख्य दास-दासियों के बीच उनकी सेवाएँ लेनेवाली कोमल युवती है। अपने साथ तुझे जंगल में ले जाकर भरी शय्या, कंद-मूल, वरुण व वायु से संचरित विरुद्ध वातावरण से भरे दंडकारण्य में ले जाकर तुझे कष्टों की शिकार बनाना मुझे पसंद नहीं है। इसीलिए मेरे मन ने तेरी वनयात्रा का विरोध किया। तेरी आयु, सुंदरता और तेरा मन सब मेरी ही संपत्ति है। सत्य, दान, यज्ञ व ब्राह्मणों की सेवा की अपेक्षा पिता व माता की सेवाएँ अत्यंत विशिष्ट हैं। सारे पुण्यलोकों की प्राप्ति होगी। वही सनातन धर्म है। उसी धर्म का पालन करते हुए मैं वनवास की तैयारी करने लगा। अपने साथ तुझे ले जाकर तुझे कष्टों की शिकार बनाना मुझे रुचा नहीं। इसलिए मैंने इनकार किया। अब तू वनवास के लिए सन्नद्ध हो जा।” यह सुनकर सीता का हृदय गुलाबजल छिड़कने के जैसे ठंडा हुआ। फिर राम ने कहा, ” सासों व ससुर की अनुमति लो। बहनों को धीरज बँधा। ब्राह्मणों को धन व स्वर्ण दान दे। दास-दासियों को कई वस्तुओं का दान दे। याचकों को भोजनादि सुविधाएँ प्रदान कर।’ राम की बातें सुनकर प्रफुल्ल मन से सीता ने यात्रा के प्रयत्न प्रारंभ किए।

About the author

डॉ एस ए सूर्यनारायण वर्मा

डॉ. एस. ए. सूर्यनारायण वर्मा
संप्रति : अनुसंधान वैज्ञानिक
सी
(प्रोफेसर) हिन्दी विभाग, आन्ध
विश्वविद्यालय, विशाखपट्टणम,
आंध्रप्रदेश
संपर्क : sasnvarma@yahoo.com
पुरस्कार : गंगाशरण सिंह पुरस्कार 2010
पुस्तकें प्रकाशित :14
प्रकाशित लेख : विभिन्न पत्रिकाओं में दो
सौ से अधिक लेख प्रकाशित।
सदस्यता : पूर्व सदस्य, हिन्दी सलाहकार
समिति, रक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली। पूर्व
सदस्य, हिन्दी सलाहकार समिति, योजना
तथा कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय, नई
दिल्ली।

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