प्रताप नारायण सिंह II
स्वामी रामानंद के विषय में कम लोगों को ज्ञात है। लोग मात्र इतना ही जानते हैं कि कबीरदास उनका शिष्यत्व प्राप्त करने हेतु उनके पास गए थे किन्तु उन्होंने जाति या धर्म के आधार पर उन्हें मना कर दिया था। तब कबीर भोर में जाकर गंगाघाट की उन सीढ़ियों पर लेट गए जिनसे उतरकर रामानन्द नित्य प्रातः गंगास्नान करते थे। जब उनका पैर कबीर के ऊपर पड़ा तो वे राम राम कहकर पीछे हटे। कबीर ने उसे ही गुरुमंत्र मान लिया।
यह किन्वदंती छोटी कक्षाओं में भी शायद कहीं – कहीं कबीर की जीवनी में रखी गयी है। हालाँकि यह पूरी तरह से असत्य है। कबीर रामानंद के विधिवत शिष्य थे और उनसे शिक्षा ग्रहण की थी। रामानंद के विषय में जानने के बाद इस दंतकथा को मिथ्या मानने में कोई संदेह नहीं बचेगा।
बारहवीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने नवीं शताब्दी से चले आ रहे शंकाराचार्य के अद्वैतवाद से भिन्न विशिष्टाद्वैतवाद सिद्धांत प्रतिपादित किया और “श्री सम्प्रदाय” की स्थापना की। रामानुजाचार्य के शिष्य राघवानंद हुए। विद्वानों की मान्यता है कि स्वामी रामानंद उसी राघवानंद के शिष्य थे। उनका जन्म प्रयाग में हुआ था। किन्तु देश भ्रमण के बाद वे काशी में रहने लगे और वहीं उनका देहावसान हुआ।
वैसे तो राघवानंद के समय में ही श्री सम्प्रदाय में जाति पाँति के बंधन को तोड़ने का प्रयास आरम्भ हो गया था। किन्तु उसे रामानंद ने उच्चता प्रदान की और कुछ परिवर्तन भी किए। वे इतने लोकप्रिय हुए कि “रामानंद सम्प्रदाय” नाम से एक नया सम्प्रदाय ही चल पड़ा। जिसमें जाति – पाँति की कोई धारणा नहीं रही। जातिवाद का खंडन करते हुए रामानंद ने गाया – ‘जाति-पाँति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।’ इस प्रकार सभी जातियों के लिए बिना किसी भेद-भाव के हरि-भक्ति का मार्ग रामानंद ने खोल दिया।
हिंदी के भक्ति-आंदोलन का जातिवाद – विरोधी चरित्र रामानंद की इसी विचारधारा का प्रचार-प्रसार कहा जा सकता है और स्वामी रामानंद को रामभक्ति परम्परा के चिंतन का मेरुदण्ड माना जा सकता है। उन्होंने ही सर्वप्रथम लोक भाषा में रचना कर्म करने की प्रेरणा दी। रामानंद की दो भुजाएँ – निर्गुण धारा में कबीर और सगुणधारा में तुलसीदास दोनों ही रामानंद के शिष्य हैं और दोनों ही दो परम्पराओं के प्रवर्तक और अपने-अपने ढंग के लोकमंगलवादी हैं। कबीर उनके सीधे सीधे शिष्य थे और तुलसी को उनका मानस-शिष्य माना जाता है।
रामानंद-सम्प्रदाय से पूर्व ‘श्री सम्प्रदाय’ था। मंत्र, ध्यान, पूजा, उपासना, उपास्यदेव आदि के आचारों के कारण इसकी दो शाखाएँ हो गई – एक में भगवान राम को प्रधानता मिली, दूसरे में नारायण को। कालान्तर में राम-शाखा का उद्धार रामानंद ने किया। रामानंद ने अनुभव किया कि राम-भक्ति को साधना पक्ष की रूढ़ियों – जटिलताओं से मुक्त कर जनता के हृदय में उतारा जाए। उन्होंने राम और सीता के साथ हनुमान को नया रूप दिया।
रामानंद ने ही हनुमान की पूजा – आरती का तुलसीदास से पहले उत्तरी भारत में विस्तार किया। उन्होंने ही ‘आरति श्री हनुमान लला की’ प्रार्थना की रचना की जो भक्तों का कंठहार बनी है। रामानंद के ग्रंथों में ‘श्री वैष्णवमताब्ज भास्कर’, ‘श्री रामार्चन पद्धति’, ‘आनंद भाष्य’, ‘सिद्धांत पटल’, ‘रामरक्षा स्तोत्र’, ‘योग चिन्तामणि’, ‘श्री रामाराधन’, ‘रामानंदादेश’, वेदान्त विचार’, शिवरामाष्टक’, हनुमानस्तुति’ आदि है। रामानंद के शिष्यों में अनंतानंद, सुखानंद, नरहर्यानंद, भावानंद, कबीर, पीपा, तुलसीदास आदि हैं। इस सम्प्रदाय के प्रसिद्ध स्थान अयोध्या, चित्रकूट, मिथिला और काशी रहे हैं।
रामानंद सम्प्रदाय की मुख्य भक्ति पद्धति ‘दास्य भाव’ की है। भक्ति के अधिकारी ब्राह्मण, शूद्र सभी हैं। यहाँ कर्मकाण्ड को विशेष आदर नहीं दिया गया। कबीर, तुलसी, मैथिलीशरण पर रामानंदी, विचारधारा का गहरा प्रभाव माना जाता है। राम के साथ जीव का सेवक-स्वामी, सेव्य-सेवक, रक्ष्य-रक्षक संबंध है और राम ही रस-रूप हैं – आनंद रूप हैं कबीर ने अपने राम को निर्गुण- निरंजन कहते हुए भी उसके गुणों का वर्णन किया है – पर दशरथ पुत्र अवतारी राम में कबीर का विश्वास नहीं है – तुलसी का है। किन्तु दोनों की भक्ति दास्य-भाव की ही है और दोनों ही लोक – भाषा के कवि हैं। रामानंद सम्प्रदाय के कवियों में अग्रदेव, अवधभूषणदास, कृपानिवास, कामदेन्द्रमणि, चित्रनिधि, जनकराज किशोरीशरण, जानकी रसिक शरण, नाभादास, रामचरणदास, रामप्रियाशरण, रसरंगमणिदास आदि का प्रमुख स्थान है। भ्रष्ट भक्तों ने राम-भक्ति में रसिक-सम्प्रदाय चलाकर माधुर्य- भाव के बहाने शृंगार-भाव भोग का चक्र भी चलाया है।