कथा आयाम कहानी

ये दुनिया मिल भी जाए तो क्या है….

संजय स्वतंत्र II

लालकिले पर आजादी का जश्न मनेगा। इसे देखने मैं स्कूल के दिनों में जाया करता था। तब दिल्ली की आबादी इतनी सघन नहीं थी और न ही यातायात जाम में कोई फंसता था। जितनी आज आप देख रहे हैं। तब जिंदगी थोड़ी सरल थी। यह अस्सी के दशक की बात है। उन दिनों पैदल ही मैं जमनापार से लालकिले पहुंच जाया करता था। आज ऐसा सोच भी नहीं सकता। समय गुजरने के साथ आजादी का पर्व इक्यावन इंच के टीवी और अब एलसीडी स्क्रीन के सामने सिमट कर रह गया।
बरसों बीत गए आजादी का जश्न मनाने मैं कभी लालकिला नहीं गया। यों कई सालों तक बस से दफ्तर जाते समय स्वतंत्रता दिवस की तैयारियां जरूर देखीं। लालकिले की प्राचीर पर सुरक्षा इंतजाम से लेकर नीचे कुर्सियां लगाई जाते हर साल देखता रहा। इन दिनों दरियागंज से लेकर चांदनी चौक और लालकिले के सामने की सड़क पर लता दी का गाया यह गीत लाउडस्पीकर पर अक्सर बजता है-

ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी,
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी….।

 मैं इसे गुनगुनाते हुए कई बार दफ्तर गया हूं।
इधर दो सालों से मेट्रो में यात्रा के दौरान जश्न की तैयारियां स्मृतियों में कैद होकर रह गई हैं। लिहाजा जश्न से पहले लालकिले को देखते हुए मैं कुछ पुरानी यादों से रू-ब-रू होने निकल पड़ा हूं। अभी मेट्रो से चांदनी चौक स्टेशन उतर गया हूं। यहां सुरक्षा चाक चौबंद है। कश्मीरी गेट से दरियागंज आने वाले वाहनों पर आंशिक रोक लगा दी गई है। मैं चांदनी चौक से टहलता हुआ लालकिले के सामने आ गया हूं। आम दिनों की अपेक्षा यहां पैदल चलना सुखद लग रहा है। लालकिला मैदान की हरियाली मन को मोह रही है। बीते 30 साल में यह मैदान बहुत बदल गया है।
….याद आता है चनाव का वह दौर जब इंदिराजी सत्ता से बेदखल हो गई थीं। इसी लालकिला मैदान में जनता को चुनावी नतीजे बताने के लिए विशालकाय इलेक्शन बोर्ड लगा था। तब न तो इतने न्यूज चैनल थे और न संचार की आधुनिक तकनीक। सूचना पटल पर एक-एक सीटों की जानकारी दी जा रही थी- कांग्रेस आई – शून्य……जनता पार्टी- एक। पत्र सूचना कार्यालय में उन दिनों मेरे पिता अधिकारी थे। चुनाव नतीजे बताने के लिए उनकी यहां ड्यूटी लगाई गई थी।इसी लालकिला मैदान में लगे एक तंबू में पिताजी बैठे थे। हॉटलाइन से सूचना मिलते ही एक कर्मचारी की सहायता से वे बोर्ड पर चुनाव नतीजे लिखवा देते। यह सिलसिला बार-बार चलता। उन दिनों मैं दरियागंज स्थित रामजस स्कूल में पढ़ता था। एक दिन मैं स्कूल से सीधे वहीं पहुंच गया। मुझे देख कर पिताजी ने डांटा। फिर उन्होंने इशारा कर एक कुर्सी पर बैठने को कहा। मैं हॉटलाइन पर लगातार आ रहे नतीजों को तंबू के बाहर लगे  बोर्ड पर लिखे जाते देखता रहा …. कांग्रेस आई- शून्य। जनता पाटी- तीन…।
इस लालकिला मैदान से जुड़ी कई यादें जेहन में हैं। यहां लगने वाले मेले में कई बार आया। लड़कों को पतंग उड़ाते भी देखा। एकदम खुला मैदान। कहीं कोई बंदिश नहीं। अब तो इस मैदान में घुसना किसी देश की सीमा को पार करने जैसा है। विरासत से कैसे दूर होते हैं हम, यह एक उदाहरण है समझने के लिए। जब देश के नागरिक अपनी समृद्ध विरासत से दूर किए जाते हैं, तो वहां मूल्यों का भी ह्रास होता है। हम अपनी विरासत को तो अक्षुण्ण रखना चाहते हैं, मगर कर्तव्यों की जरा भी चिंता नहीं करते। आजादी का पर्व मनाते हुए हमें अपने कर्तव्यों का भी बोध होना चाहिए। मगर अब कौन सोचता है?
सड़क पर टलहते हुए यहां की साफ-सफाई अच्छी लग रही है। डिवाइर का रंग-रोगन कर दिया गया है। सड़क पर काली-सफेद पट्टियां चमक रही हैं। सब कुछ अनुशासित है। मगर आजादी का जश्न खत्म होते ही सड़कों पर फिर से अराजकता मच जाएगी। अपने अधिकारों के लिए शोर मचाने नाले नागरिक अपने कर्तव्यों को याद नहीं करेंगे। यों वे सड़कों पर थूकते-पेशाब करते हुए या गंदगी फेंकते हुए आज भी नहीं सोचते। क्या हम अपने देश को गंदगी से आजादी दिला पाएंगे?
आज लालकिले के सामने सड़क पर यों ही टहलते हुए सोच रहा हूं कि देश तो आजाद हो गया, मगर उसे हिंसा, बालश्रम, निरक्षरता, अंधविश्वास-कुरीतियों और दूषित मानसिकता से आज भी आजादी नहीं मिली है। नारी स्वतंत्रता की बात करना तो बेमानी है। उनकी राह में अब भी कांटे बिछे हुए हैं। क्या इसे हटाने का संकल्प हम लोग नहीं ले सकते? आज जब आजादी का जश्न मना रहे हैं, तो इस मौके पर हमें सोचना चाहिए कि क्या हम अपनी बेटियों को समाज में वह सुरक्षित कोना दे पाए हैं, जहां वह सुरक्षित महसूस करते हुए अपना सुनहरा भविष्य बुन सकें?
मैं टहलते हुए अब दरियागंज पहुंच गया हूं? यहां मैंने ढाबों-होटलों और दुकानों में बच्चों को काम करते हुए देखा है। देश के रहनुमाओं की नजर इन पर न पड़े, इसलिए वे यहां से दो दिन के लिए भगा दिए गए हैं। अलबत्ता, अभी सड़कों पर कुछ नंगधड़ंग बच्चे तिरंगी पतंगें लिए धमाचौकड़ी जरूर मचा रहे हैं। कौन हैं ये बच्चे? जिन्हें लिखने-पढ़ने और कपड़े पहनने तक की आजादी नसीब नहीं  है। स्वतंत्रता मिलने के सात दशक बाद भी बालश्रम अब भी अभिशाप बना हुआ है। ईट-भट्टों और खेत खलिहानों से लेकर छोटे-मोटे कल-कारखानों में काम कर रहे इन लाखों बच्चों के लिए स्वतंत्रता दिवस पर कोई काम नहीं होता। मगर जश्न खत्म होते ही अगले दिन ये फिर काम में जुट जाते हैं। कारकुनों की आंखें बंद हो जाती हैं।
कौन हैं ये बच्चे? कहां से चले आए शहरों और महानगरों में। आपने दफ्तर जाते समय अक्सर सड़कों पर गाड़ियों के शीशे साफ करते हुए इन्हें देखा होगा। बसों और ट्रेनों नें गाकर पैसे मांगते हुए भी देखा होगा। अपने परिवार का पेट पालते हुए ये बच्चे हुए हर दिन मरते हैं। यह तस्वीर किसी को नहीं दिखाई देती। तिरंगे लिए दौड़ते बच्चों की तस्वीरें छाप कर हम पत्रकार भावुुक हो जाते हैं। मगर देश को भावुक होने की नहीं, व्यावहारिक होने की जरूरत है।
… मैं दरियागंज से वापस लालकिले की तरफ लौट रहा हूं। यहां आजादी के जश्न का का खुमार चढ़ा चुका हैं। देशभक्ति उमड़ रही है मन में। लेकिन आजादी का पर्व क्या सिर्फ जश्न मनाने के लिए हैं? यह पिकनिक मनाने और छतों पर जाकर पतंग उड़ाने-पेच लड़ाने का नाम तो नहीं हैं आजादी। दरअसल, आजादी का मतलब देश और समाज जिस जगह से पिछड़ गया है, वहां से इसे आगे ले जाने और एक नागरिक के रूप में अपने दायित्व निभाने का है। मगर क्या मैं ऐसा कर पा रहा हूं? क्या आप ऐसा कर पा रहे हैं?
  मैं इस समय लालकिले के सामने खड़ा हूं। अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजने और इसके बाद आजादी के संघर्ष का साक्षी रहे इस किले ने कई दौर देखे हैं। यह देश और दिल्ली की बदलती राजनीति को खामोशी से देखता रहता है। किले के परिसर में पसरा सन्नाटा अब बाहर तक महसूस होता है। यह इतिहास के न जाने कितने पन्नों और न जाने कितनी चीखों के समेटे हुए है अपने सीने में। अब हर पल सन्नाटा बुनता रहता है लालकिला। इस किले से रू-ब-रू हूं अभी। हमारे दरम्यान सुरक्षा का अभेद्य फासला है। किले की शीर्ष प्राचीर पर तिरंगा शान से लहरा रहा है। वह आश्वस्त कर रहा है- हमारा लोकतंत्र ही देश का प्राण है। वही हमारी ताकत है।
तिरंगे को सलाम करते हुए लौट रहा हूं। सड़क के किनारे चलते हुए मैले-कुचैले कपड़े पहने एक भिखारी ने मेरा रास्ता रोक लिया है। बता रहा कि वह दो दिन से भूखा है। उसे खाने को कुछ चाहिए। मैं आसपास नजर दौड़ा रहा हूं। सुरक्षा कारणों से सभी खोमचे वाले हटा दिए गए हैं। जनता भोजन के बहाने गरीबों से भूख की राजनीति करने वाली सरकार के जन आहार वाले वाहन भी यहां नहीं दिख रहे, जिससे पूड़ी-सब्जी ही उसे खिला सकूं।
‘… बाबूजी दस रुपए ही दे दीजिए। पुरानी दिल्ली स्टेशन के पास ही कुछ खा लूंगा।’ मुझे असमंसस में देख उस गरीब ने कहा। मैंने उसे 20 रुपए दे दिए हैं। वह मुझे दुआ देता हुआ स्टेशन की तरफ जा रहा हैं। मैं सोच रहा हूं, यह देश आज भी भूख से लड़ नहीं पाया है। लाखों लोग एक वक्त का खाना खाकर सो जाते हैं। करोड़ों लोग पेट भरने के लिए गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। कई जगह उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती। और अगर काम नहीं मिलता तो वे दूसरों के आगे हाथ पसार देते हैं इस भिखारी की तरह।
मैं चांदनी चौक की तरफ चल पड़ा हूं। आजादी का वास्तविक जश्न कैसे मनेगा, यह मुझे समझ में आ गया है। आज काम न मिलने से कुछ मजदूर यहां फुटपाथ पर आराम करते दिख रहे हैं। एक मजदूर कोने में बैठा रेडियो सुन रहा है। मैं घर लौट रहा हूं। मेरे कदम मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ रहे हैं। रास्ते में एक बच्ची मुझे तिरंगा खरीदने के लिए आग्रह कर रही हैं। क्या तिरंगे बेच कर वह आजादी का जश्न मनाएगी? या इससे परिवार का पेट भरेगी यह बच्ची। नहीं मालूम। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी इसकी कल्पना नहीं की होगी। मैं उसका दिल रखने के लिए उससे सभी झंडे खरीद रहा हूं। इन्हें मैं बच्चों में बांट दूंगा। …. उधर, रेडियो पर जो गीत बज रहा है, वह मेरा कलेजा चाक कर दे रहा है-

ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया,
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

हर एक इंसान घायल, हर एक रूह प्यासी,
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी,
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

About the author

संजय स्वतंत्र

बिहार के बाढ़ जिले में जन्मे और बालपन से दिल्ली में पले-बढ़े संजय स्वतंत्र ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की है। स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के बाद एमफिल को अधबीच में छोड़ वे इंडियन एक्सप्रेस समूह में शामिल हुए। समूह के प्रतिष्ठित हिंदी दैनिक जनसत्ता में प्रशिक्षु के तौर पर नौकरी शुरू की। करीब तीन दशक से हिंदी पत्रकारिता करते हुए हुए उन्होंने मीडिया को बाजार बनते और देश तथा दिल्ली की राजनीति एवं समाज को बदलते हुए देखा है। खबरों से सरोकार रखने वाले संजय अपने लेखन में सामाजिक संवेदना को बचाने और स्त्री चेतना को स्वर देने के लिए जाने जाते हैं। उनकी चर्चित द लास्ट कोच शृंखला जिंदगी का कैनवास हैं। इसके माध्यम से वे न केवल आम आदमी की जिंदगी को टटोलते हैं बल्कि मानवीय संबंधों में आ रहे बदलावों को अपनी कहानियों में बखूबी प्रस्तुत करते हैं। संजय की रचनाएं देश के सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचारपत्रों एवं पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

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